वास्तव में वाल्मीकि रामायण के उत्तरकाण्ड के संदर्भ में ही तुलसी के रामचरितमानस के ‘उत्तर काण्ड’ को उचित रीति से समझा जा सकता है,
आद्य रामायण के प्रणेता महर्षि वाल्मीकि ने अपनी रामायण के स्वरूप का निर्धारण करते हुए बाल काण्ड के चतुर्थ सर्ग में इसका निम्न निदान प्रस्तुत किया है-
चतुरविंशत्सहस्राणि श्लोकानामुक्तवानृषि
तथा सर्गशतान पञ्च षट्कांडानि तथोत्तरम्। (वा. रा. 1/4/2 )
अर्थात् इसमें महर्षि ने चौबीस हजार श्लोक, पांच सौ सर्ग, छह काण्ड और ‘उत्तर’ भाग की रचना की है। यह श्लोक उन सभी महामनीषी, उद्भट, अधीत महानुभावों को रामायण के रचनाकार का स्वत: स्पष्ट समाधान है, जो इस बात को लेकर सदियों से अपनी शक्ति का क्षरण करते आ रहे हैं कि वाल्मीकि रामायण का उत्तरकाण्ड एक उत्तरवर्ती प्रक्षिप्त भाग है, जिसकी रचना वाल्मीकि जी ने नहीं की है। वास्तव में वाल्मीकि रामायण के उत्तरकाण्ड के संदर्भ में ही तुलसी के रामचरितमानस के ‘उत्तर काण्ड’ को उचित रीति से समझा जा सकता है, क्योंकि इसकी रचना में जहां गोस्वामी तुलसीदास ने आदि कवि की कुशल विधा का अभीष्ट उपयोग किया है, वहीं उनके समान ही इसमें कुछ कूट और गुत्थियां भी रख छोड़ी हैं, जिनका शंका समाधान करते हुए रामायण के पाठकों और अध्येताओं को लगातार परिश्रम करना पड़ता है।
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रामचरितमानस के बाल काण्ड में पार्वती जी ने भगवान शिव से जो निम्न आठ प्रश्न किए हैं, वे एक प्रकार से रामकथा के काण्डों का ही परिचय हैं-
प्रथम सो कारण कहहु बिचारी। निर्गुन ब्रह्म सगुन बपु धारी।
पुनि प्रभु कहउ राम अवतारा। बालचरित पुनि कहहु उदारा।।
(बालकाण्ड)
कहहु जथा जानकी बिबाहीं। राज तजा सो दूषन काहीं।
(बालकाण्ड, अयोध्या काण्ड)
बन बसि कीन्हे चरित अपारा। कहउ नाथ जिमि रावन मारा।
(अरण्य, किष्किन्धा, सुंदर और लंका काण्ड)
राज बैठि कीन्हीं बहु लीला। सकल कहउ संकर सुखसीला।
(उत्तर काण्ड)
बहुरि कहउ करुनायतन कीन्ह जो अचरज राम।
प्रजा सहित रघुबंसमनि किमि गवने निज धाम।
(बाल काण्ड 110 उत्तर रामायण)
पार्वती जी ने अपने इन प्रश्नों में श्रीराम के स्वधाम गवन के जिस वृत्त के समाहार का अनुरोध किया है, वह वस्तुत: वाल्मीकि की ‘उत्तर रामायण’ की कथा है, जिसे तुलसी ने स्पष्टतया छोड़ दिया है। उत्तरकाण्ड में अपनी कथा का उपसंहार करते हुए शिव जब कहते हैं, ‘राम कथा गिरिजा मैं बरनी’ तो पार्वती जी उसे यथावत स्वीकार करते हुए कहती हैं, ‘नाथ कृपा मम गत संदेहा।’ (उत्तर काण्ड 129)
रामकथा के भाष्यकार इसका समाधान करते हुए प्राय: यही कहते हैं कि श्रीराम के स्वधाम गवन की लीला तुलसी को प्रीतिकर नहीं होने से स्वीकार ही नहीं थी। इसी तरह शिव और पार्वती संवाद के संदर्भ में भी यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि प्रश्न पूछते समय यद्यपि पार्वती जी की इस प्रश्न के प्रति जिज्ञासा रही होगी, किन्तु भगवान की नित्य लोकोत्तर कथा सुन लेने के बाद उनका सम्पूर्ण समाधान हो गया। अत: उन्हें अपने मूल प्रश्न को पुन: स्मरण कराने की आवश्यकता ही प्रतीत नहीं हुई। किन्तु इससे यह संकेत तो ग्रहण किया ही जा सकता है कि तुलसी को अपने युग और अपनी दृष्टि में इस कथा विस्तार का बोध था। जैसा कि उन्होंने अपने उपोद्घात (विशिष्ट कथन) में स्पष्ट किया है- निगम, आगम, पुराण आदि से सुसंगत कथानक के अतिरिक्त उन्होंने ‘कुछ’ अन्यत्र अर्थात् अपनी कल्पना, काव्य कला, शील और संस्कार-परंपरा से भी संपृक्त किया। इसमें युग-बोध, भाषा-विज्ञान, समाज-दर्शन, साहित्य के प्रतिमान और कवि की अपनी प्रतिभा की छाप भी स्वत: आती ही है।
तुलसी के संदर्भ में इन परिमाणों को किसी प्रकार न्यूनतर मानकर नहीं चला जा सकता, क्योंकि जहां उनकी वेद-वेदांग की शिक्षा आचार्य शेष सनातन के प्रसिद्ध गुरुकुल में हुई, वहीं उन्हें भक्ति परंपरा के आद्याचार्य रामानंद जी महाराज के शिष्य श्री नरहयार्चार्य की कृपा भी प्राप्त हुई थी। इस प्रकार उन्हें भारतीय ज्ञान परंपरा का संस्कार, शिक्षा और स्वयं की युगांतरकारी प्रतिभा से प्रामाणिक प्रतिनिधि पुरुष ही कहा जाना उचित है।
इतना सब इस धारणा की प्रतीति में है कि उत्तर काण्ड में तुलसीदास जी ने इसकी कथावस्तु का जो स्वरूप अवधारित किया है, उसमें मुख्य रूप से वाल्मीकि की उत्तर रामायण का आधार देखा जा सकता है। कथानक के रूप में रामचरितमानस के उत्तर काण्ड में श्रीराम के अयोध्या लौटने पर उनका अभिषेक, विभीषण, सुग्रीव आदि मित्रों की विदाई, राम राज्य का वैभव, राम का राज्यसभा संबोधन, काकभुशुंडि उपाख्यान, कलियुग संताप, ज्ञान व भक्ति मार्ग का विवर्तन मुख्य प्रसंग हैं। अनंतर श्रीराम द्वारा अश्वमेध यज्ञ करने तथा उनके सहित अन्य भाइयों के दो-दो पुत्र होने का उल्लेख कर ही इस मूल कथानक को ‘विश्राम’ दे दिया है।
वाल्मीकि रामायण का षष्ठ कांड ‘पौलस्त्य (रावण) के वध’ के साथ एक अर्थ में पूर्ण हो जाता है, जैसा कि महर्षि का कथानक विषयक प्रतिज्ञा कथन है-
‘काव्यं रामायणं कृत्स्न्नं सीतायाश्चरितं महत्।
पौलस्त्यवधमित्येव चकार चारितव्रत: (बालकाण्ड 4/7)
उनके उत्तरकाण्ड के 111 सर्गों में लगभग 30 प्रतिशत (1 से 34 सर्ग) भाग में रावण के अत्याचार का विवरण है। यहां यह ध्यान में रखना महत्वपूर्ण है कि तुलसी ने रावण के इन अत्याचारों का वर्णन बाल काण्ड में ही समेट लिया है। सर्ग 35-36 में हनुमान जी का विवरण है। इसके अतिरिक्त सीता जी के कथानक का अतिमहत्वपूर्ण भाग है- उनका वनवास, उनके द्वारा कुश और लव को जन्म देना और अंतत: उनका अपनी जन्मदात्री पृथ्वी की गोद में समा जाना। इसके अतिरिक्त श्रीराम के साकेत धाम लौटने के पूर्व का एक और महत्वपूर्ण वृत्त उल्लेखनीय है, जिसमें उन्होंने लक्ष्मण को उनकी आज्ञा के उल्लंघन के लिए दंडित करते हुए उनका परित्याग किया, जिससे लक्ष्मण श्रीराम के साकेत प्रत्यागमन के पूर्व ही अपने अनंतशेष स्वरूप में स्थित हो जाते हैं।
यदि हम तुलसी के अन्य महत्वपूर्ण कथा-स्रोत पद्म पुराण का संदर्भ लें, तो उसके पाताल खंड के अध्याय 1 से 68 में मुख्य रूप से वाल्मीकि रामायण के उत्तरखंड का ही विस्तार मिलता है। इसके अतिरिक्त स्कन्द पुराण के वैष्णव खंड में उत्तर काण्ड के कथानक का समावेश है। वेद व्यास रचित महाभारत के वन पर्व में भी मार्कंडेय ऋषि द्वारा युधिष्ठिर को वर्णित श्रीराम के कथानक की उत्तर काण्ड विषयक कथावस्तु का सम्यक समावेश हुआ है। इस प्रकार, वाल्मीकि की संरचना में उत्तरकाण्ड की समायोजना की प्रामाणिकता पर संदेह करना कुछ पूर्वाग्रह और कुछ अतिरिक्त बौद्धिकता जनित प्रतीत होता है।
वस्तुत: उत्तर रामकथा के कुछ प्रसंग विशेषकर सीता परित्याग और शंबूक वध से हमारी वर्तमान स्त्री और दलित विमर्श चेतना आहत प्रतीत होती है। संभवत: इससे त्राण का मार्ग इस सम्पूर्ण वृत्त को प्रक्षिप्त मानना सुविधाजनक हो जाता है। किन्तु ऐसे अन्य अनेक धरातल हैं, जिनका स्पर्श करते हुए हम सभी आशंका-कुशंका का निवारण कर सकते हैं। किन्तु यहां इसका अवसर या इसकी आवश्यकता नहीं है। अत: मैं गोस्वामी तुलसीदास के उत्तरकाण्ड की कथावस्तु की सारवत्ता तक ही अपने आप को सीमित रख रहा रहा हूं।
तुलसी को अपनी ‘सुहावन जन्म भूमि पुरी (अयोध्या)’ स्वभावत: ही बहुत प्रिय है, क्योंकि इसके ‘उत्तर दिसि’ पावन सरयू बहती है। किन्तु उनके मानस की ‘सप्त सोपान’ भूमिका तो और भी अधिक स्पष्ट है-
सप्त प्रबंध सुभग सोपाना (बा.कां. 36/1),
भूमि सप्त सागर मेखला। एक भूप रघुपति कोसला। (उ.कां. 21/1) और
एहि मह रुचिर सप्त सोपाना। रघुपति भगति केर पन्थाना। (उ.कां. 128/3)
हम पार्वती जी के द्वारा पूछे गए सप्त प्रश्नों का उल्लेख कर ही चुके हैं, जिनका भगवान शिव सविस्तार उत्तर देते हैं और वे जैसे साभिप्राय ही श्रीराम के स्वधाम गवन के अष्टम प्रश्न को छोड़ देते हैं। यहां तक कि गरुड़-काकभुशुंडि संवाद में अनेक प्रश्नोत्तरों की दीर्घ शृंखला है, किन्तु अंत में गरुड़ संजोकर रखे ‘सात’ प्रश्नों के उत्तर में ही परिपूर्णता पाते हैं-
नाथ मोहि निज सेवक जानी।
सप्त प्रश्न मम कहहु बखानी। (उ. कां. 120.2)
1. सबसे दुर्लभ कवन सरीरा
2. बड़ दुख कवन
3. कवन सुख भारी
4. संत असंत मरम तुम जानहु। तिन कर सहज सुभाव बखानहु।
5. कवन पुन्य श्रुति बिदित बिसाला
6. कहहु कवन अघ परम कराला
7. मानस रोग कहहु समुझाई
भगवान श्रीराम के विषद लीला वृत्त, गरुड़ तथा काकभुशुंडि जैसे महान भक्तों के व्यामोह के निवारण तथा ज्ञान और भक्ति जैसे गूढ़ दर्शन सिद्धांत के निरूपण के पश्चात गरुड़ के इन सामान्य से सात प्रश्नों को सुनकर यह लग सकता है कि क्या इनकी प्रासंगिकता तब भी शेष रहती है। किन्तु गोस्वामी जी को श्रीराम के लोकोत्तर आख्यान को जन-जन तक पहुंचाना ही अधिक अभीष्ट था। सुख-दुख, पुण्य-पाप, संत-असंत और मन के निग्रह जैसे विषय मानवीय जीवन यापन के ऐसे आयाम हैं, जो किसी भी व्यक्ति के विचार की प्रक्रिया में आरंभ से अंत तक विद्यमान रहते हैं। और तो और, अरण्य काण्ड में लक्ष्मण (ईश्वर जीव भेद प्रभु अ.कां. 14 ) और उत्तरकाण्ड में भरत (संत असंत भेद बिलगाई। प्रनतपाल मोहि कहहु बुझाई (उ. कां. 36.5) श्रीराम से कुछ इसी तरह के प्रश्नों के उत्तर चाहते हैं।
वस्तुत: मानव जीवन अपने आप में ही प्रश्नोत्तर की निरंतर प्रक्रिया है, जिसे वह अपने अनुभव में लगातार दोहराने में लगा रहता है। किन्तु इनका पूर्ण समाधान तभी संभव हो पाता है, जब कोई सिद्ध महापुरुष अपने अनुभव से उनका समाधान करता है। फिर साक्षात् श्रीराम और उनके परम प्रसाद भाजन कल्पांतजयी काकभुशुंडि से इनके समाधान के लिए उत्तर काण्ड के समापन बिन्दु पर श्रीगरुड़ का प्रवृत्त होना कोई आश्चर्य का विषय नहीं प्रतीत होता।
उक्त विचारपूर्वक यही कहा जा सकता है कि जिस प्रकार श्रीमद्भागवत के अंत में भगवान श्रीकृष्ण उद्धव को – मामेव नैरपेक्ष्येण भक्तियोगेन विंदति। (11/27/53) तथा भगवद्गीता के अंत में अर्जुन को- सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज (18/66) कहते हैं, गोस्वामी तुलसीदास भी रामायण के सम्पूर्ण कथानक का सार तत्त्व प्रपत्ति अर्थात् श्रीराम की अनन्य भक्ति के उपदेशपूर्वक अपने उत्तरकाण्ड का समापन करते हैं-
जासु पतित पावन बड़ बाना।
गावहिं कबि श्रुति संत पुराना।
ताहि भजहि मन तजि कुटिलाई।
राम भजे गति केहि नहिं पाई।। (उत्तर काण्ड 129/7-8)
चूंकि यह एक आख्यानक महाकाव्य है, अत: वे गणिका, अजामिल, व्याध, गीध, गज, खल, आभीर, यवन, किरात, खस और स्वपच आदि जीव, जाति और समूह के परमोद्धार के दृष्टांत देना भी नहीं भूलते। इस प्रकार, तुलसी के मानस का उत्तरकाण्ड पारंपरिक फलश्रुति के बहुत आगे प्रमाण, द्रष्टांत और आत्मानुभव को भी प्रकाशित कर इसे स्वयंसिद्ध संपूर्णता का आधार प्रदान करता है।
(लेखक महर्षि अगस्त्य वैदिक संस्थानम्, भोपाल के अध्यक्ष और
‘तुलसी मानस भारती‘ के संपादक हैं)
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