जन जन तक यूं पहुंचा मानस

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डॉ. संतोष कुमार तिवारी

जन-जन तक और घर-घर तक पंहुचाने का कार्य गीता प्रेस ने किया। गीता प्रेस, गोरखपुर ने रामचरितमानस छापना सन् 1938 से शुरू किया। इसके पहले रामचरिमानस की जो प्रतियां बाजार में थीं, उनका मूल्य इतना अधिक था कि आम आदमी उसे आसानी से खरीद नहीं सकता था।

गोस्वामी तुलसीदास ने जनता की भाषा में रामचरितमानस लिखा। परन्तु इसे जन-जन तक और घर-घर तक पंहुचाने का कार्य गीता प्रेस ने किया। गीता प्रेस, गोरखपुर ने रामचरितमानस छापना सन् 1938 से शुरू किया। इसके पहले रामचरिमानस की जो प्रतियां बाजार में थीं, उनका मूल्य इतना अधिक था कि आम आदमी उसे आसानी से खरीद नहीं सकता था।

चंद्रप्रभा छापाखाना, बनारस से सन् 1883 में छपी प्रति का मूल्य चार रुपये था (मानस अनुशीलन, लेखक शंभु नारायण चौबे, पृष्ठ 8, नागरी प्रचारणी सभा, वाराणसी)। दूसरी ओर गीता प्रेस से सन् 1945 में छपे रामचरितमानस (गुटका संस्करण कुल पृष्ठ संख्या 678) का मूल्य मात्र आठ आने अर्थात् पचास पैसे था। अब सन् 2023 में इस गुटका संस्करण का मूल्य बढ़ कर पैंसठ रुपये हो गया है।

गीता प्रेस ने पहली बार रामचरितमानस (भावार्थ सहित) सन् 1938 में छापा था। यह ‘कल्याण’ का वर्ष 13 अंक एक था। बाद में सन् 1939 में पहली बार गुटका संस्करण छपा था। गुटका संस्करण में भावार्थ नहीं है। तब से अब तक इस संस्करण की एक करोड़ से अधिक प्रतियां बिक चुकी हैं।

गीता प्रेस ने रामचरितमानस का प्रकाशन करने के पूर्व लगभग पांच वर्ष (1933-1938) तक इस विषय पर गहन शोध किया था। इसी गहन शोध के कारण आज गीता प्रेस के रामचरितमानस के पाठ को सबसे शुद्ध पाठ माना जाता है।

तुलसीदासजी की अन्य रचनाएं


रामचरितमानस के अतिरिक्त गीता प्रेस ने गोस्वामी तुलसीदासजी की अन्य रचनाएं भी प्रकाशित की हैं: वैराग्य संदीपनी, बरवै रामायण, रामाज्ञा प्रश्न, कवितावली, दोहावली, गीतावली, विनय पत्रिका, जानकी-मंगल, पार्वती-मंगल, हनुमान चालीसा, हनुमान बाहुक, रामललानेहछू आदि।

ढोल गंवार शूद्र पशु नारी…

वर्ष 2019 में ‘कल्याण’ के तत्कालीन सम्पादक श्री राधेश्याम खेमकाजी (1935 – 2021) से इस लेख के लेखक ने प्रश्न किया था: रामचरितमानस के सुन्दरकाण्ड की एक चौपाई में कहा गया है -‘ढोल गंवार शूद्र पशु नारी। सकल ताड़ना के अधिकारी।’ क्या आप इस बात से सहमत हैं?
खेमकाजी का उत्तर था : पूरे संदर्भ में देखें तो यह समुद्र्र का प्रलाप है, जो कि अनुकरणीय नहीं है। हमारे हिन्दू धर्म में नारी को बहुत ऊंचा और सम्मानित दर्जा दिया गया है। शास्त्रों में कहा गया है – ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता:।’ अर्थात जहां नारी की पूजा होती है वहां देवता निवास करते हैं।
खेमकाजी से किया गया यह लम्बा इंटरव्यू ‘पाञ्चजन्य’ 28 अप्रैल, 2019 के अंक में प्रकाशित हुआ था। खेमकाजी अपने जीवन के अन्तिम 38 वर्षों तक ‘कल्याण’ के सम्पादक रहे। वह कोई वेतन नहीं लेते थे।

तुलसी रामायण का नाम रामचरितमानस है और इसकी रचना सोलहवीं शताब्दी के अन्त में गोस्वामी तुलसीदास ने की। जबकि वाल्मीकि रामायण कोई तीन हजार साल पहले संस्कृत में लिखी गई थी। इसके रचयिता वाल्मीकि को आदि कवि भी कहा जाता है।

रामचरितमानस का शुद्ध पाठ प्रकाशित करने के लिए गीता प्रेस ने बहुत पापड़ बेले थे। मानस की सबसे प्राचीन मुद्रित लीथो प्रति सन् 1762 की है। यह केदार प्रभाकर छापाखाना, काशी से छपी। इसमें चौपाइयों की पंक्तियां मिलाकर निरंतरता में छपी हैं। रामचरितमानस की दूसरी छपी हुई प्रति सन् 1810 की है। यह संस्कृत यंत्रालय, काशी से छपी। तीसरी बार रामचरितमानस वर्ष 1839 में मुकुंदीलाल जानकी के छापाखाना, कोलकाता में छपा था। कहने का मतलब यह है कि सन् 1762 से पहले जो भी रामचरितमानस या उसके अंश कहीं उपलब्ध थे, वे हस्तलिखित पाण्डुलिपि के तौर पर थे, जो मूल या अन्य किसी पाण्डुलिपि से नकल करके बनाए गए थे। इस नकल के लेखन में कुछ गलतियां भी हुई होंगी। इसके अतिरिक्त महाकवि तुलसीदास ने खुद भी अपनी रचना को और सुन्दर बनाने के लिए बाद में कुछ संशोधन किए होंगे।

पाण्डुलिपि की तलाश
गीता प्रेस की स्थापना वर्ष 1923 में हुई और सन् 1926 से उसकी मासिक पत्रिका ‘कल्याण’ का प्रकाशन प्रारभ हुआ। कल्याण के आदि सम्पादक ब्रह्मलीन हनुमान प्रसाद पोद्दार जी (1892-1971) थे। वे गीता प्रेस के आधार स्तम्भ थे और भाईजी के नाम से लोकप्रिय थे।

जब गीता प्रेस ने रामचरितमानस प्रकाशित करने का फैसला किया, तो भाईजी ने तलाश की इस पुस्तक की सर्वाधिक प्राचीन हस्तलिखित पाण्डुलिपि की। इस सिलसिले में वर्ष 1933 में वे तुलसीदास की जन्मस्थली राजापुर (चित्रकूट) जाने वाले थे। परन्तु इस बीच उन्हें गीता प्रेस गोरखपुर में ही कुछ जरूरी काम पड़ गया और वे अस्वस्थ भी हो गए। इस कारण उन्होंने अपने विश्वासपात्र गम्भीर चन्द दुजारी जी (1901-1962) और चिम्मनलाल गोस्वामीजी (1900-1974) को राजापुर भेजा। गोस्वामीजी हिन्दी, संस्कृत और अंग्रेजी तीनों भाषाओं के प्रकाण्ड विद्वान थे। वहां इन दोनों को अयोध्या कांड की हस्तलिखित पाण्डुलिपि मिली। इन लोगों ने वहां कुछ दिन रह कर उन पाण्डुलिपियों को अपने हाथ से पुन: लिखा। उन दिनों भारत में फोटो कॉपी मशीनें और मोबाइल फोन नहीं थे। फिर ये दोनों श्रावणकुंज अयोध्या गए। वहां उन्होंने बालकाण्ड की हस्तलिखित पाण्डुलिपि की नकल की। ये बातें गम्भीर चन्द दुजारी जी के वयोवृद्ध पुत्र हरिकृष्ण दुजारीजी ने इस लेखक को बताईं। श्री हरिकृष्ण दुजारीजी एक जाने-माने लेखक हैं। वे गीता प्रेस में अवैतनिक कार्य करते थे।

इस सब सामग्री को लेकर गम्भीर चन्द दुजारीजी और चिम्मनलाल गोस्वामीजी गोरखपुर आए। इस बीच गोस्वामीजी के पिताजी की तबीयत बहुत खराब हो गई। तो उन्हें बीकानेर जाना पड़ा। उनके साथ आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी भी गए। हिन्दी और संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान वाजपेयी जी उन दिनों गीता प्रेस में ही काम करते थे। वे बाद में विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन के कुलपति हो गए थे। इन दोनों ने बीकानेर में रह कर उन पाण्डुलिपियों पर परस्पर विचार-विमर्श, चिंतन और शोध किया। ये लोग भाईजी से भी संपर्क में रहे, जो इस बीच अपने पैतृक निवास रतनगढ़, राजस्थान आ गए थे, और वहीं से ‘कल्याण’ का सम्पादकीय कार्य देख रहे थे। हरिकृष्ण दुजारीजी ने बताया कि रामचरितमानस की कई पाण्डुलिपियां ढूंढ़ी गईं सुन्दर काण्ड की दुलही ग्राम, लखीमपुर से मिली प्रतिलिपि तुलसीदासजी के हाथ की लिखी लगती है।

प्रत्येक वर्ष ‘कल्याण’ का एक विशेषांक निकाला जाता है। वर्ष 1938 में ‘कल्याण’ का मानसांक निकाला गया। पूरे अंक को स्वरूप देने में चिम्मनलाल गोस्वामी और नन्ददुलारे वाजपेयी का विशेष हाथ था। इनका नेतृत्व भाईजी कर रहे थे। दुजारीजी ने बताया कि 928 पृष्ठों वाला मानसांक जब वर्ष 1938 में निकला, तब इसकी 40,600 प्रतियां छपीं। ये तुरन्त ही बिक गईं। इतनी जल्दी ये ‘कल्याण’ के सभी नियमित वार्षिक ग्राहकों को भी नहीं भेजी जा सकीं। इसलिए उसी वर्ष 10,500 प्रतियां और छापी गईं। उसी वर्ष मानसांक के दो परिशिष्ट भी निकाले गए। इन्हें मिला कर यह मानसांक 1122 पृष्ठ का हो गया। ‘कल्याण’ का वार्षिक मूल्य उस समय चार रुपये तीन आना अर्थात् 4 रुपये 18 पैसे था। पूरे वर्ष में ‘कल्याण’ के 1762 पृष्ठ छपे। इसमें गीता प्रेस को हजारों रुपये का नुकसान हुआ। भाईजी ने इस नुकसान की भरपाई अपने स्रोतों और मित्रों के माध्यम से की थी। मानसांक में रामचरितमानस और तुलसीदास पर कई लेख भी छपे थे।

रामचरितमानस एक महाकाव्य है। इसलिए इसके चिंतन और शोध में संगीत का ज्ञान भी आवश्यक है। भाईजी को भारतीय शास्त्रीय संगीत का भी ज्ञान था। उन्होंने कुछ समय शास्त्रीय संगीतसम्राट श्रीविष्णु दिगम्बर पलुस्कर (1872-1931) से शिक्षा ली थी। चिम्मनलाल को भी गायन का ज्ञान था और उनका स्वर बहुत अच्छा था। वे जब तुलसी की विनय पत्रिका और रामचरितमानस का गान करते थे, तो लोग मन्त्रमुग्ध हो कर रह जाते थे।

पाठ भेद पर विचार
रामचरितमानस में सात काण्ड हैं। इनके अन्तर्गत 27 श्लोक, 4608 चौपाई, 1074 दोहे, 207 सोरठा, और 86 छन्द हैं। इसमें से हर श्लोक, चौपाई, आदि पर एक बार नहीं, कई-कई बार भाईजी, चिम्मनलाल गोस्वामीजी और नन्ददुलारे वाजपेयीजी द्वारा मिलकर विचार विमर्श हुआ।
मानसांक में ‘सम्पादक का निवेदन’ शीर्षक से भाईजी ने लिखा:

‘श्री गोस्वामीजी के हाथ का लिखा ग्रन्थ तो कहीं मिला नहीं; और हस्तलिखित अथवा मुद्रित जितने भी नए पुराने संस्करण मिले, उन सभी में पाठ भेद की प्रचुरता मिली। … ऐसे भी अनेक पाठ भेद हैं जिनमें अर्थ में महत्वपूर्ण अन्तर पड़ जाता है। … इसमें किसी की नीयत पर सन्देह दोषारोपण नहीं किया जा सकता है।’
भाईजी ने लिखा कि पाठभेद के दो कारण हो सकते हैं। ‘एक तो मूल से नकल करने वालों में चूक हो गई हो।’ दूसरा ह्यगोस्वामी तुलसीदास ने कविता को और भी सुन्दर और पूर्ण बनाने के ख्याल से जहां-तहां, जिसमें सब लोगों का चित्त उसकी ओर आकर्षित हो, पाठ को बदला हो।’

‘बहुत खोजने और पड़ताल करने पर समय की दृष्टि से हमें तीन पुरानी प्रतियां मिलीं -एक श्रीअयोध्याजी के श्रावणकुंज का बालकाण्ड जो संवत् 1661 का लिखा है, दूसरा राजापुर का अयोध्याकाण्ड, श्री गोस्वामीजी के हाथ का लिखा कहा जाता है…। और तीसरा दुलही का सुन्दरकाण्ड जो संवत् 1672 का लिखा है और श्रीगोस्वामीजी के हाथ का लिखा कहा जाता है। उसकी लिपि भी गोस्वामीजी की लिपि से मिलती है। बहुत सुन्दर अक्षर हैं। … अतएव बाल, अयोध्या और सुन्दर, इन तीनों काण्डों का उपर्युक्त तीनों के आधार पर और शेष चार काण्डों को श्री भागवतदासजी की प्रति के आधार पर पाठ संशोधन और राजापुर की प्रति में प्राप्त व्याकरण के अनुसार सम्पादन करके एक छपने योग्य प्रति पं. चिम्मनलाल गोस्वामी एम.ए., और श्री नन्ददुलारे वाजपेयी एम.ए. ने मिलकर तैयार की।…’
‘मानसांक में दोहे, चौपाइयों का अर्थ भी छापा गया है। वह न तो केवल शब्दार्थ है और न ही विस्तृत टीका ही। उसे भावार्थ कहना चाहिए।…’
मानसांक के पृष्ठ संख्या 1122 पर पोद्दारजी ने लिखा है:

‘मानसांक के सम्पादन में हमें बहुत सज्जनों से सहायता मिली है। इनमें महात्मा श्री अंजनीनन्दनशरणजी से जो सहायता मिली है, वह अकथनीय है। मानस के पाठ निर्णय में और उसका भावार्थ लिखने में आपकी (पुस्तक) मानस-पीयूष से सबसे बढ़कर सहायता प्राप्त हुई है। श्रावणकुंज की और श्री भागवतदासजी की अविकल नकल की हुई प्रतियों को मांगते ही कई बार आपने यहां भेजकर हमें अनुग्रहीत किया है। आप सरीखे सच्चे भक्तों की कृपा ही हमारा सहारा है। इसके अतिरिक्त पं. रामबहोरीजी शुक्ल एम.ए., पं. चन्द्रबलीजी पाण्डेय एम.ए., महात्मा बालकरामजी विनायक, राय श्रीकृष्णदासजी, पं. हनुमानजी शर्मा प्रभूति ने सामग्री-संग्रह आदि में बड़ी सहायता दी है। सम्पादन कार्य में मेरे सम्मान्य मित्र श्रीगोस्वामीजी और श्रीवाजपेयीजी से सहायता मिली ही है। आदरणीय बन्धु पं. शांतुन बिहारीजी द्विवेदी, भाई माधवजी और श्री देवधरजी से बड़ा सहारा मिला है। अपने अपने ही हैं, इनका नाम भी बड़े संकोच के साथ ही लिखा गया है, केवल व्यवहार दृष्टि से।’

उस समय जो लोग गीता प्रेस के सम्पादकीय विभाग में काम करते थे, वे सभी लोग पोद्दारजी के व्यक्तित्व और लेखों से आकृष्ट होकर गीता प्रेस में आए थे, जीविका के लिए नहीं। इनमें से कुछ तो नि:शुल्क सेवा करते थे, कुछ को साधारण वेतन मिलता था, पर सभी नि:स्वार्थ भाव से रहते थे। पोद्दारजी सबको अपने परिवार का अंग समझते थे और उनकी आवश्यकताओं का पूरा ध्यान रखते थे। वे इन आश्रितों की व्यक्तिगत और पारिवारिक समस्याओं में भी पूरी दिलचस्पी लेते थे और आवश्यकतानुसार उनकी सहायता के लिए हमेशा तैयार रहते थे।

अपनी पुस्तक ‘कल्याण पथ: निर्माता और राही’ (पृष्ठ संख्या 222) में डॉ. भगवती प्रसाद सिंह लिखते हैं:
‘रामचरित मानस के प्रचार में गीता प्रेस का सर्वाधिक योगदान है। मानस के विभिन्न संस्करण प्रकाशित कर करोड़ों की संख्या में उसकी प्रतियां देश-विदेश पहुंचने का श्लाघनीय प्रयास उसके द्वारा हुआ है। रामचरितमानस का प्रथम संस्करण ‘कल्याण’ के विशेषांक के रूप में ही प्रकाशित हुआ। इसमें प्रामाणिक और शुद्ध पाठ देने की भरसक चेष्टा की गई है।’

‘मानसांक की एक विशिष्ट उपलब्धि इसके चित्र भी हैं। इसमें जितने रेखा चित्र एवं रंगीन चित्र दिये गए हैं, उतने शायद ही मानस के किसी संस्करण में हों।… अब तक इस लोक विश्रुत ग्रन्थ (रामचरितमानस) के जितने भी संस्करण निकले हैं, गीता प्रेस द्वारा प्रकाशित संस्करण उनमें सर्वोत्कृष्ट और समाहृत है। पोद्दारजी ने उसके पाठ सम्पादन में वैज्ञानिक प्रक्रिया के साथ ही साहित्यिक दृष्टि को भी यथोचित महत्व दिया है, उसकी विषद भूमिका इसका प्रमाण है।’

मानसांक में इस काव्य ग्रन्थ का हिन्दी भावार्थ भाईजी ने स्वयं किया। उसका बाद में अंग्रेजी अनुवाद चिम्मनलाल गोस्वामीजी ने किया है। इनकी हिन्दी और अंग्रेजी के ज्ञान की कई प्रकाण्ड पंडितों ने सराहना की है।

आज गीता प्रेस में रामचरितमानस का प्रकाशन दस भाषाओं में हो रहा है-हिन्दी, अंग्रेजी, मराठी, बंगाली, गुजराती, उड़िया, तेलुगू, कन्नड़ और नेपाली और असमिया। वर्ष 2019 तक इसका प्रकाशन केवल नौ भाषाओं में होता था। कुछ पाठकों की सुविधा के लिए गीता प्रेस ने रामचरितमानस के सातों काण्डों को अलग-अलग पेपरबैक संस्करण में भी प्रकाशित किया है।

गीता प्रेस के अतिरिक्त एक संगठन है गीता सेवा ट्रस्ट। इसके ऐप (https://gitaseva.org/app) को डाउनलोड करके रामचरितमानस सहित गीता प्रेस की दो सौ से अधिक पुस्तकें मुफ्त में पढ़ी जा सकती हैं। इस ऐप पर धीरे-धीरे गीता प्रेस की और पुस्तकें भी अपलोड हो रही हैं। इस समय गीता प्रेस 1700 से अधिक पुस्तकें प्रकाशित करता है। (लेखक सेवानिवृत्त प्रोफेसर हैं।)

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