जाने किस तरुवर तले भीजे रे मेरे राम लखन की जोड़ी…। वे बादलों से प्रार्थना करती हैं कि जहां मेरे बच्चे हैं वहां नहीं बरसना। बचपन में अनेक बार सुना यह गीत आज भी आंखें नम कर देता है।]
घर-परिवार में दादी, काकी, मां और अन्य महिलाएं समय-समय पर श्रीराम वनवास के गीत गाती हैं। इन गीतों में सीता जी, राम जी और लक्ष्मण जी द्वारा वनों में झेले गए कष्टों का इतना जीवंत चित्रण होता है कि हर कोई फूट-फूट कर रो पड़ता है। तीनों वन में चले जा रहे हैं, कभी सीता जी के पैर में कांटा चुभता है, तो राम जी उसे निकालते हैं। कभी झाड़ियों में वस्त्र उलझते हैं, तो कभी मार्ग पर पड़े सांप से स्वयं को बचाते हैं। कभी सिंह की दहाड़ से सीता जी डर जाती हैं, तो कभी ठोकर लगती है। ठिठुरती, तपती व कंकरीली भूमि पर दोनों राजकुमार नंगे पैरों चल रहे हैं। तीनों के पैर लहूलुहान हैं। वर्षा के दिनों में मां कौशल्या राजमहल में बैठी बादलों को देखकर रो उठती हैं और गाती हैं- जाने किस तरुवर तले भीजे रे मेरे राम लखन की जोड़ी…। वे बादलों से प्रार्थना करती हैं कि जहां मेरे बच्चे हैं वहां नहीं बरसना। बचपन में अनेक बार सुना यह गीत आज भी आंखें नम कर देता है।
ऐसे गीतों को सुनकर और वन में होने वाले कष्टों की कल्पना कर हृदय विचलित हो जाता था। यही कारण है कि एक दिन इन स्थलों के दर्शन करने का प्रण किया। लेकिन सबसे बड़ी समस्या यह थी कि इन स्थानों का पता कैसे चलेगा। श्रीरामचरितमानस, वाल्मीकि रामायण तथा कुछ अन्य ग्रंथों का अध्ययन किया, किन्तु मार्ग स्पष्ट नहीं हो सका। परतंत्रता के काल में हमारे अनेक गं्रथ समाप्त हो गए। इस कारण भी कोई निश्चित मार्ग नहीं मिल रहा था। अंत में लोककथाओं, लोकगीतों और किवदंतियों पर शोध शुरू किया। 40 वर्ष के अथक प्रयासों के बाद उत्तर प्रदेश, बिहार, नेपाल, मध्य प्रदेश, झारखंड, ओडिशा, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, महाराष्ट्र, कर्नाटक तथा तमिलनाडु के अनेक सुदूर स्थलों का भ्रमण कर इन लोक कथाओं, लोकगीतों आदि का संग्रह किया। इनमें वर्णित पवित्र स्थलों के दर्शन कर उन्हें औचित्य की कसौटी पर कसा। तब कहीं श्रीराम से जुड़े 290 स्थल मिले।
वाल्मीकि रामायण, श्रीरामचरितमानस, , माण्डव्य-मंडफा, मार्कण्डेय-मारकुंडी, श्रृंगवेरपुर-सिंगरोर, सीतापुर-छीतापुर, रथेवा-रैथवा, गौरवघाट-गौराघाट, रामशैल-रामसेलवा, नासिका कर्तन-नासिक, बाणाहोरा-बाणावर, टारडीह-टाडीह, भये दर्शन-भादर्शा, भरतपुर-भारतपुर, सूर्य कुण्ड-सूरज कुण्ड, ऋषियन -रिखियन, कुमार द्वय-कुंवर दो, स्फटिक शिला-फटिक शिला, पुष्करणी-पोहकरणी, शरभंग- शरभंगा, स्वरगुंजा-सरगुजा, तुलसी बगीच-बगीचा, शबर नारायण-सिबरी नारायण, लक्ष्मेश्वर-लक्ष्मणेश्वर, शोणितपुर-श्रीपुर-शिवपुर-सिरपुर, बगेश्वर-बागेश्वर, शृंगी नाला-सगरीनाला, श्रृंगी-सिहावा, मुचकुंद-मैचका, गुरुकुल-घोटुल, कंकपुर-कांकेर, राक्षस हड्डिया-राकस हाडा, राक्षस डोंगरी-रक्सा डोंगरी, लवणपुर-लोणार, रामद्वार-रामदरिया, शबरी वन-सुरेबान, त्रिशिरापल्ली-त्रिचुरापल्ली, सुतुकोटई-छेदु कुटई
इनके लिए हमने वाल्मीकि रामायण को मुख्य आधार माना। जहां वाल्मीकि जी मौन हैं, वहां श्रीरामचरितमानस तथा अन्य भाषाओं की रामायणों को आधार माना। मार्ग की चर्चा करने से पूर्व एक बात और स्पष्ट करना ठीक होगा कि कोई भी दावे से यह नहीं कह सकता कि श्रीराम इसी पगडंडी से गए थे। इतनी लंबी कालावधि में कितनी ही बार भूमि में उथल-पुथल हुई होगी, कितनी बार नदियों ने मार्ग बदले होंगे। अत: हम मार्ग की नहीं, स्थलों की चर्चा करेंगे। घटना के आधार पर किसी कहानी की रचना हुई, उसके आधार पर किसी स्थल का निर्माण हुआ। कुछ वर्षों के बाद स्थल अथवा निर्माण ध्वस्त हो गया या कर दिया गया। किन्तु कहानी के आधार पर पुन: उचित स्थान पर मंदिर आदि का निर्माण हो जाता है।
गोस्वामी जी ने वनवास मार्ग की दृष्टि से बहुत स्पष्ट संकेत नहीं दिए हैं। मानस के सात कांडों में से छह कांडों में जनकपुर यात्रा तथा श्रीराम वनवास का वर्णन है। श्रीराम की जनकपुर यात्रा का मार्ग लगभग सीधा है। जाते समय बक्सर में विश्वामित्र के आश्रम होते हुए जनकपुर जाते हैं तथा वापसी में बारात के साथ सीधे-सीधे जनकपुर से अयोध्या आते हैं। इस यात्रा में फैजाबाद, आलमपुर, मऊ, गाजीपुर, बलिया, बक्सर, पटना, वैशाली, दरभंगा, मधुबनी, जनकपुर, सीतामढ़ी, पूर्वी चम्पारण तथा गोरखपुर के 41 स्थानों का वर्णन है। लेकिन इनसे केवल वनवास काल के 4 वर्ष का वर्णन मिलता है। इसी प्रकार आदि कवि वाल्मीकि जी ने केवल 10 वर्ष का वर्णन किया है।
शोध की दृष्टि से श्रीराम वनगमन मार्ग को 9 भागों में विभाजित किया गया है। ये भाग हैं- अयोध्याजी से चित्रकूट तक-फैजाबाद, सुल्तानपुर, प्रतापगढ़, इलाहाबाद, कौशाम्बी, चित्रकूट। फिर चित्रकूट प्रवास। चित्रकूट में सुतीक्ष्ण मुनि आश्रम-सतना, पन्ना, कटनी, जबलपुर, होशंगाबाद, नागपुर, अमरावती तथा नासिक।
दण्डक वन का भ्रमण-नागपुर, उमरिया, शहडोल, कोरिया, अनूपपुर, सरगुजा, जशपुर, गुमला, रायगढ़, बिलासपुर, रायपुर, जांजगीर, महासमुंद, धमतरी, कांकेर, नारायणपुर, बस्तर, केशपुर, मल्कानगिरि, सुकमा, दंतेवाडा, खम्मम, करीम नगर, जालना, बीड़ तथा नासिक। फिर सुतीक्ष्ण आश्रम से पंचवटी-नासिक। पंचवटी से किष्किंधा-पुणे, बीड़, उस्मानाबाद, शोलापुर, बीजापुर, बागलकोट, बेंतगांव, कोपल तथा बिल्लारी। किष्किंधा से रामेश्वरम-चित्रदुर्ग, हासन, मैसूर, मंडिया, सेलम, त्रिचुरापल्ली, तंजावुर, तिरुवारुर, नागपट्टनम, पोदुकोरई, रामनाथपुरम। रामेश्वरम् से लंका तथा रामेश्वरम् तक वापसी-समुद्री मार्ग है। अत: किसी राज्य की सीमा नहीं। रामेश्वरम् से अयोध्याजी तक- वापसी वायुमार्ग से हुई। केवल कोपल, प्रयागराज तथा चित्रकूट जिलों के कुछ स्थल मिलते हैं।
नदियों का महत्व
मार्ग निर्धारण में नदियों का अत्यन्त महत्व है। उस काल में ये नगर तथा ग्राम तो नहीं के बराबर थे। केवल नदियों का प्रमाण मिलता है। श्रीराम की यात्रा में तमसा, वेदश्रुति, गोमती, स्यंदिका, बालुकिनी, वद्रथी, यमुना, गंगा, मंदाकिनी, गोदावरी, तुंगभद्रा आदि नदियों का नाम आता है। इसी प्रकार अरण्य कांड के अध्याय 7 के प्रथम 2, 3 चौपाइयों के अनुसार उन्होंने अगाध जल से भरी नदियों को पार किया था। उन नदियों का नाम नहीं दिया गया। शोध में एक बात बहुत स्पष्ट हुई कि उस समय ऋषियों के अधिकांश आश्रम तथा मार्ग नदियों के किनारे होते थे। श्रीराम को ऋषियों के दर्शन करने जाना ही था। प्राप्त तथ्यों के अनुसार वे 15-20 किलो मीटर यमुनाजी के किनारे-किनारे चले हैं। मंदाकिनी, शबरी नदी तथा महानदी के किनारे-किनारे उन्होंने बहुत लम्बी यात्राएं की थीं। लंका अभियान के समय तुंगभद्रा के किनारे तथा आगे कावेरी नदी के किनारे बहुत लम्बी यात्रा की थी।
नाम परिवर्तन
भाषा विज्ञान के सिद्धांत के अनुसार सुविधा की दृष्टि से शब्दों के उच्चारण से उनमें परिवर्तन होता रहता है। इसी के अनुसार प्राचीन नामों में भी परिवर्तन हुआ। मुस्लिम काल से पूर्व नामों में बलात परिवर्तन नहीं हुआ। वे जैसे के तैसे चलते रहे। फिर भी नामों में परिवर्तन अथवा अपभ्रंशों के कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं-
माण्डव्य-मंडफा, मार्कण्डेय-मारकुंडी, श्रृंगवेरपुर-सिंगरोर, सीतापुर-छीतापुर, रथेवा-रैथवा, गौरवघाट-गौराघाट, रामशैल-रामसेलवा, नासिका कर्तन-नासिक, बाणाहोरा-बाणावर, टारडीह-टाडीह, भये दर्शन-भादर्शा, भरतपुर-भारतपुर, सूर्य कुण्ड-सूरज कुण्ड, ऋषियन -रिखियन, कुमार द्वय-कुंवर दो, स्फटिक शिला-फटिक शिला, पुष्करणी-पोहकरणी, शरभंग- शरभंगा, स्वरगुंजा-सरगुजा, तुलसी बगीच-बगीचा, शबर नारायण-सिबरी नारायण, लक्ष्मेश्वर-लक्ष्मणेश्वर, शोणितपुर-श्रीपुर-शिवपुर-सिरपुर, बगेश्वर-बागेश्वर, शृंगी नाला-सगरीनाला, श्रृंगी-सिहावा, मुचकुंद-मैचका, गुरुकुल-घोटुल, कंकपुर-कांकेर, राक्षस हड्डिया-राकस हाडा, राक्षस डोंगरी-रक्सा डोंगरी, लवणपुर-लोणार, रामद्वार-रामदरिया, शबरी वन-सुरेबान, त्रिशिरापल्ली-त्रिचुरापल्ली, सुतुकोटई-छेदु कुटई आदि।
लुप्त हो रहे तीर्थ
मिल रहे स्थलों तथा प्राप्त वर्णन के अनुसार अयोध्या जी से नासिक पंचवटी तक तीनों (सीता जी, राम जी, लक्ष्मण जी) औसतन 30 किलोमीटर प्रतिदिन चलते होंगे तथा पंचवटी के बाद दोनों भाई औसतन 50 किलोमीटर प्रतिदिन चले होंगे। इस दृष्टि से देखा जाए तो सैकड़ों स्थल होंगे जो कालक्रम में लुप्त हो गए हैं। प्राप्त 290 स्थलों में भी अधिकांश लुप्त होने के कगार पर हैं, क्योंकि इनकी जानकारी अत्यंत सीमित क्षेत्रों में तथा वृद्धों तक रह गई है।
शिलालेख तथा अवशेष
अभी भी अनेक स्थलों की रक्षा की जा सकती है। अनेक शिलालेख उपेक्षा का शिकार हैं तथा नष्ट हो रहे हैं एवं उनकी चोरी हो रही है। उदाहरण के लिए सम्राट विक्रमादित्य ने अयोध्या जी के आसपास अनेक पत्थर लगवाए थे, जिन पर क्रमांक भी उत्कीर्ण हैं। इनमें से अधिकांश तो लुप्त हो चुके हैं। शेष की अभी भी रक्षा की जा सकती है। माण्डव्य आश्रम, मुरका, करका, कुरई, सारंगधर, भारद्वाज आश्रम, अक्षयवट, सीता रसोई धुरपुर, ऋशियन जंगल में शिव मंदिर, सीता रसोई तथा सीता पहाड़ी, कुमार द्वय, विराध कुण्ड, सिद्धा पहाड़, शरभंग आश्रम, अमृत कुण्ड रक्सेलवा, राम दिवाला, राजीव लोचन मंदिर, केशकाल घाटी, राकस हाडा, पंचाप्सर, सिन्दखेड़राजा, रामेश्वर (अथाणी), कबंध आश्रम, हाल रामेश्वर, बाणावर गुड़देनेली केरे, मुत्तुकुडा, छेदु करई के पास समुद्र के प्राप्त अवशेष, विलुंड़ी तीर्थ आदि अनेक स्थलों पर मूर्तियों के भग्नावशेष तथा शिलालेख मिलते हैं।
शोध के दौरान अनेक वनवासियों ने बताया कि सीता मां ने तुलसी के पौधे रोप कर उन्हें शीत ज्वर से मुक्ति दिलवाई, महिलाओं को बांस की टोकरी बनाना सिखाया, राम जी ने उन्हें हल चलाना सिखाया। बंडा वनवासी महिलाएं सिर मुंडवा कर व नग्न रहकर सीता मां का शाप धारण करती हैं। जहां-जहां श्रीराम ने दशरथ जी का श्राद्ध किया वहां आज भी श्राद्ध होते हैं। श्रीराम की कथाओं पर आधारित हजारों मेले, स्नान व उत्सव हो रहे हैं। आज भी वनवासी गर्व से बताते हैं कि उनके पूर्वजों ने सीता मां को मुक्त कराने के लिए रावण से युद्ध किया था।
इन स्थानों से जो जानकारी मिली है, वह यह बताने के लिए पर्याप्त है कि भगवान राम के चरण वहां पड़े थे।
(लेखक राम वनगमन मार्ग के शोधकर्ता हैं)
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