खालिस्तानियों ने किया अपमान : भगत सिंह को वामपंथी बताने का दावा करने वाले प्रगतिशील लेखकों में चुप्पी क्यों है?

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सोनाली मिश्रा

भारत में राजनीतिक रूप से हावी होने के चलन के चलते यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है कि राष्ट्रभक्तों एवं देश की स्वतंत्रता के लिए बलिदान होने वाले आन्दोलनकारियों को भी राजनीतिक विचार के अंतर्गत ही देखा जाने लगा है एवं उनके विचारों पर पूरे देश का नहीं, बल्कि विचारधारा विशेष का दावा ठोंका जाने लगा है, परन्तु जब अलगाववादी कुविचार उन देशप्रेमियों पर हमला करते हैं, तो कथित प्रगतिशील विचारधारा मौन हो जाती है।

ऐसा ही कुछ हो रहा है देश के लिए मात्र 23 वर्ष की आयु में सर्वस्व बलिदान कर देने वाले भगत सिंह के साथ। भगत सिंह के बलिदान का राजनीतिक लाभ लेने वाले वामपंथी लोग भगत सिंह के गीता अध्ययन आदि को नकार कर मात्र एक ही डायलॉग पर बल देते रहे और वह था कि जब भगत सिंह को फांसी के लिए ले जाया जा रहा था तो वह लेनिन की जीवनी पढ़ रहे थे। और जब पुलिस वालों ने कहा कि फांसी का समय हो गया है तो उन्होंने कहा कि “रुकिए पहले एक क्रांतिकारी दूसरे क्रांतिकारी से मिल तो ले!” फिर उन्होंने वह पुस्तक पूरी की और बंद करके छत की ओर चल पड़े।

इस प्रकरण के प्रयोग से वामपंथी लेखकवर्ग सदा से ही भगत सिंह को जबरन वामपंथी घोषित करने के लगा रहा, बिना इस बात को संज्ञान में लिए हुए कि उन्हें मात्र 23 वर्ष की उम्र में फांसी दे दी गयी थी। क्या 23 वर्ष की उम्र ऐसी होती है जिसमें किसी भी व्यक्ति की विचारधारा का अनुमान लगाया जा सके? क्योंकि यदि ऐसा है तो उन्होंने श्रीभगवदगीता का भी अध्ययन किया था और उनके हस्ताक्षर वाली गीता की प्रति तो पंजाब में एक म्यूजियम में रखी भी हुई है। इसीके साथ यह भी कहा जाता है कि वह तमाम अन्य धर्मग्रंथों का भी अध्ययन कर रहे थे।

जो वर्ग यह दावा करता है कि भगत सिंह जेल में अंतिम समय में लेनिन को पढ़ रहे थे, वह भगतसिंह के बहाने दरअसल उस विचार की स्वीकृति की चाह में हैं, जिन्हें भारत के लोग ठुकरा चुके हैं और उन्हें हर क्षेत्र से राजनीतिक रूप से ठुकराया जा चुका है। चुनावी राजनीति में विफल होकर वह नायकों पर अतिक्रमण करने की फिराक में हैं और भगत सिंह चूंकि युवाओं के एक बहुत बड़े आदर्श हैं, देश प्रेम की प्रेरणा युवा भगत सिंह से लेते हैं, तो ऐसे में भगत सिंह पर वैचारिक अधिकार जमाकर वह अपनी उस मानसिकता को छिपाना चाहते हैं, जिनकी जड़ में टुकड़े टुकड़े भारत की मानसिकता छिपी हुई है।

अलगाववादी मानसिकता द्वारा भगत सिंह पर हो रहे हमले पर मौन
परन्तु हाल ही में भगत सिंह के प्रति उनके इस झूठे प्रेम का भी खुलासा हो गया और यह पता चल गया कि उन्हें भगत सिंह से प्रेम नहीं है, बल्कि उन्हें मात्र अपने एजेंडे अर्थात भारत विरोध से प्रेम है। भगत सिंह को लेनिन प्रेमी बताकर भारत के लोक से विमुख करने वाला वामपंथी एवं कथित प्रगतिशील लेखक वर्ग भगत सिंह के सबसे बड़े अपमान पर मौन है। वह मौन है उस वेदना पर, जो पूरे देश ने अनुभव की जब पूरे देश ने देखा कि कैसे खालिस्तानियों ने भगत सिंह को उनके बलिदान दिवस पर “गद्दार” की संज्ञा दी।

जब पूरा देश 23 मार्च को अपने उन नायकों का स्मरण कर रहा था, जिन्होंने अपनी युवावस्था के अंकुरण के समय ही अपना सर्वस्व अपने देश पर बलिदान कर दिया था, तो उसी समय खालिस्तानी वर्ग (अलगाववादी सिख समूह) भगत सिंह के विरोध में इस सीमा तक चले गए थे, कि उन्हें गद्दार तक कहा गया। 23 मार्च को एक खालिस्तानी समर्थक ने इन्टरनेट पर एक वीडियो अपलोड किया, जिसमें वह पंजाबी में यह कहते हुए दिखाई दे रहा है कि “भगत सिंह एक आतंकी था। सिख नेताओं को आतंकी घोषित किया। उसने ब्राह्मण के जूतों को चाटकर सिख समुदाय को आतंकी घोषित किया। वह शहीदेआजम नहीं बल्कि एक गद्दार है। शहीदे आजम केवल वह हैं, जिन्होंने खालसा के लिए अपना जीवन कुर्बान किया।” और साथ ही उसने यह तक कहा कि “एक दिन पूरे संसार पर खालसा का ही शासन होगा और खालसा ने शासन करने के लिए जन्म लिया है!”

इतना ही नहीं एक वीडियो में कुछ सिख मिलकर “कामरेड” भगत सिंह की तस्वीर भी जला रहे हैं।


भगत सिंह की तस्वीर जलाने वाले वीडियो में तो “कामरेड” भी लिखा है, परन्तु इन दोनों ही वीडियो के विरोध में प्रगतिशील लेखक वर्ग ने एक भी शब्द बोला हो, या विरोध किया हो, यह संज्ञान में नहीं है। यह समझ नहीं आता है कि भगतसिंह को जिन्होंने अपना जीवन देश के लिए बलिदान कर दिया, उन्हें देश विरोधी विचारधारा के साथ जोड़ने वाले वामपंथी एवं कथित प्रगतिशील लेखक, जो इस तथ्य को अफवाह करार देते हैं कि भगत सिंह श्रीमदभगवदगीता पढ़ा करते थे और भगत सिंह को भारतीय सोच और लोक से जोड़ने को “नास्तिक” भगत सिंह का अपमान बताते हैं, वह भगत सिंह के हुए इतने बड़े अपमान पर क्यों कुछ नहीं बोल रहे हैं?

क्या उनके लिए यह भगत सिंह का यह अपमान इसलिए अपमान नहीं है कि यह अपमान अलगाववादी सोच ने किया है? जो कथित प्रगतिशील लेखक वर्ग यह कहते हुए प्रगतिशील बना रहता है कि उन्हें किसी से भय नहीं लगता है, उन्हें किसी से डर नहीं लगता है क्योंकि उनके आदर्श निर्भीक एवं निडर “कामरेड” भगत सिंह हैं, तो वह “कामरेड” भगत सिंह को गद्दार कहे जाने पर मुंह क्यों सिलकर बैठा हुआ है? उन्हें किससे और किसका डर है? या फिर सारी प्रगतिशीलता मात्र हिन्दू धर्म को दुराग्रहपूर्ण तरीके से कोसने तक ही सीमित है, या फिर आरएसएस और नरेंद्र मोदी द्वारा काल्पनिक भय दिखाकर उनसे काल्पनिक लड़ाई ही प्रगतिशीलता है? यह प्रश्न तो उठते ही हैं और “कामरेड” लेखक वर्ग कब इस अपमान का उत्तर देगा, यह भी भविष्य के गर्त में है। वैसे उनका अतीत में इतिहास देखते हुए यह प्रतीत होता है कि वह “खालिस्तानियों” द्वारा भगत सिंह के अपमान पर मौन ही धारण करना पसंद करेंगे। जैसे तसलीमा नसरीन पर हो रही कट्टरपंथी हिंसा पर मौन साध लेते हैं। यह सुविधाजनक चुप्पी ही उन्हें अप्रासंगिक कर चुकी है और यह अप्रासंगिकता की यात्रा अनवरत चालू है।

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