1857 में बंगाल की बैरकपुर छावनी में मंगल पांडे की बंदूक से चली गोली के बाद ब्रिटिश सरकार के खिलाफ विद्रोह की शुरुआत हुई थी। इसके बाद पूरे देश में विद्रोह की ज्वाला भड़क उठी। इसे भारतीयों ने पहला स्वतंत्रता संग्राम कहा तो अंग्रेजों से सैनिक विद्रोह, लेकिन 1857 से लगभग 80 साल पहले बिहार के जंगलों में वनवासी समाज से आने वाले तिलका मांझी ने अंग्रेजों के खिलाफ जंग की पहली चिंगारी फूंकी थी। ऐसे में यदि यूं कहा जाए कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के वह पहले क्रांतिकारी थे तो यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा।
लेखिका महाश्वेता देवी ने तिलका मांझी के जीवन और विद्रोह पर बांग्ला भाषा में एक उपन्यास ‘शालगिरर डाके’ की रचना की। एक और हिंदी उपन्यासकार राकेश कुमार सिंह ने अपने उपन्यास ‘हुल पहाड़िया’ में तिलका मांझी के संघर्ष को बताया है। तिलका मांझी का जन्म 11 फरवरी, 1750 को बिहार के सुल्तानगंज में ‘तिलकपुर’ नामक गांव में एक संथाल परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम सुंदरा मुर्मू था। वैसे उनका वास्तविक नाम ‘जबरा पहाड़िया’ ही था। तिलका मांझी नाम तो उन्हें ब्रिटिश सरकार ने दिया था।
पहाड़िया भाषा में ‘तिलका’ का अर्थ है गुस्सैल और लाल-लाल आंखों वाला व्यक्ति। वह ग्राम प्रधान थे और पहाड़िया समुदाय में ग्राम प्रधान को मांझी कहकर पुकारने की प्रथा है। तिलका नाम उन्हें अंग्रेज़ों ने दिया। अंग्रेज़ों ने जबरा पहाड़िया को खूंखार डाकू और गुस्सैल (तिलका) मांझी (समुदाय प्रमुख) कहा। ब्रिटिशकालीन दस्तावेज़ों में भी ‘जबरा पहाड़िया’ का नाम मौजूद हैं पर ‘तिलका’ का कहीं उल्लेख नहीं है। तिलका ने हमेशा से ही अपने जंगलों को लुटते और अपने लोगों पर अत्याचार होते हुए देखा था। धीरे-धीरे इसके विरुद्ध तिलका आवाज़ उठाने लगे। उन्होंने अन्याय और गुलामी के खिलाफ़ जंग छेड़ी। तिलका मांझी राष्ट्रीय भावना जगाने के लिए भागलपुर में स्थानीय लोगों को सभाओं में संबोधित करते थे। जाति और धर्म से ऊपर उठकर लोगों को देश के लिए एकजुट होने के लिए प्रेरित करते थे।
साल 1770 में जब भीषण अकाल पड़ा, तो तिलका ने अंग्रेज़ी शासन का खज़ाना लूटकर आम गरीब लोगों में बांट दिया। उनके ऐसे नेक कार्यों के चलते और भी वनवासी उनसे जुड़ गए। इसी के साथ शुरू हुआ उनका ‘संथाल हुल’ यानी कि वनवासियों का विद्रोह। उन्होंने अंग्रेज़ों और उनके चापलूस सामंतों पर लगातार हमले किए और हर बार तिलका मांझी की जीत हुई।
साल 1784 में उन्होंने भागलपुर पर हमला किया और 13 जनवरी 1784 में अंग्रेज़ कलेक्टर ‘अगस्टस क्लीवलैंड’ को तीर से मार गिराया। इस कदम से ब्रिटिश सरकार हिल गई। 1771 से 1784 तक उन्होंने लगातार ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध संघर्ष किया। उन्होंने कभी भी समर्पण नहीं किया, न कभी झुके और न ही डरे। जब वह अंग्रेजों के हाथ नहीं लगे तो अंग्रेजों ने अपनी पुरानी नीति, ‘फूट डालो और राज करो’ से काम लिया। उन्होंने लालच देकर तिलका मांझी के एक साथी को अपने साथ मिला लिया। उसकी मुखबिरी पर रात के अंधेरे में अंग्रेज़ी कप्तान आयरकूट ने तिलका मांझी के ठिकाने पर हमला कर दिया। लेकिन किसी तरह वे बच निकले और उन्होंने पहाड़ियों में शरण लेकर अंग्रेज़ों के खिलाफ़ छापेमार लड़ाई जारी रखी। अंग्रेज़ों ने पहाड़ों की घेराबंदी करके उन तक पहुंचने वाली तमाम सहायता रोक दी।
अन्न और पानी के अभाव में उन्हें पहाड़ों से निकल कर लड़ना पड़ा और एक दिन तिलका मांझी पकड़े गए। 13 जनवरी 1785 को उन्हें एक बरगद के पेड़ से लटकाकर फांसी दे दी गई।
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