जैसलमेर के मूलसागर में और आसपास के गांवों में सरहद पार से आकर बसे शरणार्थियों ने अपनी दुश्वारियों के बीच परम्पराओं के सार-संभाल में कमी नहीं रखी। बनाराम की बस्ती के लोगों का काम सोलर चार्जर से चलता है। वे खुले में बने टांके में पांच सौ रुपये के टैंकर से पानी भरवाकर ही परिवार की प्यास बुझा पाते हैं जिसे हफ्ते में दो बार भरवाना ही पड़ता है। जीने के साथ ही अपने वजूद की छटपटाहट अगर कुछ कम हो पाई है तो इसलिए भी कि नागरिकता कानून में बदलाव के बाद लाइसेन्स, बैंक खाते और आधार की पहचान के कारण इनके लिए रोजी-रोटी कमाना थोड़ा आसान हो गया है। मगर पीने के पानी के बगैर तो किसी का गुजारा नहीं है जिससे रेगिस्तान की बड़ी आबादी अब भी जूझ रही है। खुली जमीन पर घूमती पवन चक्कियों को पार करते हुए बड़ी बसावट वाले अन्दरूनी इलाके अगर जि़न्दा हैं तो अपनी पारम्परिक समझ के बूते ही। और पानी की साझेदारी की इस जीवन्त परम्परा का नाम है ‘खड़ीन’।
खड़ीन जल संरचना
जैसलमेर में तब सुखद अहसास होता है जब जरा सी गहराई वाली बालू मिट्टी में भी मूंग, ग्वार और बाजरा नजर आता है। दूर तक फैले और फलते हुए खेत असल में साझेदारी के ’खड़ीन’ में खड़े हैं जिनमें बारिश का पानी जमा रहता है। ‘खेत तलाई’ या ‘फार्म पाण्ड’ और नहरी इलाके के खेतों में बनी ‘डिग्गियों’ से अलग ये संरचनाएं असल में ऐसी खुदी हुई तलाई हैं जिनमें पानी इकट्ठा होता है और किसान अपने-अपने हिस्से की जमीन इससे जोत कर उपज लेते हैं
‘गड़़सीसर’ तालाब और खेतों की प्यास
जैसलमेर का मान रखने वाला गड़सीसर तालाब शहर के बीचो-बीच है। युवा बताते हैं कि पश्चिमी जिलों में ऐसे सैकड़ों परंपरागत जल-स्रोत हैं जिनमें से केवल एकाध के सार-संभाल और उसके बूते फलते पर्यटन से बात नहीं बनने वाली। प्रशासन के अभियान चलते हैं जिनमें इन स्रोतों की मरम्मत होती है लेकिन हकीकत यह है कि इन परम्परागत स्रोतों की अनदेखी की वजह से ही देश के सबसे कम बारिश वाले इस इलाके में तोल-मोल कर बरसने वाला कई गैलन पानी हर साल बेकार चला जाता है। यानी पूरे साल की नमी के इन्तजाम से चूक जाते हैं। नमी कम तो कुएं भी सूखे और खेत भी रूठे-रूठे। बूंद-बूंद की कीमत समझने वाले पुराने लोगों के मुकाबले शहर में बसी नई पीढ़ी की बेफिक्री की एक वजह राजस्थान के पश्चिमी इलाके में नहरी पानी की आवक भी है। सरहदी इलाका होने से यहां सीमा सुरक्षा बल पूरी तरह मुस्तैद रहता है मगर उसकी जरूरतें भी टांकों को पानी के टैंकरों से भरे जाने पर ही पूरी हो पाती हैं। सेवण घास से भरे-पूरे रेगिस्तानी मैदान में मवेशियों के लिए तो कुदरत भरपूर उगाती है लेकिन खेती के लिए खासी मशक्कत करनी ही पड़ती है।
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