पिछले कई दशकों से इसी ‘आजाद पंजाब योजना’ के आधार पर देश में खालिस्तान का झूठा नैरेटिव गढ़ा गया कि जैसे मुस्लिम लीग ने अलग देश पाकिस्तान की मांग रखी, उसी तर्ज पर अकाली नेताओं ने अलग सिख राष्ट्र की मांग पेश की, जिसे आज खालिस्तान बताया जा रहा है
पंजाब के वैचारिक वातावरण में खालिस्तान की चर्चा पहली बार नहीं हो रही, बल्कि पिछली सदी में भी इस पर बहस होती रही है। वर्तमान में ‘वारिस पंजाब दे’ के नेता अमृतपाल सिंह की बढ़ी गतिविधियों से यह विचारधारा पुन: सतह पर आई है। विभिन्न एजेंसियों को दिए साक्षात्कारों में अमृतपाल सिंह जम्मू-कश्मीर के अलगाववादी संगठन हुर्रियत कान्फ्रेंस के नेताओं की तर्ज पर यह प्रभाव देने का प्रयास कर रहा है कि ‘खालिस्तान एक आन्दोलन है, जो स्वतन्त्रता के लिए लड़ा जा रहा है’। इसकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि बुनने के लिए तर्क दिया जा रहा है वरिष्ठ अकाली नेता मास्टर तारा सिंह की ‘आजाद पंजाब योजना’ का, जो उन्होंने क्रिप्स मिशन के समक्ष रखी थी। इससे पहले कांग्रेस के 31 दिसम्बर, 1929 के लाहौर अधिवेशन की भी बात कही जाती है जिसमें मास्टर तारा सिंह ने ‘आजाद पंजाब’ की मांग रखी थी।’
पिछले कई दशकों से इसी ‘आजाद पंजाब योजना’ के आधार पर देश में खालिस्तान का झूठा नैरेटिव गढ़ा गया कि जैसे मुस्लिम लीग ने अलग देश पाकिस्तान की मांग रखी, उसी तर्ज पर अकाली नेताओं ने अलग सिख राष्ट्र की मांग पेश की, जिसे आज खालिस्तान बताया जा रहा है।
वास्तविक तथ्य इससे बहुत भिन्न हैं। मास्टर तारा सिंह ने ‘आजाद’ शब्द का प्रयोग ‘पंजाब’ के पुनर्निर्धारण के लिए किया था। ‘आजाद पंजाब योजना’ ने पंजाब से मुस्लिम बहुसंख्यक जिलों को अलग करने का आह्वान किया ताकि एक नया प्रान्त बनाया जाए, जिसमें सिख जनसंख्या अधिकतम हो। इस योजना में किसी भी तरह से पंजाब को सम्प्रभुता देने की परिकल्पना नहीं थी। वास्तव में यह देश के विभाजन की (पाकिस्तान) की योजना का प्रतिकार था।
स्रोत: सूबे सिंह, सहायक प्रोफेसर, इतिहास विभाग, पीजी कालेज-भिवानी, का इण्डियन जर्नल ऑफ रिसर्च में प्रकाशित शोध)
‘आजाद पंजाब’ उस प्रान्त को दिया गया नाम था, जिसकी परिकल्पना स्टैफोर्ड क्रिप्स को सिख सर्वदलीय समिति के ज्ञापन में की गई थी। दूसरे विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद मार्च 1942 में सर स्टैफोर्ड क्रिप्स नया भारतीय संघ बनाने के उद्देश्य से संवैधानिक प्रस्तावों के साथ भारत पहुंचे। मुस्लिम लीग ने मार्च 1940 में लाहौर में अपने वार्षिक सम्मेलन में घोषणा की कि ब्रिटिश भारत के मुसलमान एक अलग राष्ट्र हैं और मांग की कि एक सम्प्रभु मुस्लिम देश उन क्षेत्रों में गठित किया जाना चाहिए जिनमें मुसलमान बहुसंख्यक हैं।
पाकिस्तान निर्माण की आशंका ने सिख नेताओं को बहुत परेशान किया, क्योंकि मुस्लिम-हिन्दू आधार पर पंजाब के विभाजन से सिख आबादी दो भागों में विभाजित होनी थी। इसीलिए अकालियों ने देश विभाजन की निन्दा की। मास्टर तारा सिंह और ज्ञानी करतार सिंह ने यहां तक घोषणा की कि ‘उनकी लाशों पर ही पाकिस्तान बन सकता है।’ केन्द्रीय अकाली दल के बाबा खड़क सिंह ने घोषणा की कि ‘जब तक एक भी सिख रहेगा तब तक पंजाब में पाकिस्तान नहीं बन सकता।’ कृपाल सिंह मजीठिया ने भी पाकिस्तान का विरोध किया।
मास्टर तारा सिंह ने कहा कि सिख एक कौम हैं, फिर भी एक सिख स्वतन्त्र सम्प्रभु राज्य की मांग करने वाले प्रस्ताव को एक असम्भव मांग के रूप में खारिज कर दिया गया। अकाली नेता उज्जल सिंह और ज्ञानी करतार सिंह ने स्पष्ट रूप से कहा कि ‘आजाद पंजाब’ योजना केवल पाकिस्तान विभाजन का प्रतिक्रम मात्र थी। ‘आजाद पंजाब योजना’ में किसी भी तरह से पंजाब को सम्प्रभुता प्रदान करने की परिकल्पना नहीं थी। ‘आजाद’ शब्द का प्रयोग यह इंगित करने के लिए किया गया था कि पंजाब के क्षेत्रों को इस तरह से पुनर्निर्धारित किया जाना चाहिए, ताकि नए प्रान्त को आबादी के किसी भी साम्प्रदायिक वर्ग के वर्चस्व से मुक्त किया जा सके। इसे निम्न संदर्भ ग्रंथों में देखा जा सकता है।
- आजाद पंजाब (उर्दू), लेखक साधू सिंह हमदर्द, अजीत बुक एजेंसी,अमृतसर।
- द इण्डियन ईयर बुक :1942-45
- ऑक्स. यूनि. प्रेस, न. दिल्ली -1977
अकाली दल ने अपने ‘आजाद पंजाब योजना’ के प्रस्ताव के विवरण को समझाते हुए एक पुस्तिका प्रकाशित की, जिसमें कहा गया कि आजाद पंजाब की सीमाओं के सीमांकन से एक प्रान्त का निर्माण होगा, जिसमें मुस्लिम आबादी केवल 40 प्रतिशत होगी, हिन्दू आबादी 40 प्रतिशत होगी और सिख 20 प्रतिशत होने के कारण दोनों समुदायों के बीच राजनीतिक सन्तुलन बनाए रखने का काम करेंगे। इसके अलावा, समय के साथ सिख रियासतों को नए प्रान्त में मिला दिया जाएगा और इस तरह सिख आबादी को 24 प्रतिशत और इससे भी अधिक तक बढ़ा दिया जाएगा।
रोचक बात है कि बहुत से सिख नेताओं ने ‘आजाद पंजाब योजना’ का भी विरोध किया किया। उनका मानना था कि इससे देश में अलगाव पैदा होगा। रावलपिण्डी डिवीजन के सिखों ने इस योजना को आत्मघाती करार दिया। इसीलिए ‘आजाद पंजाब’ विरोधी सम्मेलनों का आयोजन रावलपिण्डी में विभिन्न स्थानों पर किया गया जिसमें कांग्रेसी नेता बाबा खड़क सिंह और सन्त सिंह सबसे आगे थे। रावलपिण्डी जिले से शिरोमणि अकाली दल के सात सदस्यों को ‘आजाद पंजाब योजना’ का विरोध करने के कारण पार्टी से निष्कासित कर दिया गया।
1943 में कई सम्मेलनों में बाबा खड़क सिंह ने आजाद पंजाब की मांग की आलोचना की। उन्होंने महसूस किया कि पाकिस्तान और ‘आजाद पंजाब’ के बीच कोई अन्तर नहीं और दोनों योजनाओं में देश का विभाजन व भारतीय एकता और अखण्डता का विनाश छिपा है। इस पर सफाई देते हुए अकाली दल ने 1943 में एक प्रस्ताव पारित किया। अकालियों ने घोषणा की कि वे मुख्य रूप से अखण्ड भारत के साथ खड़े हैं और आजाद पंजाब चाहते हैं, अगर पाकिस्तान बनना है तो। किसी भी सिख नेता ने कभी भी एक सम्प्रभु सिख राज्य की मांग नहीं की। ‘आजाद पंजाब’ की मांग केवल जिन्ना की मजहब के आधार पर पाकिस्तान की मांग का प्रतिकार करने के लिए थी। ‘आजाद पंजाब योजना’ ने एक नया राज्य बनाने के लिए पंजाब से मुस्लिम बहुसंख्यक जिलों को अलग करने का प्रस्ताव रखा जिसमें किसी एक समुदाय का बहुमत नहीं था। यह योजना सिख प्रभाव को मजबूत करने के लिए केन्द्र सरकार के अधिकार के तहत यमुना और चिनाब नदियों के बीच एक नया प्रान्त बनने का इरादा रखती थी। सिख हिन्दुओं और मुसलमानों दोनों की सदा की गुलामी से बचना चाहते थे और वे राजनीतिक सत्ता में हिस्सेदारी चाहते थे।
(कृष्णगोपाल लाम्बा, डायनामिक्स आफ पंजाबी सूबा मूवमेण्ट, दीप प्रकाशन, नई दिल्ली -1999 व अन्य)
इतिहास साक्षी है कि आगे पंजाबी सूबे के नाम पर देश की स्वतन्त्रता के बाद पंजाब का विभाजन हुआ। इससे हरियाणा राज्य अस्तित्व में आया और पंजाब के हिन्दी भाषी पहाड़ी जिलों को हिमाचल प्रदेश के साथ जोड़ दिया गया। इसके बाद आज का पंजाब सिख बहुल प्रान्त बना हुआ है। देश की राजनीतिक, व्यापारिक, प्रशासनिक, सामाजिक, सामरिक सहित हर तरह की व्यवस्था के संचालन में पंजाब का महत्वपूर्ण योगदान रहा है।
दुर्भाग्य की बात है कि जिस अकाली नेता मास्टर तारा सिंह व अन्यों पर अलगाव का ठीकरा फोड़ा जा रहा है, वे नितान्त देशभक्त पन्थक नेता थे, जिनके मन में अखण्ड व अविभक्त भारत की अवधारणा कूट-कूट कर भरी थी। विश्व हिन्दू परिषद् की स्थापना 1964 में हुई और इसके संस्थापकों में स्वामी चिन्मयानन्द, एसएस आप्टे के साथ-साथ मास्टर तारा सिंह भी शामिल थे और पहली बैठक में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन सरसंघचालक श्रीगुरुजी भी उपस्थित थे। ऐसे सच्चे नेता मास्टर तारा सिंह द्वारा किए गए कार्यों को अगर खालिस्तान के मूल के रूप में दिखाया जाता है, तो यह उनके साथ बहुत बड़ा अन्याय है।
‘बांटो और राज करो’ नीति का फल
यह अब रहस्य की बात नहीं रहा कि जरनैल सिंह भिण्डरांवाले को पंजाब की अकाली राजनीति को कमजोर करने व राज्य में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के लिए कांग्रेस पार्टी ने मैदान में उतारा और उस पर खालिस्तानी होने का लेबल चस्पा किया। ‘खालिस्तानी लेबल चस्पा’ होने की यह बात इसलिए कही जा रही है क्योंकि रिसर्च एण्ड एनालाइसेज विंग (रॉ) के सेवानिवृत्त अधिकारी जीबीएस सिद्धू अपनी पुस्तक ‘खालिस्तान षड्यन्त्र की इनसाइड स्टोरी’ में दावा करते हैं कि जब भी भिण्डरांवाले से कोई संवाददाता खालिस्तान की मांग के बारे पूछते तो उसका यही जवाब होता था कि ‘हम खालिस्तान की मांग नहीं करते पर सरकार इसका प्रस्ताव करती है तो हम इन्कार भी नहीं करेंगे’।
चूंकि पंजाब के नरमदलीय अकाली नेताओं को कमजोर करने के लिए गर्मदलीय लोगों के साथ खालिस्तान का लेबल चस्पा करना जरूरी था, तो 13 अप्रैल, 1978 में हुए निरंकारी-सिख टकराव की घटना के बाद ऐसी शक्ति को खड़ा करना जरूरी हो गया जो खुल कर खालिस्तान की बात करे। चूंकि भिण्डरांवाला न तो खालिस्तान की मांग करने वाला था और न ही विरोध, तो उसके साथ इस अलगाववादी मांग को आसानी से जोड़ा जा सकता था। बीबीसी लन्दन के पत्रकार मार्क टली व सतीश जैकब अपनी पुस्तक ‘अमृतसर : मिसेज गान्धी’ज लास्ट बैटल’ के पृष्ठ 60 पर दावा करते हैं कि ‘इस काम के लिए पंजाब में दल खालसा के नाम से कट्टरवादी संगठन का गठन किया गया। इसकी पहली बैठक चण्डीगढ़ के अरोमा होटल में हुई, जिसका 600 रुपये का भुगतान ज्ञानी जैल सिंह द्वारा किया गया।’
पत्रकार कुलदीप नैयर की पुस्तक ‘बियाण्ड द लाइन्स : एन ऑटोबायोग्राफी’ के अनुसार, ‘इस संगठन के उद्घाटन समारोह में सिख पन्थ की अवधारणा और उसके स्वतन्त्र अस्तित्व को जीवित रखने का संकल्प लिया गया। संगठन का राजनीतिक उद्देश्य खालसा का बोलबाला बताया गया।’
एक अन्य पत्रकार जीएस चावला अपनी पुस्तक ‘ब्लडशेड इन पंजाब : अनटोल्ड सागा आफ डिसीट एण्ड सैबोटेज’ में लिखते हैं-‘दल खालसा के नवनिर्वाचित अध्यक्ष ने पहले चण्डीगढ़ में एक पूर्व कांग्रेसी सांसद के यहां स्टेनोग्राफर की नौकरी की थी। 6 अगस्त, 1978 को चण्डीगढ़ के सेक्टर 35 में स्थित गुरुद्वारा श्री अकालगढ़ में आयोजित प्रेस कान्फ्रेंस में यह घोषणा की गई कि दल खालसा की स्थापना का मुख्य उद्देश्य स्वतन्त्र सिख साम्राज्य (खालिस्तान का नाम नहीं लिया) की स्थापना सुनिश्चित करना है। अगले दिन पंजाब के कई समाचार पत्रों में यह खबर छपी, प्रेस कान्फ्रेंस का खर्चा भी पंजाब के कांग्रेसी नेताओं ने उठाया।’
अपनी पुस्तक में मार्क टली कहते हैं कि भिण्डरांवाला दल खालसा से सीधा-सीधा नहीं जुड़ा था। वह अन्तिम समय तक यही कहता रहा कि वह कोई राजनेता नहीं बल्कि पांथिक व्यक्ति है, परन्तु दल खालसा को सदैव भिण्डरांवाला से जोड़ कर ही प्रचारित किया जाता रहा। एक कट्टरपन्थी व आक्रामक नेता की छवि बनने के बावजूद 1979 के हुए शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबन्धक समिति (अमृतसर) के चुनावों में भिण्डरांवाला द्वारा समर्थित 140 उम्मीदवारों में से केवल 4 ही जीत पाए और दल खालसा समर्थित कोई प्रत्याशी नहीं जीता।
इससे साफ है कि न तो उस समय गर्मदलीय हथियारबन्द नेतृत्व, न ही उदारवादी अकाली नेताओं और न ही आम सिख समाज में खालिस्तान को लेकर कोई आग्रह रहा है। असल में खालिस्तान ‘बांटो और राज करो’ की विषाक्त राजनीतिक का कड़वा फल है जो आज पंजाबी समाज में कैंसर की भान्ति पंजे गड़ाने के लिए लालायित है। सभी जानते हैं कि इसको शह मिल रही है पाकिस्तान की गुप्तचर एजेंसी आईएसआई सहित अनेक तरह की विदेशी एजेंसियों से।
971 में भारतीय सेना के हाथों मिली करारी पराजय और बंगलादेश के रूप में विभाजन के जख्म आज भी पाकिस्तान के सीने में हरे हैं, वह खालिस्तान रूपी उस मलहम से अपने घावों का उपचार करना चाहता है जो हमारे ही देश के नेताओं ने तैयार की है। आज अमृतपाल सिंह, गुरपतवन्त सिंह पन्नू जैसे लोगों को इन्हीं विदेशी षड्यन्त्रकारी ताकतों को रूप में देखा जाना चाहिए, न कि सिख समाज के प्रतिनिधि के रूप में। खालिस्तान के नाम पर उठने वाली हर आवाज को सख्ती से दबाने की जरूरत है, क्योंकि इसका न तो कोई वैचारिक आधार है, न ही यह मुद्दा किसी की भावना से जुड़ा है और न ही इसका कोई जनाधार है।
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