अल्पसंख्यकों को मुफ्त राशन, आवास, शौचालय, गैस, बिजली, नल का पानी आदि कल्याणकारी योजनाओं से भी लाभ मिला है। इसलिए अनुसूचित जाति के लिए आरक्षण अटल है। किसी दूसरी जाति या नस्ल को आरक्षण सूची में शामिल करने से आरक्षण प्रावधानों के पीछे संवैधानिक भावना कमजोर होगी।
गत दिनों ग्रेटर नोएडा में एक गोष्ठी का आयोजन हुआ। इसका विषय था- ‘कन्वर्जन और आरक्षण : न्यायमूर्ति के.जी. बालकृष्णन आयोग के संदर्भ में।’ इसका आयोजन विश्व संवाद केंद्र, गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय और पाक्षिक पत्रिका ‘हिंदू विश्व’ ने संयुक्त रूप से किया था।
गोष्ठी से पहले विश्व संवाद केंद्र और गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय ने न्यायमूर्ति के. जी. बालकृष्णन आयोग के संदर्भ की शर्तों से जुड़े 17 विषयों का चयन किया। इसके बाद इस पर देशभर के कानूनविदों और शिक्षाविदों से लेख मंगवाए गए। ऐसे 60 लेख मिले, जिन पर गोष्ठी में मंथन हुआ। योजना आयोग के पूर्व सदस्य और राज्यसभा सांसद नरेंद्र जाधव उद्घाटन समारोह के मुख्य अतिथि थे।
1931 की जनगणना के लिए तत्कालीन जनगणना आयुक्त डॉ जे. एच. हटन द्वारा तैयार की गई प्रश्नावली ने सामाजिक पिछड़ेपन के निर्धारण का आधार बनाया था। इसमें कहा गया था कि वे जातियां, जिनके बारे में उच्च जाति के व्यक्ति यह मानते थे कि उनके छूने या पास आने से वे दूषित हो जाएंगे? इसके आधार पर राज्य ने हिंदू समाज में अछूत मानी जाने वाली जातियों की पहचान की।
विश्व हिंदू परिषद् के कार्याध्यक्ष और वरिष्ठ अधिवक्ता आलोक कुमार तथा पूर्व केंद्रीय शिक्षा मंत्री प्रो. संजय पासवान वक्ता थे। गोष्ठी में 150 से अधिक व्यक्तियों ने भाग लिया, जिनमें पूर्व न्यायाधीश, सेवारत और पूर्व कुलपति, पत्रकार, अधिवक्ता, स्तंभ लेखक और शिक्षाविद शामिल थे। समापन सत्र की अध्यक्षता दलित इंडियन चैम्बर आफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री (डिक्की) के संस्थापक मिलिंद कांबले ने की। विहिप के संयुक्त महासचिव डॉ. सुरेंद्र जैन और पूर्व न्यायाधीश शिव शंकर राव बुलुसु मुख्य वक्ता थे।
गोष्ठी में सर्वसम्मति से दोहराया गया कि अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षण जारी रहेगा। गोष्ठी में यह भी कहा गया कि अनुसूचित जातियों के चयन का आधार सामाजिक, शैक्षिक और आर्थिक पिछड़ापन है। 1931 की जनगणना के लिए तत्कालीन जनगणना आयुक्त डॉ जे. एच. हटन द्वारा तैयार की गई प्रश्नावली ने सामाजिक पिछड़ेपन के निर्धारण का आधार बनाया था। इसमें कहा गया था कि वे जातियां, जिनके बारे में उच्च जाति के व्यक्ति यह मानते थे कि उनके छूने या पास आने से वे दूषित हो जाएंगे? इसके आधार पर राज्य ने हिंदू समाज में अछूत मानी जाने वाली जातियों की पहचान की।
यही वर्गीकरण बाद में अस्पृश्यता को खत्म करने के लिए भारत के संविधान में अनुच्छेद 17 को प्रस्तुत करने का आधार बना। फिर भी, अनुसूचित जातियों के विरुद्ध सामाजिक भेदभाव का अभिशाप विभिन्न रूपों और स्तरों पर जारी है। इसलिए आरक्षण जारी रहना चाहिए और अतीत में अछूत मानी जाने वाली जातियों तक ही सीमित होना चाहिए।
गोष्ठी में वक्ताओं ने कहा कि इस्लाम और ईसाई घोषणा करते हैं कि उनमें कोई जाति व्यवस्था नहीं है, इसलिए अस्पृश्यता का कोई अभ्यास नहीं है। इस प्रकार अनुसूचित जाति का एक व्यक्ति जो इस्लाम या ईसाइयत स्वीकार कर लेता है, वह सामाजिक कलंक को पीछे छोड़ देता है और इसलिए उसे अनुसूचित जाति की श्रेणी में आरक्षण नहीं दिया जा सकता है।
गोष्ठी में यह भी कहा गया कि वैसे भी पिछड़े मुसलमान और ईसाई राज्यों के संबंधित कोटे में आरक्षण का लाभ उठाते हैं। दूसरे गरीब मुस्लिम और ईसाई ईडब्ल्यूएस श्रेणी के तहत आरक्षण के हकदार हैं। वे अल्पसंख्यकों के विकास के लिए विभिन्न योजनाओं का लाभ भी उठाते हैं। उनके संस्थान भारत के संविधान के अनुच्छेद 30 के तहत संरक्षित हैं। अल्पसंख्यकों को मुफ्त राशन, आवास, शौचालय, गैस, बिजली, नल का पानी आदि कल्याणकारी योजनाओं से भी लाभ मिला है। इसलिए अनुसूचित जाति के लिए आरक्षण अटल है। किसी दूसरी जाति या नस्ल को आरक्षण सूची में शामिल करने से आरक्षण प्रावधानों के पीछे संवैधानिक भावना कमजोर होगी।
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