जगदीश चंद्र त्रिपाठी, जिन्होंने देवभूमि में लहराया था विश्व हिंदू परिषद का परचम
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जगदीश चंद्र त्रिपाठी, जिन्होंने देवभूमि में लहराया था विश्व हिंदू परिषद का परचम

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में आजीवन प्रचारक रहे जगदीश चंद्र त्रिपाठी का जन्म 3 जनवरी सन 1936 को देवभूमि उत्तराखण्ड के अल्मोड़ा में शिवदत्त त्रिपाठी के घर हुआ था।

by उत्तराखंड ब्यूरो
Mar 12, 2023, 03:51 pm IST
in उत्तराखंड
जगदीश चंद्र त्रिपाठी (फाइल फोटो)

जगदीश चंद्र त्रिपाठी (फाइल फोटो)

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भारत के सांस्कृतिक इतिहास की विरासत को संजोकर रखने में उत्तराखंड राज्य का योगदान किसी भी दृष्टि से कम नहीं है। उत्तराखण्ड राज्य में अनेकों महान विभूतियों ने जन्म लिया है, जो आध्यात्मिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, पर्यावरण संरक्षण, कला, साहित्य, आर्थिक, देश की रक्षा एवं सुरक्षा जैसे अनेकों महत्वपूर्ण क्षेत्रों में विश्वप्रसिद्ध हुए हैं। देश की इन्हीं महान विभूतियों की कतार में स्थान प्राप्त करने वाले सबसे चर्चित और विख्यात प्रतिष्ठित नाम जगदीश चंद्र त्रिपाठी का आता है।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में आजीवन प्रचारक रहे जगदीश चंद्र त्रिपाठी का जन्म 3 जनवरी सन 1936 को देवभूमि उत्तराखण्ड के अल्मोड़ा में शिवदत्त त्रिपाठी के घर हुआ था। सन 1946 में वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक बने थे। सन 1948 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर प्रतिबंध लगा तथा विरोध होने लगा यद्यपि बाद में प्रतिबंध हट गया पर उनके घर में विरोध जारी रहा, फिर भी वह संघ शाखा पर नियमित रुप से जाते रहे। उन्होंने स्नातक तक की शिक्षा अल्मोड़ा से ही प्राप्त की थी।

सन 1955 में प्रथम वर्ष तथा 1956 में द्वितीय वर्ष का राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से प्रशिक्षण प्राप्त कर सन 1956 में ही जगदीश चंद्र राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक बन गये थे। उत्तर प्रदेश में वह पूरनपुर, शाहजीपुर, एटा, शामली, गाजियाबाद, श्रीनगर गढ़वाल के साथ रामपुर में नगर, तहसील व जिला प्रचारक रहे थे। सन 1967 में उन्हें असम के तेजपुर में भेजा गया। उसके पश्चात कई वर्ष तक वह बंगाल में वर्धमान में विभाग प्रचारक तथा कोलकाता में प्रांतीय कार्यालय प्रमुख भी रहे। सन 1984 से सन 1990 तक वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठ प्रचारक भाऊराव देवरस के निजी सहायक रहे। फिर उन्होंने उत्तरांचल उत्थान परिषद अल्मोड़ा, वनवासी कल्याण आश्रम सोलन हिमाचल प्रदेश, लोकभारती लखनऊ उत्तर प्रदेश तथा विश्व संवाद केन्द्र अल्मोड़ा का कार्यभार भी संभाला था।

सन 2000 में उनकी योजना विश्व हिन्दू परिषद में हुई, प्रारम्भ में उनका केन्द्र हरिद्वार था, वहां कार्यालय की देखरेख तथा धर्माचार्यों से सम्पर्क का काम उनके जिम्मे था। इसके बाद वृन्दावन में रहकर वह धर्माचार्यों से सम्पर्क करते रहे। सन 2004 में वह विश्व हिन्दू परिषद के दिल्ली स्थित केन्द्रीय कार्यालय संकटमोचन आश्रम में आ गये तथा दो वर्ष तक वहां की व्यवस्था में रहे।

विश्व हिन्दू परिषद की ओर से कई पत्रिकाएं प्रकाशित होती हैं। इनमें से हिन्दू चेतना पाक्षिक पत्रिका मुख्यतः साधु-संतों के पास भेजी जाती है। इसके सम्पादक भैया जी कस्तूरे के निधन के बाद सन 2006 में इसके सम्पादन की जिम्मेदारी जगदीश चंद्र त्रिपाठी को दी गयी। हिन्दू चेतना पत्रिका का कार्यालय संकटमोचन आश्रम से 20 कि.मी. दूर झंडेवाला मंदिर के पास है। जगदीश चंद्र प्रतिदिन प्रातः लगभग नौ बजे यहां से निकलकर बस से पत्रिका के कार्यालय में समय से पहुंच जाते थे। कार्यालय का समय समाप्त होने के बाद वह इसी प्रकार वापस आते थे। उनकी समयशीलता के कारण पत्रिका के कार्यालय में भी अनुशासन का वातावरण बन गया था। उन्होंने हिन्दू चेतना पत्रिका के रंग, रूप और विषय वस्तु में अनेक सुधार किए, जिससे उसकी गुणवत्ता बढ़ी और उसकी प्रसार संख्या में भी वृद्धि हुई।

जगदीश चंद्र बहुत सरल, सौम्य और अध्ययनशील व्यक्ति थे। बच्चों में वह बहुत शीघ्र घुलमिल जाते थे। अपने घर जाने पर वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ विचार की कुछ पुस्तकें वहां दे आते थे। वह किसी भी भाषा-बोली को बहुत जल्दी सीखकर बोलने लगते थे। हिन्दी और कुमाऊंनी के साथ ही वह बंगला, मराठी और पंजाबी भी बोल लेते थे। आपातकाल के समय में वह दार्जिलिंग में गिरफ्तार हुए थे। कुछ समय बाद उनकी जमानत हो गयी, पर उन्हें हर महीने थाने में हाजिरी देनी पड़ती थी। वह महीने के अंतिम दिन तथा फिर अगले महीने के पहले या दूसरे दिन जाकर दो महीने की हाजिरी लगवा लेते थे, शेष समय वे जनजागरण में लगाते थे।

11 मार्च सन 2015 को जगदीश चंद्र प्रत्येक दिन की तरह पत्रिका के कार्यालय में गए, परन्तु स्वास्थ्य ढीला होने के कारण 12 मार्च को कार्यालय नहीं गये थे। रात में सात बजे उन्हें भीषण मस्तिष्काघात हुआ, जिससे तत्काल उनका प्राणांत हो गया। पास के कमरे वाले आवाज सुनकर दौड़े तो देखा जगदीश चंद्र के मुंह और नाक से खून निकल रहा था, तुरंत उन्हें अस्पताल ले जाया गया, पर वहां डॉक्टरों ने भी उन्हें मृत घोषित कर दिया। उन्होंने न किसी को कष्ट दिया और न ही स्वयं कष्ट उठाया। अंतिम दिन तक काम करते हुए उन्होंने अपनी जीवन-यात्रा पूर्ण की थी।

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