ब्रजधरा के होली के उल्लास के सामने स्वर्ग का आनंद भी फीका लगने लगता है। अनुराग, उल्लास, हास-परिहास से आपूरित कृष्ण की इस धरती पर होली का त्योहार वसंत पंचमी से चैत्र कृष्ण पंचमी तक मनाया जाता है। ब्रज की होली तथा रसिया कृष्ण के मध्य एक अद्वैत संबंध माना जाता है। रसिया अर्थात वह जो जीवन में चारों ओर अनुराग का उल्लास उत्पन्न कर दे
हमारी भारतीय संस्कृति में पर्वों-त्योहारों की अविरल श्रृंखला हमारे अदम्य उत्साह व राष्ट्रीय चरित्र को उजागर करती है। इन पर्वों में वैदिक पर्व होली अनुपम है। जाति-वर्ग के समस्त भेदों को समतल करता हुआ होली का आनंदोल्लास जन-जन में सहज ही प्रवाहित होता देखा जा सकता है। तत्व रूप में देखें तो व्यक्तिगत नहीं अपितु समूह मन का निर्माण करने वाला यह रंगोत्सव को समाज निर्माण के महती उत्तरदायित्व को धारण करने वाला भारत का महापर्व है जिसकी बुनियाद हमारे महान ऋषियों ने वैदिक युग में डाली थी। भारतीय जीवन दर्शन को जितनी सम्पूर्णता के साथ यह रंगपर्व प्रस्तुत करता है, उतना शायद ही कोई अन्य पर्व करता हो। एक जा रहा है और दूसरा आ रहा है। सामान्यतया आने वाले का अभिनंदन होता है और जाने का शोक; लेकिन होली की विशिष्टता यह है कि यह आने वाले के साथ जाने वाले का भी अभिनंदित करता है, और नाच-गाकर उसे खुशी-खुशी विदा करता है। हमारे भारत में जितने रंग इस महापर्व को मनाने के दीखते हैं, किसी दूसरे पर्व-त्योहार के नहीं। इस ऋतु पर्व पर प्रकृति और मानवीय मनोभावों के उल्लास का सुंदरतम रूप अभिव्यक्त होता है। आइए जानते हैं भारत के इस सर्वाधिक लोकप्रिय लोकोत्सव से जुड़ी बहुरंगी रोचक परम्पराओं और अनूठे राग-रंगों से जुड़ी दिलचस्प जानकारियां-
ब्रजधरा की होली का अनूठा आनंद
कहते हैं कि ब्रजधरा के होली के उल्लास के सामने स्वर्ग का आनंद भी फीका लगने लगता है। अनुराग, उल्लास, हास-परिहास से आपूरित कृष्ण की इस धरती पर होली का त्योहार वसंत पंचमी से चैत्र कृष्ण पंचमी तक मनाया जाता है। ब्रज की होली तथा रसिया कृष्ण के मध्य एक अद्वैत संबंध माना जाता है। रसिया अर्थात वह जो जीवन में चारों ओर अनुराग का उल्लास उत्पन्न कर दे। इसी कारण होली के अवसर पर राधा-कृष्ण समूची बृज भूमि के घर-घर में विशेष वंदनीय बन जाते हैं। इस दौरान मथुरा के द्वारकाधीश मंदिर, जन्मभूमि मंदिर, वृंदावन का बांके बिहारी मंदिर और इस्कॉन आदि मंदिरों में फूलों की होली की छटा देखने वाली होती है। इस होली के पहले लड्डूमार होली खेली जाती है। पुजारी प्रसाद के रूप में श्रद्धालुओं पर लड्डू बरसाते हैं फिर एक प्रकार का वाद्य यंत्र “चंग” बजा कर “आज बिरज में होली रे रसिया, होली रे रसिया, बरजोरी रे रसिया। उड़त गुलाल लाल भए बादर, केसर रंग में बोरी रे रसिया।” जैसे रास गीतों के साथ मनभावन नृत्य और अबीर, रंग व गुलाल की होली के रंग मन मोह लेते हैं। श्रीकृष्ण की प्रियतमा राधा रानी के गांव बरसाना की लट्ठमार होली की परम्परा भी अति प्राचीन है। कृष्ण युग में फाल्गुन मास की शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को पहले नंद गांव के ग्वाल बाल होली खेलने के लिए राधा रानी के गांव बरसाना जाते थे और फिर बरसाना गांव के लोग नंद गांव में आते थे। हंसी ठिठोली के बीच ग्वालिनें हाथ में लाठी लेकर होरिहारों को पीटती थीं और ग्वाल बाल उनके साथ छेड़खानी करते हुए खुद को उनके कोमल प्रहारों से बचाते थे। वही परम्परा अनेक सदियां बीत जाने के बाद भी बदस्तूर कायम है। इस होली को देखने के लिए बड़ी संख्या में देश-विदेश से लोग प्रति वर्ष बरसाना आते हैं।
मथुरा के फालैन गांव की रोमांचक होली
इसी तरह मथुरा के फालैन गांव की अनूठी होली के अपने अलग ही कौतुक हैं। यह होली फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा को मनायी जाती है। इस दौरान गांव का पंडा शरीर पर मात्र एक अंगोछा धारण कर होली की धधकती आग में से निकल कर अथवा उसे फलांग कर दर्शकों में रोमांच पैदा कर देता है। होली में से उसके सकुशल निकलने के उपलक्ष्य में खलिहान का पहला अनाज भी उसे अर्पित किया जाता है। फालैन गांव के आस-पास के लोगों का मत है कि सैंकड़ों वर्षों पूर्व प्रह्लाद के आग से सकुशल बच जाने की घटना को, इस दृश्य के माध्यम से सजीव किया जाता है।
अयोध्या का होलिकोत्सव
वृंदावन व बरसाने के जैसे ही भगवान राम की नगरी अयोध्या में होली भी खासी मनमोहक होती है। अयोध्या के होली उत्सव में साधु-महात्मा और अवधवासियों का विशाल जुलूस निकलता है। यह जत्था पहले हनुमानगढ़ी जाता है तथा वहां हनुमान जी की छड़ी और पवित्र निशान की पूजा वंदना की जाती है फिर सभी उसी प्रांगण में जम कर होली खेलते हैं। फिर पवित्र निशान और छड़ी के साथ पंचकोसी परिक्रमा की जाती है। इस परिक्रमा के दौरान श्रद्धालु जन झूमते गाते, रंग उड़ाते एक दूसरे को गुलाल लगाते भगवान श्रीराम को रंग खेलने का न्योता देते हैं। इसके बाद चार दिनों तक सब लोग खूब होली खेलते हैं। इस अवसर पर “”जोगीरा सारा..रा…रा..रा… तथा होली खेले रघुवीरा अवध में होली खेले…”” जैसे फागुन गीतों की मस्ती देखने वाली होती है। मान्यता है कि तेत्रायुग में चौदह साल के वनवास के बाद श्रीराम जब अयोध्या के राजा बने तो उनके शासनकाल में मनाये गये पहले होली उत्सव में सभी देवी-देवताओं को शामिल होने का निमंत्रण स्वयं हनुमान जी ने दिया था। इसीलिए आज भी अयोध्या का होली पर्व बजरंग बली की प्रधान पीठ हनुमानगढ़ी से ही शुरू होता है।
भोले की नगरी का मस्त फाग उत्सव
काशी की होली के तो कहने ही क्या ! बाबा विश्वनाथ की इस नगरी में देवी महाश्मशान पर जलती चिताओं के बीच चिता-भस्म की होली खेलने की अनूठी परम्परा है। इसमें लोग डमरुओं की गूंज और “हर हर महादेव” के नारे के साथ एक दूसरे को भस्म लगाते हैं। काशी में होली यह परम्परा प्राचीन काल से चली आ रही है। इस दिन मशान नाथ मंदिर में घंटे और डमरुओं के बीच औघड़दानी बाबा शिव की आरती की जाती है। होली का यह सिलसिला बुढ़वा मंगल तक चलता रहता है। इस मौके पर “खेलैं मसाने में होरी दिगंबर, खेले मसाने में होरी। जैसे गीतों के बीच भांग की मस्ती में डूबी शिवनगरी की रौनक देखते ही बनती है। अल्हड़ मस्ती और हुल्लड़बाजी के रंगों में घुली बनारसी होली का दीदार करने देश-विदेश के सैलानी जुटते हैं।
उत्तराखंड की सुरीली महफिलें
उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल में होली की खासियत अबीर-गुलाल के टीकों के साथ शास्त्रीय परम्परा के साथ “बैठकी होली” और “खड़ी होली” का गायन है। अपनी इस सांस्कृतिक विशेषता के लिए कुमाऊंनी होली लोक विख्यात है। शाम के समय कुमाऊं के घर-घर में होली की सुरीली महफिलें जमने लगती हैं जिनमें होली पर आधारित गीत विभिन्न राग-रागिनियों के साथ हारमोनियम और तबले पर गाए जाते हैं। दिलचस्प तथ्य यह है कि इन गीतों में मीराबाई से लेकर नज़ीर और बहादुर शाह जफर की रचनाएं भी सुनने को मिलती हैं।
आनंदपुर साहिब का होला-मोहल्ला
सिखों के पवित्र धर्मस्थान श्री आनंदपुर साहिब में होली “पौरुष के प्रतीक पर्व” के रूप में मनाई जाती है। गोविंद सिंह जी ने होली के लिए पुल्लिंग शब्द “होला-मोहल्ला” का प्रयोग किया था। इस “होला-मोहल्ला” उत्सव का आयोजन होली के अगले दिन किया जाता है। इस अवसर पर घोड़ों पर सवार निहंग हाथ में निशान साहब उठाए तलवारों के करतब दिखा कर साहस व पौरुष और उल्लास का प्रदर्शन करते हैं। पंज प्यारे जुलूस का नेतृत्व करते हुए रंगों की बरसात कर “जो बोले सो निहाल” के नारे बुलंद करते हैं। आनंदपुर साहिब में इस अवसर पर विशाल लंगर का भी आयोजन किया जाता है। कहते हैं गुरुगोविंद सिंह ने स्वयं इस मेले की शुरुआत की थी।
कुल्लू की रघुनाथ पालकी यात्रा
हिमाचल प्रदेश के कुल्लू जिले में होली का त्योहार एक खास अंदाज में मनाया जाता है। इस पर्व पर भगवान रघुनाथजी का विशेष श्रृंगार कर उनकी भव्य पालकी यात्रा निकाली जाती है। इस शाही यात्रा में सर्वप्रथम रघुनाथजी के साथ हनुमानजी की प्रतिमा को होली का टीका लगाया जाता है। तत्पश्चात यात्रा में शामिल लोग एक-दूसरे पर रंग बरसाते हैं और नाचते-गाते होली का उत्सव मनाते हैं। इसमें कई लोग हनुमान व अन्य पात्रों का वेश भी धारण करते हैं। हिमाचल के सुजानपुर क्षेत्र का होली मेला भी पूरे देश में विख्यात है। इस मेले की शुरुआत लगभग 225 वर्ष पहले तब हुई थी जब कांगड़ा के राजा संसारचंद ने सुजानपर को अपनी राजधानी बनाया था। इस मेले में देशभर से आए कलाकार अपनी कला का जादू बिखेरते हैं। इसी तरह हिमाचल के ही कांगड़ा क्षेत्र में प्रसिद्ध श्वेताम्बर जैन मंदिर में श्रद्धालु होली पर भगवान आदिनाथ की विशेष पूजा-अर्चना करते हैं।
बाड़मेर की “पत्थरमार होली”
राजस्थान में भी होली के विविध रंग देखने में आते हैं। बाड़मेर में पत्थरमार होली खेली जाती है तो अजमेर में बंजारा जाति के लोग कोड़ा अथवा बेंतमार होली बहुत धूम-धाम से मनाते हैं। राजस्थान के सलंबूर कस्बे में होली के अवसर पर आदिवासी “भील” और “मीणा” युवक गेर नृत्य करते हैं। जब युवक नृत्य करते हैं तो युवतियां उनके समूह में सम्मिलित होकर फाग गाती हैं और मुंह मीठा करने के लिए पुरुषों से पैसे मांगती हैं। इस अवसर पर आदिवासी युवक-युवतियां अपना जीवन साथी भी चुनते हैं।
मालवा का “भगोरिया उत्सव”
मध्य प्रदेश के मालवा अंचल के धार, झाबुआ, खरगोन आदि आदिवासी बहुल इलाकों में होली के अवसर पर भगोरिया हाट उत्सव बेहद धूमधाम से मनाया जाता है। अपने भावी जीवनसाथी के चयन के लिए भील समाज के युवक-युवतियां सज-धज कर इस उत्सव में शामिल होते हैं। इनमें आपसी रजामंदी जाहिर करने का तरीका भी बेहद निराला होता है। सबसे पहले लड़का लड़की के समक्ष पान प्रस्तुत करता है। यदि लड़की पान खा ले तो उसकी सहमति समझी जाती है। इसके बाद लड़का उस लड़की को “भगोरिया हाट” से भगा जाता है और दोनों विवाह कर लेते हैं। इसीलिए इसका नाम भगोरिया पड़ गया। इस उत्सव में सर्वप्रथम हाथों में गुलाल लिए भील युवक एक विशेष वाद्ययंत्र “मांदल” की थाप पर सामूहिक नृत्य करते हैं।
गुजरात का “गोलगधेड़ो”
होली के मौके पर गुजरात के भील समाज में “गोलगधेड़ो” नृत्य होता है। इस नृत्य के आयोजन में सर्वप्रथम किसी पेड़ पर या भूमि में बांस गाड़कर उस पर गुड़ और नारियल बांध दिया जाता है। फिर उसके चारों ओर घेरा बना कर आदिवासी युवतियां नाचती गाती हैं। युवक उस घेरे को तोड़कर गुड़ नारियल प्राप्त करने की कोशिश करते हैं। इस दौरान जो युवक हर बाधा को पार कर यदि गुड़ नारियल प्राप्त करने में सफल हो जाता है तो वह उस घेरे में नृत्य कर रही अपनी प्रेमिका अथवा पसंद की युवती को गुलाल लगाता है और उससे विवाह कर लेता है।
बंगाल की “दोल जात्रा”
बंगाल में फाल्गुन पूर्णिमा पर दोल जात्रा निकाली जाती है। इस दिन महिलाएं लाल किनारी वाली पारंपरिक सफेद साड़ी पहन कर शंख बजाते हुए राधा-कृष्ण की पूजा करती हैं और प्रभात फेरी (सुबह निकलने वाला जुलूस) का आयोजन करती हैं। इसमें गाजे-बाजे के साथ, कीर्तन और गीत गाए जाते हैं। दोल का अर्थ है झूला। झूले पर राधा-कृष्ण की मूर्ति रखकर महिलाएं भक्ति गीत गाती हैं और अबीर और रंगों से होली खेलती हैं। शांति निकेतन में प्रात: गुरुदेव रबीन्द्रनाथ टैगोर की प्रतिमा को नमन के पश्चात अबीर गुलाल के साथ “दोलोत्सव” मनाया जाता है।
गोवा का “शिमगो उत्सव”
होली का उत्सव यहां “शिमगो उत्सव” के रूप में मनाया जाता है। गोवा के शिमगा उत्सव की सबसे अनूठी बात पंजिम का वह विशालकाय जलूस है जो होली के दिन निकाला जाता है। जलूस के समापन स्थल पर साहित्यिक, सांस्कृतिक और पौराणिक विषयों पर आधारित सांस्कृतिक कार्यक्रम होते हैं जिनमें हर जाति व धर्म के लोग पूरे उत्साह से भाग लेते हैं।
मणिपुर का “याओसांग”
मणिपुर में होली मूलत: “याओसांग” पर्व के रूप में मनायी जाती है। याओसांग से अभिप्राय उस नन्हीं-सी झोंपड़ी से है जो पूर्णिमा के दिन सूर्योदय के समय प्रत्येक नगर-ग्राम में नदी अथवा सरोवर के तट पर बनाई जाती है। इसमें चैतन्य महाप्रभु की प्रतिमा स्थापित की जाती है और पूजन के बाद इस झोंपड़ी को होलिका की भांति जला दिया जाता है। फिर इस याओसांग की राख को लोग अपने मस्तक पर लगाते हैं और घर ले जा कर तावीज बनवाकर धारण करते हैं। रंग खेलने के बाद बच्चे घर-घर जा कर चावल सब्जियां इत्यादि एकत्र करते हैं फिर इस सामग्री से एक बड़े सामूहिक भोज का आयोजन होता है।
दक्षिण भारत में “कामदहनम”
दक्षिण भारतीय राज्यों में होली को “कामदहनम” कहा जाता है। यहां होली पर्व को कामदेव की कहानी से जोड़कर देखा जाता है। तमिलनाडु में कामदेव और उनकी पत्नी रति की दुखद कहानी पर आधारित कई लोकगीत गाये जाते हैं। केरल में तमिल भाषी लोग होली को ‘मंगलकुली’ के रूप में मनाते हैं। मंगल यानी ‘हल्दी ‘और कुली का अर्थ है स्नान।
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