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होम भारत

उल्लास, आत्मीयता और उमंग सब होली है

होली के दिन कश्मीर से कन्याकुमारी और कच्छ से कामाख्या तक रंगों से सराबोर लोग देश की भावनात्मक, सांस्कृतिक और उल्लास की एकता का उज्ज्वल उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। होलिका दहन यह संदेश देता है कि कोई व्यक्ति कितना भी शक्तिशाली क्यों न हो, गलत मार्ग को अपनाने पर अपनी असीम शक्ति भी खो बैठता है।

by WEB DESK
Mar 7, 2023, 11:00 am IST
in भारत, धर्म-संस्कृति
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कौन होगा, जो रंग खेलने में, मित्रों की संगत में बौरा न जाता हो। इतने सारे लोगों को इतनी प्रसन्नता और इतनी ताजगी कोई दवा दे ही नहीं सकती। यहां होली देती है। मन-मुटाव दूर होने से कितना मानसिक-आत्मिक बोझ कम होता है? एक बार में एक पिचकारी भर। तो बोलिए- होली है।

ऋतुराज वसंत का आगमन। रंगों की छटाओं से सराबोर स्वयं प्रकृति। त्यौहार की प्रतीक्षा का उत्साह। भक्त प्रहलाद की भक्ति। भारत की रस-रंगवन्ती आत्मा का उल्लास। रंगों की मुक्त लीला। वैर-विरोध और द्वेष-दुष्टता के निराकरण का पवित्र यज्ञ। साहित्य की, लोक साहित्य की बौछार। असंख्य गीतों का नाद। एक शब्द में- होली।

होली एक ओर जहां प्रकृति के साथ मनुष्य के साहचर्य की कहानी है, वहीं होली का एक प्रतीकात्मक संदेश भी है और इसकी वैज्ञानिकता है।
होली के दिन कश्मीर से कन्याकुमारी और कच्छ से कामाख्या तक रंगों से सराबोर लोग देश की भावनात्मक, सांस्कृतिक और उल्लास की एकता का उज्ज्वल उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। होलिका दहन यह संदेश देता है कि कोई व्यक्ति कितना भी शक्तिशाली क्यों न हो, गलत मार्ग को अपनाने पर अपनी असीम शक्ति भी खो बैठता है।

होलिका के साथ अहम और अमर्यादा का दहन जहां नैतिक-मानसिक स्वच्छता का अभियान है, वहीं चले आ रहे किसी भी राग-द्वेष को जला डालने का आह्वान भी है।

होली के दिन कश्मीर से कन्याकुमारी और कच्छ से कामाख्या तक रंगों से सराबोर लोग देश की भावनात्मक, सांस्कृतिक और उल्लास की एकता का उज्ज्वल उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। होलिका दहन यह संदेश देता है कि कोई व्यक्ति कितना भी शक्तिशाली क्यों न हो, गलत मार्ग को अपनाने पर अपनी असीम शक्ति भी खो बैठता है

मौसम के बदलाव की साक्षी होली। प्रकृति के स्वागत की तैयारी भी होली। आषाढ़ी फसलों के यवों से देवयज्ञ कर नए खाद्यान्न का उपयोग प्रारंभ करने का पर्व होली।
सिर्फ संयोग नहीं, सिर्फ खेल नहीं। गहरी वैज्ञानिकता भी समेटे है होली। संस्कृत में अग्नि में भुने हुए अधपके अन्न को होलक कहते हैं। तिनकों की अग्नि में भुने हुए अधपके शमीधान्य ही होलक (होला) होते हैं। होला स्वल्प वात है और मेद (चर्बी) कफ और श्रम (थकान) के दोषों का शमन करता है।

शरद ऋतु की विदाई और बसंत ऋतु के आगमन का यह संधि काल पर्यावरण में और शरीर में जीवाणुओं-विषाणुओं की वृद्धि कर देता है। एलर्जी, बुखार आदि इसी के लक्षण होते हैं। लेकिन होलिका की परिक्रमा करने से लगभग 145 डिग्री फारेनहाइट तक तापमान की आंच मिलती है। हल्के जीवाणुओं से मुक्ति के लिए यह काफी होती है।

सूखे पत्तों की आंच पर्यावरण से अनेक जीवाणुओं-विषाणुओं का नाश कर देती है। प्राकृतिक रंगों से होली खेलें, तो यह त्योहार शरीर में स्फूर्ति भरने का पर्व साबित होता है। गुलाल और अबीर शरीर की त्वचा को उत्तेजित करते हैं। शरीर के आयन मंडल को भी रंग खेलने से बहुत बल मिलता है। चैत्र मास में शीतला रोग (स्माल पॉक्स) का प्रकोप होता रहा है। ढाक के फूलों के रंग, टेसू के फूलों के रंगीन जल से स्नान करना इसमें लाभकारी होता है।

और रंग खेलने का मानसिक स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभाव का तो क्या ही कहना। कौन होगा, जो रंग खेलने में, मित्रों की संगत में बौरा न जाता हो। इतने सारे लोगों को इतनी प्रसन्नता और इतनी ताजगी कोई दवा दे ही नहीं सकती। यहां होली देती है। मन-मुटाव दूर होने से कितना मानसिक-आत्मिक बोझ कम होता है? एक बार में एक पिचकारी भर। तो बोलिए- होली है।

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