उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद गोदान में उल्लेख करते हैं कि जब पुरुष में नारी के गुण आ जाते हैं तो वह महात्मा बन जाता है। महाप्राण निराला भी अधर्म पर विजय के लिए राम से शक्ति की पूजा कराते हैं। शक्ति से वरदान मिलने पर उनकी जीत सुनिश्चित होती है। पन्ना धाय की भी कहानी याद होगी। राष्ट्र की सुरक्षा के लिए वह अपने पुत्र का बलिदान करती हैं। बुंदेलों से रानी लक्ष्मीबाई की गाथा तो सुनी ही होगी। छत्रपति शिवाजी महाराज की शक्ति का आधार उनकी मां थीं। ये कुछ उदाहरण मात्र हैं। इस संसार में एकमात्र नारी ही है जो स्वयं को पीछे छोड़ स्वयं से संबंधित के लिए पहले प्रयास करती है। निरंतर प्रवाहमान हो सम्पूर्ण समाज की चेतना को जीवंत रखती है। जीवन की सुंदरता और सहजता को चरितार्थ एक नारी ही करती है। इसीलिए समाज और राष्ट्र के सशक्त पुनर्निर्माण में स्त्री का दायित्व श्रेष्ठ है। विश्व एक परिवार है, इस ध्येय वाक्य को मानकर चलने वालों के लिए स्त्री के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं है जो समस्त परिवारजनों की सभ्यता और सहजता को साथ लेकर गंगा के समान निरंतर बहती रहे।
भारत के गौरवपूर्ण इतिहास में सौम्यता, दिव्यता और ज्ञान की प्रतिमूर्ति के रूप में तो स्त्रियों को प्रदर्शित किया ही गया है अपितु उनके साहस को प्रदर्शित करते हुए एक योद्धा व वीरांगना के रूप में भी उल्लेखित किया गया है। इन सभी नामों में सर्वाधिक गर्व से लिया जाने वाला नाम झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का है। 23 वर्ष की आयु में इन वीरांगना ने जो कीर्तिमान स्थापित किया उसका लोहा आज भी माना जाता है। सुभद्रा कुमारी चौहान की रचित कविता- बुंदेले हरबोलो के मुंह हमने सुनी कहानी थी… जब गाया जाता है तो 23 वर्ष की युवती जिसके दोनों हाथों में तलवार और पीठ पर बच्चा, मुंह में घोड़े की लगाम थामे 6-6 अंग्रेज अफसरों के छक्के छुड़ा रही हों। इस दृश्य की कल्पना मात्र से शरीर में रक्तसंचार तीव्र हो जाता है और देश की ऐसी वीरांगना के सामने नतमस्तक हो जाता है। जिसका ध्येय था कि यह झांसी मेरी है और मैं इसको किसी को नहीं दूँगी।
कष्ट होता है जब पाश्चात्य संस्कृति का राग सुनाकर क्षम्य नारीवाद को बढ़ावा दे, राष्ट्रीय एकता को तोड़ने का प्रयास किया जाता है। ऐसे लोग कभी महारानी लक्ष्मीबाई, जीजाबाई, रानी दुर्गावती जैसी भारतीय संस्कृति और साहस की प्रतिमूर्ति को कभी चर्चा में नहीं लाएंगे। प्राचीन विश्व गुरु रहा भारत को चिन्हित करने वाली विदुषी गार्गी, दुष्यंत को अपने तर्कों से मौन करा देनी वाली शकुंतला, द्रौपदी, मध्यकालीन भारत में भक्ति आंदोलन का नेतृत्व करने वाली मीराबाई, रानी गाइडिनल्यु, महारानी अहिल्याबाई होल्कर जैसी नारियों को देखने के बाद भारतीय संस्कृति में नारीवाद की वास्तविक परिभाषा को किस प्रकार से चरितार्थ किया गया है वह स्पष्ट है। भारतीय संस्कृति में क्या खूब कहा गया है कि यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता: अर्थात जहां नारी की पूजा की जाती है, उसका सम्मान किया जाता है वहां देवताओं का वास होता है।
यहां जिस पृथ्वी पर जीव जन्म प्राप्त करता है, जिस नदी के नीर से संचित होता है, संसाधन सम्पन्न इस प्रकृति को भी यहां मां मानकर संबोधित किया जाता है। “जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी”, अर्थात कि जिस भूमि पर हमने जन्म लिया है वह स्वर्ग के समान है। आज भारत आत्मनिर्भरता और स्वावलंबी बनने की ओर अग्रसर है। पृथ्वी से लेकर नभ तक नारी शक्ति की गूंज है। वर्तमान में स्त्री शक्ति दिवस वर्तमान भारत को उड़ान देने का उपाय है। जिसको साकार करने के लिए परिषद नित निरंतर बढ़ता चला जा रहा है। वास्तव में समाज में स्त्रियों की भूमिका और उनकी शक्तियों को वर्णित करना सर्वाधिक महत्वपूर्ण है।
(लेखिका जेएनयू में मीडिया अध्ययन केंद्र में शोधार्थी हैं।)
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