वैदिक साहित्य के तमाम उल्लेख बताते हैं कि उस युग में बालकों के समान बालिकाओं का भी उपनयन संस्कार होता था और वे भी गुरुओं के आश्रम में रहकर ब्रह्मचर्य का पालन कर विद्या अध्ययन करती थीं। क्षत्रिय स्त्रियां धनुर्वेद अर्थात् युद्धविद्या की भी शिक्षा ग्रहण करती थीं। ‘शतपथ ब्राह्मण’ में उल्लेख मिलता है कि श्रीराम के गुरु वशिष्ठ के गुरुकुल में संगीत व पर्यावरण संरक्षण का शिक्षण उनकी महान विदुषी पत्नी अरुन्धति ही देती थीं।
हारीत संहिता बताती है कि वैदिक काल में स्त्रीशिक्षा के दो रूप थे-1. सद्योवधू (वे विवाह होने से पूर्व ज्ञान प्राप्त करने वाली) तथा २. ब्रह्मवादिनी (ब्रह्मचर्य का पालन कर जीवनपर्यंत ज्ञानार्जन करने वाली)। सद्योवधू या सद्योद्वाहावर्ग की कन्याएं उन समग्र विद्याओं का शिक्षण प्राप्त करती थीं जो उन्हें सद्गृहिणी बनाने में सहायक होती थीं। वेद अध्ययन के अतिरिक्त इन्हें गीत-संगीत, नृत्य, चित्रकला, शिल्प व शस्त्रविद्या आदि कुल चौसठ कलाओं की शिक्षा दी जाती थी। गौरतलब हो कि ये उपनिषद कालीन ब्रह्मवादिनियां आज भी हिन्दू समाज के विद्वत वर्ग में प्रकाश स्तंभके रूप में श्रद्धा से पूजी जाती हैं। ऋग्वेद में गार्गी, मैत्रेयी, घोषा, गोधा, विश्ववारा, अपाला, अदिति, इन्द्र्राणी, लोपामुद्र्रा, सार्पराज्ञी, वाक्क, श्रद्धा, मेधा, सूर्या व सावित्री जैसी अनेक वेद मंत्रद्र्रष्टा विदुषियों का उल्लेख मिलता है जिनके ब्रह्मज्ञान से समूचा ऋषि समाज आह्लादित था। इनकी गहन मेधा का परिचय देते हैं इनके द्वारा रचित विभिन्न वैदिक सूक्त। बताते चलें कि ब्रह्मवादिनी विश्ववारा आत्रेयी ने ऋग्वेद के पंचम मण्डल के 28वें सूक्त, घोषा काक्षीवती ने दशम मण्डल के39वें व 40वें सूक्त, सूर्या सावित्री ने दशम मण्डल के 85वें सूक्त, अपाला आत्रेयी ने अष्टम मण्डल के 91वें सूक्त, शची पौलोमी ने दशम मण्डल के 149वें सूक्त तथा लोपामुद्रा ने प्रथम मण्डल के 179वें सूक्त की रचना की थी।
ज्ञातव्य है कि ब्रह्म के चिंतन-मनन के साथ ये ब्रह्मवादिनियां शिक्षिकाओं के दायित्व का निर्वहन भी पूरी कुशलता से करती थीं। आश्वालायन के गृहसूत्र में गार्गी, मैत्रेयी, वाचक्नवी, सुलभा, वडवा, प्रातिथेयी आदि शिक्षिकाओं के नाम मिलते हैं जिन्हें उपाध्याया का सम्बोधन दिया गया है। जो वामपंथी प्राचीन भारत में स्त्रियों के अशिक्षित होने का झूठ प्रचारित करते हैं, उन्हें अपनी आंखों से झूठ की यह पट्टी उतार कर यह देखने की जरूरत है कि वैदिक काल की महिलाएं यदि दर्शन, तर्क, मीमांसा, साहित्य आदि विषयों की ज्ञाता न होतीं तो क्या वे इतनी विपुल मात्रा में वैदिक साहित्य का सृजन कर पातीं!
महाभारत में काशकृत्स्नी नामक विदुषी का उल्लेख है जिन्होंने मीमांसा दर्शन पर काशकृत्स्नी नाम के ग्रंथ की रचना की थी। इसी तरह आठवीं सदी में मिली रूसा नाम की एक लेखिका की एक कृति में धातुकर्म पर अनेक विवरण मिलते हैं। बारहवीं सदी में भास्कराचार्य ने अपनी पुत्री लीलावती को गणित का अध्ययन कराने के लिए लीलावती ग्रंथ की रचना की थी। बस्तर क्षेत्र में नागशासकों के एक अभिलेख में मासकदेवी नामक एक विदुषी राजकुमारी का उल्लेख है जो किसानों के हित के लिए राज्यनियम परिवर्तित करवाती है। इसी तरह पृथ्वीराज रासोमहाकाव्य बताता है कि राजकुमारी संयोगिता ने मदना नाम की शिक्षिका द्वारा संचालित कन्या गुरुकुल में शिक्षा प्राप्त की थी जिसमें विभिन्न राज्यों की लगभग 500 राजकुमारियां उनके साथ पढ़ती थीं। दु:ख का विषय है कि स्त्री-शिक्षा की इतनी गौरवपूर्ण व स्वर्णिम परिपाटी मध्यकाल के मुगल आक्रांताओं के शासनकाल और उसके बाद फिरंगियों की गुलामी के दौरान छिन्न-भिन्न होती चली गयी। आज भारतीय समाज में तेजी से पनपती तथाकथित अत्याधुनिकता और पाश्चात्य संस्कृति के अंधानुकरण के नाम पर जिस तरह सिनेमा व इंटरनेट के द्वारा स्त्री को भोग्या के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है; यौन अपराध उसी नजरिये की एक स्वाभाविक परिणति हैं। इन अपराधों को रोकने के लिए स्त्री की गरिमा को कलंकित करने वाले विज्ञापनों, टीवी सीरियलों व फिल्मों पर तत्काल प्रभाव से रोक लगाने के साथ शिक्षा में बदलाव भी बेहद जरूरी है। बाल मन में स्त्री के प्रति सम्मानजनक विचारों को रोपण हो, इसके लिए हमें वेदों की ओर रुख करना ही होगा।
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