फिजी का सनातनी भारतीय समुदाय धर्म, संस्कृति, सामाजिक रीति-रिवाजों, भाषा से लेकर इतिहास और वर्तमान के साझा भाव से दृढ़तापूर्वक बंधा हुआ है। गौर करने लायक बात है कि यहां जाति, भाषा, पंथ और इतिहास आधारित विभाजन देखने को नहीं मिलता। उन्होंने अपनी प्रवासी पहचान में भारतीयता को ही जीवित रखा है। दिल से वे सब भारतीय हैं, उनकी कोई अन्य पहचान नहीं है।
अगर हम यूं कहें कि फिजी में एक ‘लघु भारत’ दर्शन होते हैं, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। भारतीय मूल के लोगों ने फिजी में सनातन संस्कृति की पताका फहरा रखी है। आज भी भारतीय मूल के परिवार अपनी सांस्कृतिक जड़ों को पकड़े हुए हैं। वे उसी के अनुसार जीवन जीने की कोशिश करते हैं। अपनी माटी के प्रति स्नेह अप्रवासी भारतीयों की भाषा से ही झलक उठता है।
किसी को लगता होगा कि फिजी में भारतीय प्रवासियों के लिए सनातन का अर्थ सनातन धर्म का पालन और उसी के अनुरूप ढाली गई जीवन शैली ही है, जिसे बाद में ब्रिटिश उपनिवेशवाद के दौरान हिंदू धर्म से पहचान मिलने लगी। इससे स्पष्ट है कि लोगों के धार्मिक जुड़ावों और रीति-रिवाजों के पालन के आधार पर उनके समुदाय की पहचान निर्धारित की गई। फिजी में सनातनियों ने 1879 के बाद अपना नया जीवन शुरू किया। अगर संख्या की बात करें तो यहां अन्य मत-पंथों से इतर हिन्दुओं की आबादी ज्यादा थी। यहां तोताराम जैसे हिन्दुत्वनिष्ठ कार्यकर्ता उभरे।
फिजी के हिन्दू मंदिरों और सामुदायिक केंद्रों में साप्ताहिक रामायण पाठ के लिए एकत्र होते थे। शिक्षा के प्रति उनका रुझान और स्कूलों का निर्माण उनके विकास का एक महत्वपूर्ण हिस्सा रहा। एक तरह से उन्होंने सनातन धर्म की ध्वजा को अपने जीवन से जोड़ लिया और उसे यहां रहकर फहराते चले आए। कहते हैं, भारत की तुलना में विदेशों में भारतीय होना अधिक आसान है।
धार्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक त्योहारों आदि में शामिल होना एक आनंददायक अनुभूति होती है। फिजी में रहने वाले सनातनियों को उनकी साझा संस्कृति, साझा इतिहास, साझा आचार-विचार आपस में बांधे रखता है। उन्होंने भारतीयता में पगे संस्कारों को जीवित रखा है। विश्व बंधुत्व और विश्व कल्याण के सनातन संस्कार फिजी के लोगों ने सहेजकर रखे हैं।
फिजी में भारतीय मूल के लोग प्रत्येक क्षेत्र में हैं। इन सभी के मन में हमेशा एक भावना रहती है कि वे भारतवंशी हैं और उन्हें अपनी जड़ों से जुड़कर रहना है। फिजी में भारतीय मूल के लोग बहुत ही समर्पित भावना के साथ सनातन धर्म का पालन करते नजर आते हैं। वे भारतीय सभ्यता पर गर्व महसूस करते, भारत की सफलता का जश्न मनाते, भारत की आर्थिक सफलताओं पर खुश होते हैं। इसके अलावा जो भी भारतवंशी दुनिया में भारत का मान बढ़ाता है, उससे यहां के लोग ना केवल खुश होते हैं बल्कि गर्व महसूस करते हैं।
निस्संदेह फिजी का सनातनी भारतीय समुदाय धर्म, संस्कृति, सामाजिक रीति-रिवाजों, भाषा से लेकर इतिहास और वर्तमान के साझा भाव से दृढ़तापूर्वक बंधा हुआ है। गौर करने लायक बात है कि यहां जाति, भाषा, पंथ और इतिहास आधारित विभाजन देखने को नहीं मिलता। उन्होंने अपनी प्रवासी पहचान में भारतीयता को ही जीवित रखा है। दिल से वे सब भारतीय हैं, उनकी कोई अन्य पहचान नहीं है।
सबके लिए है स्थान
श्रीराम के वनवास से लौटने के बाद अयोध्या आदर्श शासन का उदाहरण बनी, जिसे रामराज्य कहा जाता है। फिजी के लोगों के लिए भारत उसी आदर्श रामकाज की स्थली है, जिसके आंगन में सबके लिए स्थान है। कह सकते हैं कि यहां के भारतीय न केवल ‘दिल है हिंदुस्थानी’ बल्कि ‘दिमाग भी हिंदुस्थानी’ के पर्याय हैं।
फिजी में आयोजित हुए विश्व हिन्दी सम्मेलन या भारत के ऐसे ही अन्य कार्यक्रम अपने लोगों को बेहतर तरीके से समझने और उसके जरिये स्वयं को और अच्छी तरह जानने के अवसर जैसे होते हैं। वही भाषा, वही संस्कृति और वही सनातन जड़।
साझा इतिहास रखता है बांधे
धार्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक त्योहारों आदि में शामिल होना एक आनंददायक अनुभूति होती है। फिजी में रहने वाले सनातनियों को उनकी साझा संस्कृति, साझा इतिहास, साझा आचार-विचार आपस में बांधे रखता है। उन्होंने भारतीयता में पगे संस्कारों को जीवित रखा है। विश्व बंधुत्व और विश्व कल्याण के सनातन संस्कार फिजी के लोगों ने सहेजकर रखे हैं। ऐसा संस्कार जो दुराग्रहों से दूर है, सबको साथ लेकर चलता है और किसी का मत बदलने का प्रयास नहीं करता।
आज दुनिया कट्टरवाद और विभिन्न मजहबी गुटों में बंटी हुई है, लेकिन फिजी के सनातनी सबको साथ लेकर चलने वाले भारतीय संस्कारों का पालन कर रहे हैं। फिजी में हिन्दी सम्मेलन का आयोजन यहां के भारतीयों की सनातनी पहचान के प्रतिस्थापन की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। इसे इस पृष्ठभूमि में जानना-समझना आवश्यक है कि इन द्वीपों में आने वाले हमारे पूर्वज कौन थे।
भारतवंशी यहां 144 वर्षों से यानी चार-पांच पीढ़ियों से हैं और अपने मूल को खोजने की प्रक्रिया में हैं। हम एक बड़े प्रवासी समूह के नाते हैं और आज संचार क्रांति के इस युग में वैश्विक पटल पर कहीं अधिक प्रासंगिक हो रहे हैं। लोग अपने अनुभव, अपनी कहानियां, अपने मूल के बारे में बातें साझा कर रहे हैं। फिर भी यह ऐसा विषय है, जिस पर व्यापक शोध की आवश्यकता है। इसकी कहानियों को नए तरीके और नए आयामों के साथ कहने की जरूरत है, ताकि हम यह न भूलें कि हम कौन हैं, हमारे पूर्वज कौन और कैसे थे। फिजी में विश्व हिन्दी सम्मेलन इस दिशा में निश्चित ही एक बड़ा अवसर साबित होगा।
(लेखक फिजी स्थित यूनिवर्सिटी आफ साउथ पैसेफिक में एसोसिएट डीन हैं।
साथ ही वे कवि एवं फिल्मकार हैं।)
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