आज जब ‘इंडिया फर्स्ट’ और ‘मेक इन इंडिया’ का दौर चल रहा है, तब भारतीयकरण का मुद्दा प्रासंगिक हो जाता है। अप्रैल, 1970 में पाञ्चजन्य के भारतीयकरण विशेषांक के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन सरसंघचालक श्री गुरुजी का पाञ्चजन्य के तत्कालीन संपादक श्री देवेंद्र स्वरूप ने साक्षात्कार लिया था। प्रस्तुत है उस साक्षात्कार का संपादित अंश
कुछ समय पूर्व आपने लखनऊ में कहा था कि पहले इन राजनीतिज्ञों का भारतीयकरण आवश्यक है?
हां, मैंने कहा था। जिन राजनीतिज्ञों को अपने राष्ट्र के स्व का तनिक ज्ञान नहीं, जो अपने देश की प्रत्येक वस्तु को त्याज्य और विदेश की प्रत्येक वस्तु को शिरोधार्य मानते हैं, जो अर्थ, शिक्षा, संविधान, समाज रचना, विदेश नीति आदि राष्ट्रजीवन के प्रत्येक क्षेत्र में विदेशों का अंधानुकरण करने की ओर प्रवृत्त हों, जो भारत का एक राष्ट्र के नाते नहीं तो अपनी-अपनी भाषा, प्रांत, वर्ण, जाति, सम्प्रदाय आदि के रूप में ही विचार करते हैं। और तो और, तुच्छ क्षणिक राजनीतिक स्वार्थवश भारत में भारतीयकरण, जैसी इतिहाससम्मत मांग का भी विरोध कर रहे है, क्या उनका भारतीयकरण किया जाना सर्वप्रथम आवश्यकता नहीं है?
किन्तु गुरुजी! भारतीयकरण के विरोध में उनका मुख्य तर्क यह है कि यह एक साम्प्रदायिक मांग है, यह मुसलमानों को हिन्दू बनाने का प्रयत्न है?
मुसलमानों की आस्था में परिवर्तन करने की बात किसने कही, कब कही? कम से कम मुझे तो इसका पता नहीं है। मैंने सदैव कहा है कि विश्व में हिन्दू एकमेव ऐसा समाज है जो सब प्रकार की उपासना पद्धतियों का सत्कार करता है और सबका सम्मान करने के लिए प्रस्तुत है। क्योंकि हिन्दुओं की ऐसी मान्यता है और यह उसके सम्पूर्ण आध्यात्मिक चिन्तन का निष्कर्ष है कि भगवान तक पहुंचने के अनेक मार्ग हैं। जो मार्ग जिसे जंचता है, वही उसके लिए अनुकूल है और श्रेष्ठ भी है। अत: हिन्दू समाज ने अपने भीतर एवं बाहर उपासना स्वातंत्र्य की पूर्ण स्वतंत्रता सदैव दी है, आगे भी देगा। केरल के ईसाई शरणारर्थी के रूप में आए, वहां के हिन्दू राजा ने उन्हें शरण दी, बसने के लिए सब प्रकार की सुविधाएं दीं किन्तु क्या उन पर आस्था में परिर्वतन की शर्त लगाई? 7वीं-8वीं शती में अपनी मातृमूमि ईरान पर इस्लामी आक्रमण से आक्रान्त पारसी बंधु स्वधर्म की रक्षा के हेतु स्वदेश त्याग कर भारत की शरण में आए। भारत ने हृदय खोलकर उनका स्वागत किया। इस विशाल हिन्दू जनसंख्या के बीच एक मुट्ठीभर संख्या में वे लोग आज भी अपने धार्मिक विश्वासों का पूर्ण स्वतंत्रता के साथ पालन करते हुए विद्यमान हैं। क्या यह ज्वलंत उदाहरण ही यह सिद्ध करने के लिए पर्याप्त नहीं है कि आस्था परिवर्तन को बलात लादने की बात हिन्दू समाज के मन में आ ही नहीं सकती?
जहां तक भारतीय मुसलमानों का संबंध है, यह एक ऐतिहासिक सत्य है कि यहां के अधिकांश मुसलमान हिन्दुओं के वंशज हैं। बीच के कालखंड में आक्रमणकारियों के आततायी राज्यकाल में बलपूर्वक पकड़े जाने पर अपने प्राण बचाने के लिए अथवा किसी स्वार्थपूर्ति के लिए या किसी धोखे में आकर वे अपना हिन्दुत्व छोड़कर मुस्लिम बन गये। लेकिन उनमें रक्त तो हिन्दुओं का ही है। उन्होंने केवल आस्था बदली थी, पूर्वज तो नहीं बदले थे। अब यदि इन बन्धु-सम्बन्धियों को हम कहें कि अपनी पूर्व परम्परा का स्मरण करो, आततायी लोगों का कालखंड दूर हो गया अत: पृथकता का भाव त्यागो। यदि भगवान की उपासना का इस्लामी ढंग ही तुम्हें भाता है, तो खुशी के करो। किन्तु जैसे वैष्णव हैं, शैव हैं, शाक्त हैं, उसी प्रकार तुम भी इस्लामी उपासना पद्धति के अनुयायी होते हुए भी इस मातृभूमि और उसकी परम्परा के प्रति अनन्य अव्यभिचारी श्रद्धा को लेकर चलो। तो क्या यह आवश्यक नहीं? मेरी दृष्टि में भारतीयकरण या राष्ट्रीयकरण का वही वास्तविक अभिप्राय है।
क्या यह विचित्र बात नहीं कि भारतीय मुसलमान अरबी इतिहास के नामों को अपनाएं, ईरान के ऐतिहासिक पुरुष रुस्तम और सोहराब को अपनाने में संकोच न करें, तुर्किस्तान के महापुरुषों के नाम पर अपने नाम रखें किन्तु अपने भारतीय पूर्वजों जैसे राम, कृष्ण, चन्द्रगुप्त, समुद्रगुप्त और विक्रमादित्य के नामों के प्रति घृणा रखें? आखिर, इंडोनेशिया भी तो एक मुस्लिम देश है किन्तु वहां के मुसलमानों ने अपनी ऐतिहासिक परम्परा, संस्कृति व भाषा से सम्बन्ध विच्छेद नहीं किया। वहां मुस्लिम होते हुए भी सुकर्ण और रत्नादेवी जैसे नाम हो सकते हैं, वहां की विमान सेवा का नाम भगवान विष्णु का वाहन गरुड़ हो सकता है, तो क्या इससे वे मुसलमान नहीं रहे?
मैं तो यहां तक सोचता हूं कि यदि भारतीय मुसलमान हजरत मुहम्मद के उपदेशों को ही उनके ऐतिहासिक संदर्भों में गहराई से समझने का यत्न करें तो वे न केवल उनके अच्छे अनुयायी बन सकेंगे अपितु अच्छे राष्ट्रीय एवं श्रेष्ठ भारतीय भी स्वयं को बना सकेंगे।
कोई पैगम्बर अपने से पहले के पैगंबरों को अस्वीकार नहीं करता। ईसा ने स्वयं कहा I ‘have come to fulfil and not to destroy’
किंतु गुरुजी! भारतीयकरण के विरोधियों का कहना है कि इस सबकी जरूरत ही क्या है, क्योंकि मुसलमानों में भी तो देशभक्त पैदा होते हैं?
होते हैं, मैं कब कहता हूं कि नहीं होते? पर कितने? मुहम्मद करीम छागला हैं, पर छागला जैसे कितने हैं? अशफाकुल्लाह और अब्दुल हमीद ने देश के स्वातंत्र्य के लिए प्राण दिए पर ऐसे नामों को सूची कितनी बड़ी है? एकाध इधर-उधर के अपवाद बताने मात्र से संपूर्ण समाज मातृभूमि का पुजारी है, ऐसा नहीं कहा जा सकता। क्या यह सत्य नहीं कि भारत की वर्तमान सीमाओं के भीतर ही उत्तर प्रदेश एवं अन्य क्षेत्रों के रहने वाले मुसलमानों ने ही मातृभूमि का विभाजन कर पाकिस्तान का निर्माण कराया था? क्या रातों-रात उनका हृदय परिवर्तन हो गया?
अब प्रश्न उपस्थित होता है कि वे सब भारतीय ही हैं और यदि सचमुच भारतीय हैं तो आपस में लड़ाई करने और हर स्थान पर इस प्रकार दंगे-फसाद करने की प्रवृत्ति उनमें क्यों है? क्या कभी किसी ने हिन्दू-पारसी संप्रदायिक दंगों का समाचार सुना? उनके साथ ही दंगे क्यों होते हैं? यही बात क्या इतना समझने के लिए पर्याप्त नहीं कि उनमें कुछ पृथकता का विचार जरूर है। पृथकता कौन सी है? भारतीय परंपरा से समन्वय न बैठा सकने वाला पृथकता का विचार ही उनमें है। इसीलिए संविधान के अंतर्गत सबको समान अधिकार मिलने के बाद भी ‘अल्पसंख्यक’ ‘बहुसंख्यक’ की भाषा बोली जाती है। यदि सब एक राष्ट्र की ही संतान हैं तो अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक का भेद कहां रह जाता है। जब तक यह प्रवृत्ति विद्यमान रहेगी, तब तक उनकी ओर से संघर्ष आदि बंद होने वाले नहीं हैं। इसलिए हमें कहना पड़ता है कि भाई! सबका भारतीयकरण करो।
अभी पिछले दिनों बंगलूर में रोमन कैथोलिकों ने अपनी पूजा-पद्धति का भारतीयकरण करने की योजना बनाई है, उसके बारे में आपका क्या मत है?
पूजा-पद्धति के भारतीयकरण से ज्यादा महत्वपूर्ण है संपूर्ण चर्च का और ईसाई मत प्रचारकों का अपना भारतीयकरण। पूजा-पद्धति का भारतीयकरण तो कन्वर्जन की गति की तीव्र करने के लिए स्ट्रेटेजी भी हो सकती है। पहले भी ऐसा हो चुका है। 16वीं शती में मोबिली नामक एक यूरोपीय मत प्रचारक आया था। उसने ब्राह्मणों का वेश धारण कर लिया था, यज्ञोपवीत भी पहनता था। स्वयं को ख्रिस्ती ब्राह्मण कहता था, ‘ख्रिस्त वेद’ का प्रचार भी करता था। यह सब उसने किया भोले-भाले धर्मनिष्ठ हिन्दुओं को कन्वर्जन के जाल में फांसने के लिए। हो सकता है कि इस नए प्रयास के पीछे भी वहीं चाल हो। आवश्यक तो यह है कि वे विदेशी मत प्रचारकों को आमंत्रित करना बंद करें। विदेशों से आर्थिक सहायता न लें और विदेशी सभ्यता संस्कृति के प्रति अपनी भक्ति समाप्त करें। आखिर भारत में जहां जहां ईसाई मत-प्रचार सफल हुआ है, वहां-वहां पृथकतावादी आंदोलन क्यों खड़े होते हैं? इस प्रश्न का उत्तर उन्हें अपने मन में खोजना होगा।
वे पूछते हैं, क्या हिन्दुओं में देशद्रोही पैदा नहीं होते? क्या हिन्दू समाज में कोई खराबी नहीं? क्या हिन्दू समाज के भारतीयकरण की आवश्यकता नहीं?
हमने कब कहा कि हिन्दुओं में कोई खराबी नहीं है? यदि हिन्दुओं में खराबी न होती तो क्या इस देश को मुट्ठीभर आक्रमणकारी जीत पाते, 1200 वर्षों तक इस देश को पराधीनता के दारुण दुख भोगने पड़ते? इसलिए खराबी अवश्य है। यदि हिन्दू समाज में खराबी न होती तो संघ कार्य को खड़ा करने की, उसके लिए इतना परिश्रम करने की आवश्यकता ही नहीं होती। आखिर संघ के द्वारा हम हिन्दू-हिन्दू के मन में राष्ट्र के प्रति निष्ठा, राष्ट्र के स्थायी स्वरूप का साक्षात्कार, राष्ट्र के लिए नि:स्वार्थ भाव से सर्वस्व समर्पण की भावना जगाने का प्रयास ही तो कर रहे हैं। इस एकमेव सिद्धांत एवं लक्ष्य को पकड़ कर ही तो हम चल रहे हैं। इसलिए व्यक्ति-व्यक्ति को राष्ट्रभाव से संस्कारित करने का भाव लेकर चलने वाले हम लोगों से अधिक कौन हिन्दू समाज के दोषों के प्रति जागरूक है? हमने कब कहा कि हिन्दुओं का भारतीयकरण अथवा राष्ट्रीयकरण नहीं होना चाहिए? हमारा कहना है कि सबका राष्ट्रीकरण करना चाहिए और उसमें भी हिन्दुओं का सबसे पहले होना चाहिए क्योंकि उनकी संख्या सर्वाधिक है और वे ही भारत के राष्ट्रजीवन का मूल आधार है। हंसी तो तब आती है जब अपनी क्षुद्र वोट राजनीति के लिए हिन्दू समाज में भेदों को बढ़ाने वाले और उसे दुर्बल बनाने वाले ही हमें हिन्दू समाज की खराबियों के बारे में उपदेश करें।
क्या आप भारतीयकरण और राष्ट्रीयकरण को समानार्थक मानते हैं? तो फिर आजकल राष्ट्रीयकरण की बात जोरों से करने वाले लोगों के भारतीयकरण का विरोध क्यों करते हैं?
यह वे जानें। मैं तो इतना ही कह सकता हूं कि आजकल शब्दों का मनमाने अर्थों में दुरुपयोग किया जा रहा है। राष्ट्रीयकरण से अभिप्रेत है राष्ट्रीय भावना के संचार की प्रक्रिया, और राष्ट्रीय भावना का जन्म होता है मातृभूमि एवं उसकी ऐतिहासिक परंपरा के प्रति पूर्ण समर्पित अव्यभिचारी निष्ठा में से। भारतभूमि के कण-कण के प्रति अनन्य भक्ति के जागरण को ही ‘भारतीयकरण’ अर्थात ‘राष्ट्रीयकरण’ कहा जा सकता है। यदि मनों का भारतीयकरण अर्थात राष्ट्रीयकरण हो गया तो सब हो गया। किन्तु आजकल व्यक्तिगत संपत्ति एवं उद्योगों के सरकारीकरण को ही राष्ट्रीयकरण कहा जाने लगा है। मनों के राष्ट्रीयकरण के अभाव में केवल दीवारों या मशीनों का सरकारीकरण अधिनायकवाद एवं राज्य के पूंजीवाद को तो जन्म दे सकता है, पर वह राष्ट्रीयकरण कदापि नहीं होगा। राष्ट्रीयकरण का एकमेव आधार है एकनिष्ठ भारतभक्ति और वही सच्चा भारतीयकरण है।
मातृभूमि के प्रति भक्ति भावना को जगाने के लिए क्या तीर्थ यात्रा उपयोगी नहीं है? क्या ऐसे तीर्थों का निर्माण होना आवश्यक नहीं जो उपासना की विविधता के रहते हुए भी सब भारतवासियों के लिए समान रूप से वंदनीय हो सकें?
तीर्थयात्रा का बहुत महत्व है। हिन्दू समाज के मन में भारत भक्ति का जो भाव स्वाभाविक रूप से विद्यमान है, उसके निर्माण में तीर्थयात्रा का भारी योगदान है। किन्तु तीर्थ निर्माण नहीं किये जाते, वे स्वयं निर्माण होते हैं। जब ऐसे दिव्य जीवन अथवा प्रसंग सामने आते हैं जो संपूर्ण समाज के मानस को स्पन्दित करते हों तो उनसे संबंधित स्थल स्वयंमेव वंदनीय एवं तीर्थ बन जाते हैं। आजकल तीर्थ बनाने का जो कृत्रिम प्रयास चल रहा है, उसके फलस्वरूप पुराने तीर्थ भी अपनी गरिमा और पावित्र्य खोते जा रहे हैं। सिंहगढ़ और हल्दीघाटी पिकनिक स्पॉट में परिणत हो गए हैं।
आंध्र के पवित्र तीर्थ श्री शैलम को पर्यटन केन्द्र बनाने के मोह में आधुनिक वासना प्रधान होटलों को वहां छा दिया है। ऋषिकेश के पास एन्टीबॉयटिक फैक्टरी खड़ी कर दी है। उसका सब गंदला पानी तो गंगाजी में गिरता ही है, उस फैक्ट्री के वातावरण ने ऋषिकेश के शांत, अन्तमुर्खी, आध्यात्मिक मनोहारी वातवरण के समूचे गांभीर्य को भी नष्ट कर डाला है। अनजाने में ही क्यों न हो, ऐसे अविवेकपूर्ण कार्यों के द्वारा नए तीर्थ खड़े करना तो दूर, पुराने तीर्थों को ही वे समाप्त करते जा रहे हैं।
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