वेबसाइट का डेटाबेस इतना व्यापक है कि इसे अनेक बड़ी श्रेणियों में बांटा गया है। इसमें तीन हजार से अधिक कवियों का विस्तृत जीवन परिचय और उनकी रचनाएं, उनसे जुड़े तथ्य, उनके बारे में लिखे गए अच्छे लेख आदि भी मिलते हैं।
जिस अंदाज में जीवन के हर क्षेत्र में प्रौद्योगिकी का दखल बढ़ा है, उसे देखते हुए शायद ही कोई व्यक्ति या संस्थान प्रौद्योगिकी से दूर रहने का जोखिम उठा सकता है। अनेक लोगों की दृष्टि में प्रौद्योगिकी, विशेषकर इंटरनेट और सोशल मीडिया एक अभिशाप जैसा है। लेकिन तब भी हमारे पास इससे अछूते बने रहने का विकल्प नहीं है। यह विकल्प सिर्फ उनके पास है जो अपने युग से पीछे रह जाने का जोखिम उठाने को तैयार हैं। हमारी साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्थाएं, अकादमियां और प्रकाशन भी इससे अलग नहीं हैं।
किसी साहित्यिक संस्था का इंटरनेट पर उपस्थित होना उसकी पहुंच तो बढ़ाता ही है, उसकी गतिविधियों को पारदर्शिता भी प्रदान करता है। मौजूदा दौर में, जबकि भौतिक के साथ-साथ वर्चुअल तथा रिमोट माध्यम भी अनिवार्य तथा उपयोगी बन चुके हैं, सूचनाओं और सामग्री के वितरण का यह आसान तथा सुलभ तरीका है। लेकिन बात लोगों तक सूचनाएं पहुंचाने तक सीमित नहीं है।
इंटरनेट एक बहुतरफा माध्यम है और डिजिटल उपकरण (कंप्यूटर, टैबलेट, स्मार्टफोन और अन्य) भी बहुत उन्नत स्तर की गतिविधियां संचालित करने में सक्षम हैं। यदि हमारी साहित्यिक संस्थाएं इनमें निहित संभावनाओं से परिचित हों और रचनात्मक दृष्टि रखती हों तो वे तकनीकी माध्यमों के सामान्य प्रयोग से बहुत आगे बढ़ सकती हैं।
कोविड के दौर में हमने देखा कि किस तरह से वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग एप्लीकेशन, इंटरनेट, लैपटॉप-मोबाइल फोन और उनमें मौजूद डिजिटल कैमरों ने साहित्यिक गतिविधियों को जीवंत बनाए रखने में मदद की। साहित्य के मेले भी होते रहे, गोष्ठियां भी चलती रहीं, कार्यशालाएं भी हुईं, साक्षात्कार भी होते रहे एवं किताबें व पत्रिकाएं भी ‘प्रकाशित’ होकर अपने पाठकों तक पहुंचती रहीं।
कोविड के दौरान हमने वैश्विक दूरियों को पहले से अधिक सिमटते देखा है। आज भारत में संचालित होने वाले कार्यक्रमों में दुनिया के विभिन्न भागों से विद्वानों, साहित्यकारों, विशेषज्ञों आदि की भागीदारी एक सामान्य बात हो गई है। वास्तव में कोविड काल में प्रौद्योगिकी ने उन छोटी संस्थाओं को भी अपने साहित्यिक आयोजनों पर अमल का मौका दिया जो भौतिक आधार पर उन्हें आयोजित करने में मुश्किल महसूस कर रही थीं।
माना कि भौतिक संपर्क और वर्चुअल संपर्क में अंतर है और भौतिक संपर्क की विशेषताएं तथा उपयोगिता बरकरार है। किंतु दूसरी तरफ वर्चुअल माध्यमों की पहुंच का कोई जवाब नहीं। जिन साहित्यिक उत्सवों में भौतिक दौर में चार-पांच हजार तक लोग उपस्थित होते थे, उन्हीं में डिजिटल माध्यमों की बदौलत आठ-दस गुना अधिक लोगों की हिस्सेदारी होने लगी है। यह आपके कार्यक्रमों को अधिक सार्थकता तो प्रदान करता ही है, अन्य दृष्टियों से भी उपयोगी हो जाता है, जैसे कि आर्थिक पक्ष। साहित्य के क्षेत्र में हम एक बड़े पैमाने की कमी महसूस करते रहे हैं लेकिन वर्चुअल तथा डिजिटल माध्यमों के लिए वही पैमाना सामान्य बात है।
कोविड के दौरान हमने वैश्विक दूरियों को पहले से अधिक सिमटते देखा है। आज भारत में संचालित होने वाले कार्यक्रमों में दुनिया के विभिन्न भागों से विद्वानों, साहित्यकारों, विशेषज्ञों आदि की भागीदारी एक सामान्य बात हो गई है। वास्तव में कोविड काल में प्रौद्योगिकी ने उन छोटी संस्थाओं को भी अपने साहित्यिक आयोजनों पर अमल का मौका दिया जो भौतिक आधार पर उन्हें आयोजित करने में मुश्किल महसूस कर रही थीं। इन तकनीकों ने सामग्री का सुरक्षित भंडारण, दस्तावेजीकरण, दूसरे संस्थानों के साथ सहयोग (कोलेबरेशन), नई प्रतिभाओं की पहचान जैसे कई अन्य लाभ भी उपलब्ध कराए हैं।
प्राय: हमारी अकादमियों का प्राय: प्रौद्योगिकी के साथ बहुत गहरा जुड़ाव नहीं है। ऐसी संस्थाएं साहित्य प्रेमियों तथा छोटे संस्थानों द्वारा किए जाने वाले कुछ दिलचस्प और महत्वपूर्ण कार्यों से सीख सकती हैं। अकादमी आॅफ अमेरिकन पोएट्स पोएट्स.आर्ग (poets.org) नामक वेबसाइट का संचालन करती है। इसमें जॉन कीट्स जैसे अंग्रेजी के कालजयी कवियों से लेकर आज के युवा कवियों तक की रचनाओं की झलक मिलती है।
वेबसाइट का डेटाबेस इतना व्यापक है कि इसे अनेक बड़ी श्रेणियों में बांटा गया है। इसमें तीन हजार से अधिक कवियों का विस्तृत जीवन परिचय और उनकी रचनाएं, उनसे जुड़े तथ्य, उनके बारे में लिखे गए अच्छे लेख आदि भी मिलते हैं। पर भारत में अकादमियों की ओर से ऐसी कोई विशेष पहल दिखाई नहीं देती। हां, अनेक अच्छी पहलें निजी स्तर पर या छोटे समूहों के स्तर पर अवश्य की गई हैं। इक्का-दुक्का शैक्षणिक संस्थानों ने भी कुछ परियोजनाएं पेश की हैं जो अलग-अलग स्तर पर हैं। बहरहाल, कोई विशेष प्रोत्साहन न होने के कारण ऐसी परियोजनाएं शुरू होने के कुछ महीने बाद ही धीमी पड़ती देखी गई हैं और इसके लिए उन्हें दोष भी नहीं दिया जा सकता क्योंकि वे यह कार्य स्वांत: सुखाय या एक निजी दायित्वबोध के कारण कर रही हैं, यह उनकी आधिकारिक जिम्मेदारी नहीं है।
(लेखक माइक्रोसॉफ़्ट में निदेशक- भारतीय भाषाएं और
सुगम्यता के पद पर कार्यरत हैं)।
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