अगली पीढ़ी दोनों तरफ से वामपंथियों के हाथ में जा रही है। जहां एक तरफ उन्हें अतिशय स्वतंत्रता का आकर्षण अपनी ओर खींच रहा है, वहीं अतिशय रूढ़िवाद के हाथों वे समस्त बौद्धिक स्वतंत्रता छिनने का भय देख पा रहे हैं।
अर्थशास्त्र का एक बड़ा ही बुनियादी सा नियम है-क्रमागत उपयोगिता ह्रास नियम। सरल शब्दों में इसे ऐसे समझाया गया कि जब आप दुकान पर एक समोसा खाते हैं तो बहुत संतुष्टि मिलती है, पर जब आप एक के बाद दूसरा, तीसरा, चौथा समोसा खाने लगते हैं तो चौथे समोसे से उतनी संतुष्टि नहीं मिलती। अगर आपने बारह या बीस समोसे खाने की शर्त लगा रखी हो तो आपको उसके बाद समोसे से चिढ़ हो जायेगी।
यह सिर्फ अर्थशास्त्र का नियम नहीं है, यह जीवन का सामान्य नियम है। आप अच्छी से अच्छी चीज को उस सीमा पर ले जाकर छोड़ सकते हैं, जहां वह एक बुरी चीज बन जाए। वामपंथी इस नियम का भरपूर प्रयोग करते हैं। उन्होंने जितने भी हथकंडे अपनाए हैं, वे सभी अपने आप में बुरी चीजें नहीं हैं। कोई नहीं कह सकता कि स्त्रियों को समान अधिकार नहीं मिलने चाहिए, उनकी स्थिति में सुधार की गुंजाइश नहीं है। कोई नहीं कह सकता कि मजदूरों को उचित मजदूरी नहीं मिलनी चाहिए। किसी की असहमति नहीं है कि पर्यावरण का ख्याल रखना चाहिए। पर कितना और किस कीमत पर? यहीं समस्या खड़ी हो जाती है।
भारत की सांस्कृतिक शक्ति है परिवार, संस्कार और अनुशासन। व्यक्ति के ऊपर परिवार का अनुशासन, परिवार के ऊपर समाज का। पर क्या इस अनुशासन को भी उस सीमा तक ले जाना संभव है, जहां उसका नकारात्मक प्रभाव पड़ सके?
वामपंथी एक अच्छे विषय को उठाते हैं और उसे उपयोगिता की सीमा से परे ले जाकर वहां खड़ा कर देते हैं, जब वह समस्या बन जाता है। स्त्रियों के अधिकारों को वे परिवार की संरचना के विरुद्ध खड़ा कर देते हैं, मजदूरों के वेतन के विषय को उद्योगों के विरुद्ध और पर्यावरण के प्रश्न को समस्त आर्थिक प्रगति के विरुद्ध।
हर राष्ट्र की अपनी अपनी शक्ति होती है। वामपंथी उसी शक्ति को राष्ट्र के विरुद्ध प्रयोग करते हैं। जब रूस एक औद्योगिक देश था तो उन्होंने मजदूरों को देश के विरुद्ध खड़ा किया और चीन एक कृषि प्रधान देश था तो उन्होंने किसानों को खड़ा किया। जब 1950-60 के दशक में ‘कल्चरल मार्क्सिज्म’ आया तो उन्होंने हर देश की सांस्कृतिक शक्तियों को पहचाना और उस पर हमला किया।
अमेरिका एक ऐसा देश है जो ‘लिबर्टी’ की नींव पर खड़ा है। यह लिबर्टी का उद्घोष उनके स्टेच्यू आफ लिबर्टी और ‘नेशनल एंथम’ में ही नहीं, उसके जन जन के जीवन में रचा-बसा हुआ है। उनका संविधान लगातार ‘लिबर्टी’ को परिभाषित करता है और उसकी रक्षा की बात करता है। तो अमेरिका में वामियों ने इसी लिबर्टी की अवधारणा को हास्यास्पद सीमाओं तक पहुंचा दिया। वे लिबर्टी को वहां तक लेकर गए, जहां उसे समाज और परिवार के विचार के विरुद्ध प्रयुक्त किया जा सके। उन्होंने स्वतंत्रता को स्वेच्छाचार का पर्याय बना डाला।
आज की तारीख में जहां वामपंथ रूढ़िवादिता के विरोध के नाम पर युवाओं के बीच सांस्कृतिक मार्क्सवाद
के रूप में स्वीकार्यता पा रहा है, वहीं उनका सबसे महत्वपूर्ण सहयोगी यही रूढ़िवाद है।
भारत की सांस्कृतिक शक्ति है परिवार, संस्कार और अनुशासन। व्यक्ति के ऊपर परिवार का अनुशासन, परिवार के ऊपर समाज का। पर क्या इस अनुशासन को भी उस सीमा तक ले जाना संभव है, जहां उसका नकारात्मक प्रभाव पड़ सके?
बिल्कुल संभव है। जहां स्वतंत्रता के नाम पर सामाजिक संरचना और अनुशासन को नष्ट किया जा सकता है, वहीं अनुशासन के बहाने से व्यक्ति की बौद्धिक स्वतंत्रता को छीना जा सकता है। यह ले-देकर संतुलन का प्रश्न है। किसी भी निर्णय का सबसे महत्वपूर्ण पहलू यह है कि वह निर्णय कौन ले रहा है और अगर निर्णय वामपंथी व्यक्तियों, विचारधारा या मनोवृत्ति के हाथ में है तो आप आश्वस्त रहें, वे अवश्य इसे अति की सीमा तक ले जायेंगे।
अगली पीढ़ी दोनों तरफ से वामपंथियों के हाथ में जा रही है। जहां एक तरफ उन्हें अतिशय स्वतंत्रता का आकर्षण अपनी ओर खींच रहा है, वहीं अतिशय रूढ़िवाद के हाथों वे समस्त बौद्धिक स्वतंत्रता छिनने का भय देख पा रहे हैं।
आज की तारीख में जहां वामपंथ रूढ़िवादिता के विरोध के नाम पर युवाओं के बीच सांस्कृतिक मार्क्सवाद के रूप में स्वीकार्यता पा रहा है, वहीं उनका सबसे महत्वपूर्ण सहयोगी यही रूढ़िवाद है।
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