अंचल में लगभग 80 प्रतिशत सिंचाई मुख्यत: चंबल नहर से होती है। यहां का भूजलस्तर भी राज्य के अन्य क्षेत्रों से बेहतर है। लेकिन कोटा संभाग के कृषि विभाग के 20 लाख से अधिक मृदा स्वास्थ्य कार्डों की रिपोर्ट ने किसानों के साथ कृषि वैज्ञानिकों की भी चिंता बढ़ा दी है।
हाड़ौती अंचल राजस्थान का अत्यंत उपजाऊ क्षेत्र है। प्रशासनिक दृष्टि से कोटा, बूंदी, बारां और झालावाड़ जिले हाड़ौती अंचल में आते हैं। इस अंचल में लगभग 80 प्रतिशत सिंचाई मुख्यत: चंबल नहर से होती है। यहां का भूजलस्तर भी राज्य के अन्य क्षेत्रों से बेहतर है। लेकिन कोटा संभाग के कृषि विभाग के 20 लाख से अधिक मृदा स्वास्थ्य कार्डों की रिपोर्ट ने किसानों के साथ कृषि वैज्ञानिकों की भी चिंता बढ़ा दी है।
कारण, रिपोर्ट में कहा गया है कि हाड़ौती की जमीन से नाइट्रोजन, फॉस्फोरस, पोटाश समेत अन्य पोषक तत्व मानक स्तर के नीचे पहुंच गए हैं। यही नहीं, मिट्टी में सूक्ष्म पोषक तत्व (माइक्रो न्यूट्रिएंट) भी लगातार कम हो रहे हैं। कुल मिलाकर कृषि विभाग की यह रिपोर्ट एक बड़े पर्यावरणीय एवं पोषण संकट की ओर संकेत करती है।
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मिट्टी में जरूरी पोषक तत्व और सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमी से उत्पादकता कम होने के साथ प्रकृति में नाइट्रोजन चक्र के भी प्रभावित होने की आशंका उत्पन्न हो गई है। देश में कीटनाशकों और रासायनिक उर्वरकों के अंधाधुंध प्रयोग से भूमि की उर्वरा शक्ति धीरे-धीरे समाप्त हो रही है और खाद्यान्न में भी घातक रसायन पहुंचने से कैंसर सहित कई गंभीर बीमारियां हो रही हैं। नाइट्रोजन फसलों की गुणवत्ता और पैदावार बढ़ाने वाले महत्वपूर्ण पोषक तत्वों में से एक है। इसके अलावा, हाड़ौती अंचल में फॉस्फोरस, पोटाश, सल्फर, जिंक, आयरन, कॉपर, मैग्नीज व बोरान भी मध्यम से निम्न स्तर पर पहुंच गए हैं।
यह है स्थिति
हाड़ौती की मिट्टी में 17 में से 14 पोषक तत्व मध्यम से निम्न स्तर पर पहुंच गए हैं। इनमें नाइट्रोजन की मात्रा 99 प्रतिशत, फॉस्फोरस 70-80, पोटाश 10-25, सल्फर 20-25, जिंक 50-70, आयरन 25-50, कॉपर 10-15 और मैंगनीज की 15-20 प्रतिशत है। पौधों व फसलों को अपना जीवन चक्र पूरा करने के लिए 17 आवश्यक पोषक तत्वों की जरूरत होती है, जिसे वे सीधे मिट्टी से अवशोषित करते हैं। ये तत्व फसलों की गुणवत्ता व पैदावार बढ़ाने में सहायक होते हैं।
उम्मेदगंज मृदा विज्ञान अनुसंधान केंद्र के निदेशक डॉ. राजेंद्र यादव के अनुसार, कोटा संभाग में नाइट्रोजन, फॉस्फोरस और सल्फर निम्न स्तर पर है। इसके लिए किसानों को जागरूक किया जा रहा है। किसान अधिक लाभ के लिए रासायनिक उर्वरकों का इस्तेमाल कर रहे हैं। इससे मिट्टी को केवल नाइट्रोजन ही मिलता है, अन्य पोषक तत्व नहीं मिलते। (नाइट्रोजन विहीन का मतलब मिट्टी से नाइट्रोजन का पूरी तरह समाप्त होना नहीं है।)
डॉ. नरेश शर्मा कहते हैं, ‘‘वैज्ञानिकों ने पोषक तत्वों के लिए न्यूनतम मानक तय किए हैं, जो किसी भी पौधे के विकास के लिए आवश्यक होते हैं। जैसे- प्रति हेक्टेयर में नाइट्रोजन की मात्रा 280 कि.ग्रा. होनी चाहिए। लेकिन संभाग के अधिकांश क्षेत्रों में नाइट्रोजन की मात्रा 280 किग्रा/हेक्टेयर से कम है। प्रति हेक्टेयर 280-560 किग्रा नाइट्रोजन को मध्यम तथा प्रति हेक्टेयर 560 किग्रा से अधिक नाइट्रोजन की मात्रा को उच्च माना गया है।’’
मिट्टी में नाइट्रोजन सहित अन्य पोषक तत्वों की कमी की समस्या सिर्फ हाड़ौती की नहीं, बल्कि देश के अधिकांश क्षेत्रों की है। श्रीरामशान्ताय जैविक कृषि अनुसंधान एवं प्रशिक्षण केंद्र (कोटा) के मुख्य वैज्ञानिक डॉ. पवन के टाक बताते हैं, ‘‘1980 के आसपास दो कृषि वैज्ञानिकों हसन और घोष ने 10 साल में स्थापित 250 मिट्टी जांच प्रयोगशालाओं का आकलन और अध्ययन किया। इसमें उन्होंने पाया कि देश के 365 में से 228 जिलों की मिट्टी में नाइट्रोजन कम थी। शेष जिलों में से 119 जिलों की मिट्टी में नाइट्रोजन स्तर मध्यम और केवल 18 जिलों की मिट्टी में इसका स्तर सामान्य था। यानी उस समय देश के 62.5 प्रतिशत जिलों में नाइट्रोजन की कमी थी। उसके बाद तो निरंतर उत्पादन लिया ही जा रहा है।’’
फसल की वृद्धि के लिए जिन 17 तत्वों को जरूरी माना गया है, उनमें कार्बन, हाइड्रोजन, आक्सीजन, नाइट्रोजन, फॉस्फोरस, पोटेशियम, कैल्शियम, मैंगनीशियम, सल्फर, आयरन, मैंगनीज, जिंक, कॉपर, बोरान, मोसलब्डेनम, क्लोरीन और निकेल शामिल हैं।
नाइट्रोजन : यह फसलों का उत्पादन, गुणवत्ता बढ़ाने के साथ पौधों को हरा रखता है। इसकी कमी से उत्पादन और गुणवत्ता घटती है यानी प्रोटीन कम बनता है। खाद्यान्न में प्रोटीन की कमी से मनुष्य का शारीरिक विकास प्रभावित होता है।
फॉस्फोरस-कैल्शियम : ये पौधों को ऊर्जा प्रदान करते हैं, जिससे उनकी जड़ें मजबूत होती हैं, जो उन्हें सूखने से बचाते हैं। ये दालों में पोषक तत्व का निर्माण करते हैं। इनकी कमी से कम पानी में फसलों का उत्पादन प्रभावित होगा। साथ ही, मनुष्य में हड्डियों व दांतों का विकास प्रभावित होगा। इनकी अत्यधिक कमी से विकृति भी हो सकती है।
बोरोन : यह परागण व परागनली में सहायक होता है। फसलों में जितने अधिक परागकण बनेंगे, उतनी ही शर्करा यानी कार्बोहाइड्रेट को पत्तियों से फल व बीज में स्थानांतरित करने में सहायता मिलेगी। इसकी कमी से फूलों में निषेचन की क्रिया बाधित हो जाती है। अधपके फल व फलियां गिरने लगती हैं। फूल व बीज कम बनते हैं तथा पौधे के तने और पत्तियों के डंठल पर दरारें पड़ जाती हैं।
जिंक : पौधों में विभिन्न एन्जाइम की सक्रियता बढ़ाता है और आक्सीन हार्मोन का निर्माण करता है। यानी पौधों के विकास में सहायक होता है। इसकी कमी से पौधे बौने हो जाते हैं। दाना व बाली का आकार छोटा हो जाएगा, जिससे उत्पादन में कमी आएगी। इसकी कमी से इनसान की लंबाई और शारीरिक वृद्धि कम होगी।
पोटाश : पौधों को कीटों-रोगों व सूखने से बचाने के साथ उन्हें मजबूती प्रदान करता है। इसकी कमी से फसलों में कीट प्रकोप बढ़ेगा। पौधों में भोजन निर्माण कम हो जाएगा। पोटाश की कमी से शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता घटती है और हृदय पर भी हानिकारक प्रभाव पड़ता है। इस कारण मौसम में मामूली बदलाव होने पर भी व्यक्ति बीमार पड़ जाता है।
क्या है समाधान?
रसायनों के प्रयोग से मिट्टी में नाइट्रोजन को नाइट्रेट में बदलने वाले लाभदायक सूक्ष्म जीवाणु कम हो रहे हैं। इससे भौतिक, रासायनिक व जैविक संरचना में बदलाव हो रहा है। इसके अलावा, जलमग्न कृषि व्यवस्था, अपशिष्ट का उचित निपटान नहीं होना भी प्रमुख कारक हैं। डॉ. पवन के टाक के अनुसार, भौतिक संरचना में गिरावट से मिट्टी में वातन-आर्द्रता असंतुलित हो जाती है। रासायनिक संरचना बदलने से मिट्टी का पीएच बदल जाता है, जबकि जैविक संरचना के गिरावट से सूक्ष्म जीवाणुओं की गतिविधि शून्य पर आ जाती है। इसके चलते रासायनिक परिवर्तन भी न्यून हो जाता है। परिणामस्वरूप मिट्टी में पोषक तत्वों की कमी हो जाती है।
इसका समाधान परंपरागत भारतीय कृषि पद्धति में है। इसके लिए सबसे पहले रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग कम कर जैविक खाद को बढ़ावा देना होगा।
डॉ. पवन के अनुसार, उर्वरक या कंपोस्ट खाद का उपयोग किए बिना केवल सूक्ष्म जीवाणुओं द्वारा महज 25 दिनों में प्रति एकड़ 25 किग्रा से अधिक नाइट्रोजन की वृद्धि की जा सकती है। इसके अलावा, गोमूत्र (एक प्रतिशत से अधिक नाइट्रोजन), सहजन जूस (चार प्रतिशत नाइट्रोजन), गाजर घास (तीन प्रतिशत नाइट्रोजन), सोयाबीन टॉनिक, वर्मी वाश आदि का उपयोग भी फसल में प्रभावी होता है।
हाल ही में नाइट्रोजन की कमी वाले 50 गांवों के खेतों में केवल गोमूत्र और चूने के उपयोग से 5 दिन में ही आशातीत परिणाम मिले हैं। फॉस्फोरस की कमी को पूरा करने के लिए 7 दिन तक गाय के ताजा गोबर (30 किलो प्रति बीघा) का प्रयोग कराया जाता है। गाय के गोबर में मौजूद फंगस खेती के लिए लाभकारी होते हैं। खरपतवार, घास और अन्य कृषि अपशिष्टों के उपयोग से भी सूक्ष्म तत्वों की पूर्ति की जा सकती है।’’
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