जो लोग असम में 10-11 वर्ष की लड़कियों को किशोरी मानते हुए शादी कराने वाले बाल-यौन अपराधियों के विरुद्ध कार्रवाई पर चिंता जता रहे हैं या थानों का घेराव कर रहे हैं, वे वास्तव में क्या कर रहे हैं? वास्तव में वे इन बच्चियों के स्वास्थ्य, शिक्षा, जीवन और उभविष्य को दरकिनार कर उन लड़कों और पुरुषों की तरफदारी कर रहे हैं, जिन्हें इन बच्चियों का पति बताकर पेश किया जा रहा है।
असम के मुख्यमंत्री का बाल विवाह खत्म करने का संकल्प और असम पुलिस द्वारा उठाए गए कदम निश्चित रूप से प्रशंसनीय हैं। आप कल्पना करें उन लाखों बच्चियों की मन:स्थिति की, जिनके मन में यह भय हमेशा बना रहता था कि उनके माता-पिता उनकी कम उम्र में शादी कर देंगे। अब वे बच्चियां असम पुलिस को कितनी दुआएं दे रही होगीं। इस मुहिम के खिलाफ पुलिस थानों का घेराव नाबालिग बच्चियों से विवाह करके उन्हें शिक्षा और स्वतंत्रता से वंचित कर अपने शोषणकारी संबंधों को बनाए रखने को उचित ठहराने जैसी कोशिश है। इस स्थिति को कुछ कानूनी उलझनों ने और जटिल बनाया है। कानून के जानकारों की राय है कि बाल विवाह निषेध (संशोधन) अधिनियम, 2006 न केवल अप्रभावी है, बल्कि कई मामलों में बाल विवाह निषेध को जटिल बनाता है।
जैसे- सर्वप्रथम, यह बाल विवाह को तो प्रतिबंधित करता है, पर विवाह की स्थिति को मान्य रखता है।
दूसरा, इसमें विवाहों के विलोपन का प्रावधान है और कुछ परिस्थितियों में शून्य घोषित करता है।
तीसरा, यह वर-वधू को क्रमश: 21 वर्ष और 18 वर्ष की आयु तक के बच्चे के रूप में परिभाषित करता है। चौथा, वर अगर वयस्क (18 वर्ष से अधिक आयु) लेकिन एक बच्चा (21 वर्ष तक परिभाषित) है, तो उस पर एक नाबलिग लड़की से शादी करने के लिए मुकदमा चलाया जा सकता है। महत्वपूर्ण बात यह है कि बाल विवाह निषेध अधिनियम, 2006 यौन संबंधों और सहमति की आयु पर कुछ नहीं कहता।
असम के मुख्यमंत्री का बाल विवाह खत्म करने का संकल्प और असम पुलिस द्वारा उठाए गए कदम निश्चित रूप से प्रशंसनीय हैं। अब वे बच्चियां असम पुलिस को कितनी दुआएं दे रही होगीं। इस मुहिम के खिलाफ पुलिस थानों का घेराव नाबालिग बच्चियों से विवाह करके उन्हें शिक्षा और स्वतंत्रता से वंचित कर अपने शोषणकारी संबंधों को बनाए रखने को उचित ठहराने जैसी कोशिश है।
राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5 के नवीनतम आंकड़ों के अनुसार, वर्ष 2020-21 में 23.3 प्रतिशत बाल विवाह हुए। बच्चों के विरुद्ध अपराधों को बेशर्मी से सामाजिक-धार्मिक मुद्दे के रूप में प्रस्तुत किया जाता है, फिर तर्क दिया जाता है कि मामला बच्चों से जुड़ा हुआ है, इसलिए इस पर नरमी बरती जाए। पीड़िता के रूप में बालिका की हर चीख-पुकार को न्यायसंगत ठहराने के लिए हमेशा दादी-नानी की कहानियां सुना दी जाती हैं कि उनका विवाह तो 11-12 वर्ष में हो गया था और वे खुशहाल जीवन जी रही थीं।
इसी तरह, कुछ कानूनी प्रावधानों में यदि दुलहन की आयु 15 वर्ष से अधिक है तो पति द्वारा उसके साथ यौन संबंधों की अनुमति मानी गई थी, जो अन्यथा बलात्कार की श्रेणी में आता है। 11 अक्तूबर, 2017 को सर्वोच्च न्यायालय ने एक ऐतिहासिक निर्णय में नाबलिग पत्नी के साथ सेक्स को बलात्कार घोषित किया है। राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (एनसीपीसीआर) और राज्य आयोगों को पॉक्सो, 2012 और जे जे अधिनियम, 2015 के तहत कार्यान्वयन की कमी को समाप्त करने के लिए निगरानी भूमिका सौंपी गई है।
लेकिन इस बीच विभिन्न उच्च न्यायालयों द्वारा दिए विरोधाभासी निर्णयों के कारण पुलिस द्वारा मामले दर्ज करने पर असर पड़ा है। जावेद बनाम हरियाणा राज्य और अन्य के मामले में पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय के निर्णय में कहा गया है कि मुस्लिम पर्सनल लॉ के अनुसार 15 वर्ष की मुस्लिम लड़की कानूनी और वैध विवाह कर सकती है। एनसीपीसीआर बनाम गुलाम दीन के मामले में, एनसीपीसीआर ने इसे सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी है। सर्वोच्च न्यायालय की बेंच ने 13 जनवरी, 2023 को आदेश दिया है कि पूर्ण निर्णय होने तक उच्च न्यायालय के विवादित निर्णय को किसी अन्य मामले में पर उदाहरण के रूप में नहीं लिया जाना चाहिए।
हाल ही में, एनसीपीसीआर को असम में कुछ ऐसे एग्रीमेंट मिले हैं, जिनमें नोटरी द्वारा बच्चों के शरीर के अनुसार उन्हें बालिग प्रमाणित कर के विवाह कराने की बात सामने आई है। आयोग के आग्रह पर असम सरकार इस पर कार्यवाही कर रही है। आयोग का मानना है कि देश की अन्य राज्य सरकारों को भी असम का अनुसरण करना चाहिए। ‘बेटी बचाओ- बेटी पढ़ाओ’ का नारा साकार करने की यह अनिवार्य शर्त है।
(लेखक राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग के अध्यक्ष हैं)
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