पिछले अंक में हमने वैज्ञानिक मानस की बात की थी और यह भी चर्चा की थी कि भारतीय ज्ञान परंपरा में उसका महत्वपूर्ण स्थान रहा है। यह पश्चिम में बाद में आई अवधारणात्मक वैज्ञानिक पद्धति (साइंटिफिक मैथड) से भी जुड़ता है जिसके पांच स्तंभ या चरण माने जाते हैं।
पहला है-निरीक्षण करना या आब्जर्व करना। जैसे मेरा वाहन चालू नहीं हो रहा। इस बीच कोई व्यक्ति टिप्पणी करता है कि आपका वाहन पुराना हो चुका है और अब वह नहीं चलेगा। किंतु मैं उसकी बात को अनदेखा करता हूं।
दूसरा है-प्रश्न करना। आखिर क्यों मेरा वाहन चालू नहीं हो रहा?
तीसरा चरण है– एक धारणा प्रस्तावित करना यानी कि हाइपोथीसिस- शायद वाहन में ईंधन नहीं है या फिर बैटरी काम नहीं कर रही या फिर उसकी इग्निशन प्रणाली में कोई समस्या है।
चौथा चरण है- अनुमान लगाना यानी प्रेडिक्शन। संभवत: मैं कहीं से पेट्रोल मंगवाकर वाहन में डालकर देखूंगा तो यह चालू हो जाएगा।
पांचवां चरण है- अनुमान की जांच करना यानी कि सचमुच पेट्रोल मंगवाकर वाहन में डालना और उसे चालू करने का प्रयास करना। इस प्रक्रिया में संबंधित व्यक्ति ने इस तथ्य को स्वीकार भर नहीं कर लिया कि वाहन नहीं चल रहा है।
उसने किसी अन्य व्यक्ति के कथन पर भी आंख मूंदकर विश्वास नहीं किया। उसने समस्या को सभी कोणों से देखा, परखा और उसका समाधान किया। ऐसा समाधान जिसे ऐसी परिस्थितियों में आगे भी दोहराया जा सकता है। यही प्रवृत्ति अन्वेषण को जन्म देती है और इसी से नवाचार पैदा होता है। यदि यह प्रवृत्ति व्यापक पैमाने पर समाज में निहित हो तो निजी से लेकर सामाजिक स्तर तक बड़ा परिवर्तन आ सकता है।
आज भी अरब तथा खाड़ी देशों में बुर्केके मुद्दे पर जो हो रहा है, वह यह दिखाता है कि कितने ही समाजों में लोगों को सवाल उठाने की स्वतंत्रता नहीं है। पर हमारी स्थिति अलग रही है। भारतीय समाज में सवाल पूछने की आजादी और प्रवृत्ति कोई अपरिचित चीज नहीं है। प्राचीन काल में भी इसके दिलचस्प उदाहरण मिलते हैं। ‘महासुभाषितसंग्रह’ में मां पार्वती की तरफ से भगवान शिव से किए गए सवालों तथा तर्कों कोदेखिए। प्रसंग है कि शिव आकर द्वार पर दस्तक देते हैं और भीतर मौजूद पार्वती विनोद की मन:स्थिति में हैं।
आज भी अरब तथा खाड़ी देशों में बुर्केके मुद्दे पर जो हो रहा है, वह यह दिखाता है कि कितने ही समाजों में लोगों को सवाल उठाने की स्वतंत्रता नहीं है। पर हमारी स्थिति अलग रही है। भारतीय समाज में सवाल पूछने की आजादी और प्रवृत्ति कोई अपरिचित चीज नहीं है। प्राचीन काल में भी इसके दिलचस्प उदाहरण मिलते हैं।
कस्त्वं? शूली, मृगय भिषजं, नीलकण्ठ: प्रियेरहम्,
केकामेकां वद, पशुपति: नैव दृश्ये विषाणे।
मुग्धे! स्थाणु:, स चरति कथं? जीवितेश: शिवाया:,
गच्छाटव्यामिति हतवचा पातु वश्चन्द्र्रचूड़:।।
अर्थात्-शंकर जी ने अपने घर का द्वार खोलने हेतु आवाज दी। पार्वती जी ने पूछा-कौन? शंकर जी ने कहा मैं शूली (त्रिशूलधारी) हूं। पार्वती जी ने कहा-शूली (शूल रोग से पीड़ित) हैं तो वैद्य को खोजिए। 1/2 शंकर जी ने कहा- प्रिये! मैं नीलकंठ हूं। पार्वती जी ने कहा-नीलकंठ (मयूर अर्थ में) हैं तो एक बार केका-ध्वनि कीजिए। शंकर जी ने कहा-मैं पशुपति हूं।
पार्वती जी ने कहा – पशुपति (बैल) हैं? आपके तो श्रृंग (सींग) दिखाई नहीं देते? शंकर जी ने कहा-मुग्धे! मैं स्थाणु हूं। पार्वती जी ने कहा-स्थाणु (सूखा, ठूंठ वृक्ष) हैं तो चल कैसे रहे हैं? शंकर जी ने कहा – मैं शिवा (पार्वती) पति हूं। पार्वती जी कहीं-आप शिवा (लोमड़ी) के पति हैं तो जंगल में जाइए। इस प्रकार शिव-शक्ति की विनोद वार्ता में शिव निरुत्तर हो जाते हैं।
हालांकि यह संस्कृत ग्रंथों में उल्लिखित एक विनोदपूर्ण संवाद भर है किंतु इससे यह संकेत मिलता है कि प्रश्न करना तथा तर्कशीलता पर आधुनिक समाज का एकाधिकार नहीं है। अस्तु….
हमारे धर्मग्रंथों में गणित, चिकित्सा शास्त्र, ज्यामिति, त्रिकोणमिति, रसायन शास्त्र आदि से जुड़ी अवधारणाओं का उल्लेख होना भी संकेत देता है कि जिस कालखंड में इन्हें लिखा गया, तब समाज में या कम से कम समाज के एक वर्ग में वैज्ञानिक मानस मौजूद था। आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय द्वारा प्रकाशित पुस्तक ‘सेक्युलेरिटी एंड साइंस- ह्वाट साइंटिस्ट्स अराउंड व वर्ल्ड रियली थिंक आफ रिलिजन’ में भारतीय विज्ञान और धर्म के अंतर्संबंधों की चर्चा करते हुए कहा गया है- हालांकि अधिकांश वैज्ञानिक धर्म और विज्ञान को अलग-अलग क्षेत्र मानते हैं किंतु भारतीय समाज में धर्म सर्वत्र व्याप्त है और उसका प्रभाव वैज्ञानिक सस्थानों तक पर है। यह अकारण नहीं है क्योंकि भारत में दोनों का संबंध पारस्परिक तथा अटूट रहा है।
(लेखक माइक्रोसॉफ़्ट में निदेशक-भारतीय भाषाएं और
सुगम्यता के पद पर कार्यरत हैं।)
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