भारत और नेपाल पड़ोसी देश हैं। ये दोनों देश भौगोलिक रूप से एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। दोनों के मध्य संबंध अत्यंत प्राचीन एवं प्रगाढ़ है। शताब्दियों से आर्थिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक क्षेत्र में तो रहा ही है बल्कि इससे कहीं बढ़कर यह संबंध रोटी-बेटी का भी रहा है। अयोध्या के राजकुमार श्रीरामचंद्र जी का विवाह जनकपुर की राजकुमारी सीता जी से हुआ, यह एक ऐतिहासिक सत्य है। हालांकि पिछले दो दशकों में भारत-नेपाल संबंधों में उतार-चढ़ाव देखने को मिला है। साम्राज्यवादी एवं विस्तारवादी चीन के द्वारा भारत के पड़ोसी देशों को अपने प्रभाव में लेने के लिए हर संभव प्रयास किया गया है। इसी कड़ी में चीन लगातार नेपाल के आंतरिक गतिविधियों में हस्तक्षेप कर रहा है। आर्थिक, सैन्य एवं राजनीतिक सहायता के बहाने वह भारत-नेपाल संबंधों में दरार डालना चाहता है। पिछले वर्ष नेपाल में हुए संसदीय चुनाव में किसी भी दल को पूर्व बहुमत न मिलने के कारण वहां मिली-जुली सरकार का गठन किया गया जिसको अप्रत्यक्ष तौर पर चीन द्वारा प्रभावित करने का प्रयास किया जा रहा है।
पूर्व में हिन्दू राष्ट्र होने के कारण भी नेपाल सांस्कृतिक और आध्यात्मिक रूप से भारत से अत्यंत घनिष्ठ रहा है। भारत के बिहार प्रांत का मिथिलांचल क्षेत्र और उसकी संस्कृति का फैलाव नेपाल तक है। नेपाल में नेपाली के अतिरिक्त दूसरी आधिकारिक भाषा के रूप में मैथिली को भी स्वीकृति है। पौराणिक कथाओं के अनुसार मिथिला के राजा जनक की पुत्री सीता का जन्म उत्तरी बिहार के सीतामढ़ी जिले में हुआ था, जो वर्तमान में एक पूजनीय स्थल के रूप में प्रसिद्द है। उस समय मिथिला की राजधानी जनकपुर थी, जो वर्तमान में नेपाल का हिस्सा है। भारत-नेपाल की पारस्परिक निर्भरता का अनुमान इस बात से भी लगाया जा सकता है कि भारतीय सेना के गोरखा रेजिमेंट में 60 प्रतिशत से अधिक नेपाली युवकों की भर्ती की जाती है। भारतीय सेना में गोरखा रेजिमेंट के योगदान और बलिदान का स्वर्णिम इतिहास रहा है। परंतु हाल के वर्षों में नेपाल की कम्युनिस्ट सरकारों ने भारत विरोधी गतिविधियों को हवा दिया जो स्पष्टतः चीन की धूर्तता का परिणाम प्रतीत होता है। नेपाल द्वारा कालापानी और लिपुलेक पर किये जाने वाले दावो द्वारा भी भारत और नेपाल के संबंधों में दूरियां पैदा करने का असफल प्रयास किया गया।
इन उतार-चढ़ाव वाले संबंधों और चीन की चालाकी एवं पैंतरेबाजी के मध्य भारत-नेपाल सम्बन्ध भौगोलिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक क्षेत्रो में लगातार बने हुए हैं। सांस्कृतिक सम्बंध श्रीराम-सीता के समय से ही विद्यमान हैं जो आज के संबंधों में आने वाली कड़वाहट को दरकिनार करने में सहायक सिद्ध हो रहे हैं। श्रीराम-सीता दोनों देशों की साझा सामूहिक धरोहर और आस्था के मुख्य केंद्र बिंदु हैं। अयोध्या से जनकपुर तक की तीर्थ यात्रा की परिधि भारत-नेपाल संबंध के बिना संभव नहीं है। वर्तमान समय में जब अयोध्या में भव्य श्रीराम मंदिर का निर्माण कार्य जोरों से चल रहा है तो नेपाल के संत-महात्मा एवं आमजन इसमें लगातार योगदान देने के लिए बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रहे हैं। श्रीराम मंदिर ट्रस्ट और नेपाल के संत समाज के सामूहिक विचार से अयोध्या मंदिर के लिए मूर्तियों का निर्माण नेपाल की पवित्र काली गंडकी नदी से प्राप्त दुर्लभ शालिग्राम शिला से किया जाएगा। ये शिलायें पोखरा से 85 किलोमीटर ऊपर से लाई गई हैं। इन शिलाओं का भारत में भेजने का प्रस्ताव नेपाल के जानकी मंदिर के महंतों द्वारा नेपाल की सरकार को भेजी गई थी। अयोध्या भेजने से पहले इन शिलाओं को जनकपुर स्थित जानकी मंदिर में रखा गया और विधिवत पूजा-अर्चना के पश्चात हर्षोल्लास के साथ श्रीराम मंदिर के लिए विदा किया गया। पूरे नेपाल एवं भारत मे सड़क मार्ग से कुल 40 टन की इन दो शिलाओं ने लगभग 450 किलोमीटर की दूरी तय की। इस दौरान जगह-जगह जनमानस ने आदर, श्रद्धा और विश्वास के साथ श्रीराम मंदिर में प्रयुक्त होने वाली इन अनमोल धरोहरों का अपने गृह क्षेत्रों में स्वागत किया एवं इनकी पूजा-अर्चना कर उनको गंतव्य के लिए विदा करते रहे। एक अनुमान के मुताबिक ये शालिग्राम शिलाये लगभग 6 करोड़ वर्ष पुरानी हैं।
नेपाल के संत समाज, जनमानस एवं सरकार द्वारा भेजी गई ये शालिग्राम शिलायें भारत और नेपाल मैत्री सम्बंधों में मील का पत्थर साबित होंगी। लगभग 500 वर्ष बाद अयोध्या के श्रीराम मंदिर निर्माण में नेपाल के लोगों एवं सरकार का यह योगदान भारत-नेपाल सम्बंधों को न सिर्फ मज़बूत करेगा बल्कि हमेशा के लिए दोनों देशों की आस्था, समरसता, एकरूपता और पारस्परिक निर्भरता को भी प्रकट करता रहेगा। यह शालिग्राम शिलायें प्रचीन सम्बंधों को वर्तमान काल और परिस्थिति में न केवल तरोताज़ा करती रहेंगी बल्कि निश्चित रूप से भारत-नेपाल सम्बंधों में सांस्कृतिक सेतु के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करेगी।
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