सर्वविदित तथ्य है कि 1963 में तत्कालीन नेहरू सरकार के विशेष अनुरोध पर रा.स्व.संघ का जत्था गणतंत्र दिवस परेड में शामिल हुआ था। 1962 में चीन के साथ हुए युद्ध (जो चीन के प्रति नेहरू के मोह और लापरवाही के कारण भारत हार गया था) में संघ के नि:स्वार्थ सहयोग से अभिभूत होकर स्वयं पं. नेहरू ने संघ अधिकारियों से परेड में स्वयंसेवकों की टोली भेजने का अनुरोध किया था। पूर्ण गणवेश में जब स्वयंसेवक कदमताल करते हुए राजपथ से गुजरे तो जनता ने दिल खोलकर तालियां बजाईथीं। उस परेड में हिस्सा ले चुके पठेला जी से सीधे तथ्यों का यह खुलासा उस सेकुलर पत्रिका के मुंह पर तमाचा है जिसने हाल ही में एक लेख छापकर यह झूठ फैलाने की कोशिश की कि संघ के स्वयंसेवक बिना बुलाए परेड में जा पहुंचे थे। वह सारा परिदृश्य संघ के वरिष्ठ स्वयंसेवक 93 वर्षीय श्री कृष्ण लाल पठेला जी को आज भी हू-ब-हू याद है। उन्हें याद है कि ’62 के युद्ध के दौरान उन्होंने नई दिल्ली में पंचकुइयां रोड पर ट्रैफिक को सुचारु रखने की ड्यूटी संभाली थी।
पाञ्चजन्य के सहयोगी संपादक आलोक गोस्वामी ने कृष्ण लाल पठेला जी से 1947 के बंटवारे, ’62 के युद्धकाल, ’63 की गणतंत्र दिवस परेड और रा.स्व.संघ व भारतीय मजदूर संघ से जुड़े उनके अनुभवों पर विस्तृत बातचीत की। प्रस्तुत हैं उसी वार्ता के प्रमुख अंश
आपने बताया कि आपका जन्म पंजाब के फिरोजपुर में 1930 में हुआ। क्या फिर लंबे काल तक वहीं रहे या कहीं और जा बसे?
जन्म फिरोजपुर में हुआ लेकिन बाद में हम लोग मुक्तसर में फाजिल्का तहसील में आ गए थे। यहां आठवीं पास दर्जी का काम करने वाले एक स्वयंसेवक ने संघ की शाखा शुरू की। यहीं मैंने शाखा में जाना शुरू किया था। शायद 7-8 साल का था तब। कुछ साल बाद मेरे बड़े भाई दिल्ली में रेलवे में पार्सल क्लर्कबन गए थे। मेरी 14-15 की उम्र थी तब। इस बीच बंटवारे का शोर सुनाई देने लगा था। तब घर वालों ने मुझे दिल्ली जाकर भाई के साथ रहने और उसकी देखभाल करने को कहा। मैं दिल्ली के लिए निकल पड़ा। फिर वहां भाई से मिला और हम दिल्ली में रहने लगे। आजादी मिलने से ठीक पहले का दौर था वह।
पढ़ाई-लिखाई का क्या रहा?
उस समय पढ़ाई-लिखाई की कोई सुविधा नहीं थी। मेरे पिताजी बहुत चाहते थे कि बच्चे पढ़ें, क्योंकि वे खुद अनपढ़ थे। फिर मैंने मामा के घर में रहकर वहीं एक प्राइवेट स्कूल से विस्थापित होने के प्रमाण पत्र के आधार पर 9वीं कक्षा में दाखिला लिया। इसके बाद दिल्ली विश्वविद्यालय में दाखिला लेना चाहा, परंतु वहां पर दाखिला नहीं मिला। पर, बाद में मैंने स्नातक तक की पढ़ाई पूरी की।
इस दौरान भी क्या संघ की शाखा में जाना हुआ?
हां, बिल्कुल। संघ के शिविर भी किए। प्रथम व द्वितीय वर्ष का शिक्षण हुआ। मुझे याद है, हमारा शिविर फगवाड़ा में एक पुलिस छावनी में लगा था। उस समय पाकिस्तान बनने की लगभग तैयारी हो चुकी थी। लेकिन एक दिन हमसे शिविर में ही कहा गया कि जिसके माता-पिता जहां भी रहते हैं, वह वहां फौरन पहुंच जाए, क्योंकि पता नहीं आपका इलाका पाकिस्तान में जाएगा या भारत में रहेगा। मैं भी घर लौट गया था।
जिस समय पूरे देश ने विभाजन की विभीषिका झेली, उस समय आपकी उम्र करीब 17 वर्ष थी। उस समय माहौल कैसा था?
उस समय रावलपिंडी वगैरह स्थानों पर हिन्दू बहुत बड़ी संख्या में मारे गये थे। हमने अपनी आंखों से वहां की नहरों में लाशें तैरती देखी थीं। उस समय हम जिस छात्रावास में रहते थे उसमें 89 हिन्दू और 12 मुसलमान छात्र थे। तब मुसलमान छात्रों ने सबको धमक दिखाई हुई थी। मैंने वहां के प्रधानाचार्य से संघ की शाखा लगाने की अनुमति मांगी और उन्होंने हमें अनुमति दे दी। मैंने शाखा लगाई, पहले ही दिन वहां रहने वाले सभी 89 हिन्दू छात्र शाखा में आये। इसके बाद तो कट्टरमुसलमानों का धमकाना बंद हो गया। हम हिन्दू घरों में लाठी वगैरह रखते थे। तीन लोग सारी रात पूरी तैयारी के साथ छत पर पहरा देते थे। हमारी ऐसी ताकत देखकर मजहबी उन्मादी उस इलाके को छोड़कर भाग गये।
बंटवारे के दौरान दिल्ली में स्वयंसेवकों की व्यवस्था की दृष्टि से जगह-जगह ड्यूटी लगाई गई थी। क्या आपने भी ऐसी कोई जिम्मेदारी निभाई थी?
बाहर से जो विस्थापित दिल्ली आ रहे थे उन्हें रेलगाड़ी से उतारने के बाद शिविर में पहुंचाने का दायित्व मुझे मिला था। मेरी ड्यूटी सराय रोहिल्ला रेलवे स्टेशन पर लगी थी। वहां से विस्थापितों को लेकर करोल बाग के अजमल खां पार्क में लगे शिविर तक पहुंचाने का काम था। फिर कुछ दिन बाद किसी और जगह की ड्यूटी लगा दी जाती थी। मुझे याद है, उस समय संघ के स्वयंसेवक कंवर लाल गुप्ता जी ने भी बहुत काम किया था।
बताते हैं, कई ट्रेन लाशों से पटी आती थीं। उसके बारे में कुछ बताएं?
लाहौर से जो गाड़ियां अमृतसर पहुंचती थीं, उनमें सब डिब्बे लाशों से पटे रहते थे। अमृतसर पहुंचने वाली गाड़ियों के लाशों से भरे डिब्बों के बाहर लिखा मिलता था-‘‘देख लो, कत्ल यूं किया जाता है’’।
चीन से हुए 1962 के युद्ध में संघ स्वयंसेवकों की व्यवस्था में ड्यूटी लगी थी। उसके बारे में बताएं?
उस समय चीनी सेना हमारी तरफ बढ़ी चली आ रही थी। भय होता था कि न जाने चीनी फौज भारत में कितनी अंदर तक आ जाएगी। उस स्थिति को देखते हुए संघ के स्वयंसेवक भी चिंतित थे। तब सरकार की ओर से स्वयंसेवकों से रिज क्षेत्र की निगरानी करने और पैराशूट से चीनी सैनिकों को शहर में न उतरने देने का अनुरोध किया गया था। लेकिन इस काम में सामरिक प्रशिक्षण होना जरूरी था, इसलिए स्वयंसेवकों ने कहा कि हमें कोई और पुलिस वाली डयूटी दे दें तो हम वह संभालकर पुलिस और सेना को इस काम से छुट्टी दिला देंगे। फिर वे लोग पैराशूट से उतरने वाले चीनियों से निपट सकते हैं। ऐसा ही हुआ। हमें दिल्ली क्षेत्र की चौकसी और यातायात को संभालने का काम मिला। दिलचस्प बात है कि मदद कांग्रेस सेवा दल से भी मांगी गई थी लेकिन उसने साफ मना कर दिया था। मुझे याद है कि मैं खुद पंचकुइयां रोड पर टैÑफिक संभालने में पुलिस की मदद कर रहा था। एक पुलिस वाले के साथ 6-6 स्वयंसेवक मदद के लिए तैनात थे। उस वक्त लगभग 1,600 स्वयंसेवक दिल्ली की सड़कों पर उतरकर दिन-रात सेवा कार्य में लगे थे।
इस सेवा कार्य की सराहना करते हुए ही तत्कालीन नेहरू सरकार ने अगले साल, 1963 की गणतंत्र दिवस परेड में संघ के स्वयंसेवकों का जत्था निकालने के लिए आमंत्रित किया था!
स्वयंसेवकों की 1962 के युद्ध में उल्लेखनीय भूमिका को देखते हुए ही 1963 की गणतंत्र दिवस परेड में संघ को अपना जत्था भेजने के लिए आमंत्रित किया गया था। मुझे याद है, मैं भी उस जत्थे में शामिल था और जब संघ का जत्था राजपथ पर निकला था तब वहां मौजूद नागरिकों ने देर तक तालियां बजाई थीं। जहां तक मुझे याद है, उस जत्थे में 600 स्वयंसेवक पूर्ण गणवेश में शामिल हुए थे।
एक सेकुलर पत्रिका ने लिखा है कि उस समय नेहरू जी ने संघ के स्वयंसेवकों को आमंत्रित नहीं किया था बल्कि वे लोग अपने से परेड में शामिल हो गये थे?
ये बात बिल्कुल गलत है। सरकारी आमंत्रण के बाद ही स्वयंसेवक गये थे। संघ अपनी तरफ से एक दिन पहले या बाद में गणतंत्र दिवस समारोह मना सकता था, लेकिन हमारी टोली 26 जनवरी को ही राजपथ पर निकली थी। हम लोग राजपथ से इंडिया गेट होते हुए कनॉट प्लेस तक गए थे।
आपको आगे भारतीय मजदूर संघ की जिम्मेदारी मिली। यह कैसे हुआ?
मैं संघ के वरिष्ठ प्रचारक चमन लाल जी से मिलने जाता रहता था, ज्यादातर समय संघ के झंडेवालान कार्यालय में बिताया करता था। फिर मेरी नौकरी टेलिफोन विभाग में लग गयी। वहां से मैं फिर भारतीय मजदूर संघ के कार्यक्रमों, अधिवेशनों में जाने लगा था। माननीय ठेंगड़ी जी मेरा मार्गदर्शन करते रहते थे। मैंने यूनियन के कामों में दिलचस्पी लेनी शुरू कर दी, यूनियन के चुनावों में उतरा, जीता और दायित्व बढ़ता गया। भारतीय मजदूर संघ में मैंने महामंत्री तक का दायित्व निभाया। आगे मैंने प्रवास कम करने पर, भामस की पत्रिका का संपादन करना शुरू किया। इसके लिए मैंने विशेष रूप से भारतीय विद्या भवन से पत्रकारिता में एक साल का डिप्लोमा कोर्स किया। लगभग 30 साल मैंने पत्रिका का संपादन किया। इस बीच संघ की शाखा और कार्यक्रमों में आना-जाना होता रहा। आयु बढ़ने के साथ शाखा में और अन्य कार्यक्रमों में जाना कम होता गया। आज 93 वर्ष की उम्र में सिर्फ घर पर पत्र-पत्रिकाएं पढ़ता रहता हूं।
इस उम्र में आपकी दिनचर्या क्या रहती है?
दिन में समाचारपत्र पढ़ता हूं। यदि मुझे से कोई वैचारिक सहयोग लेता है तो उसकी मदद करता हूं। आजकल मुझे महसूस होता है कि लोगों का काम करने का ढंग हमारे जमाने से काफी बदल गया है। आयु अधिक होने की वजह से अब कहीं आना-जाना संभव नहीं हो पाता।
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