पिछले लगभग 10 वर्ष के दौरान यानी मौजूदा केंद्र सरकार के कार्यकाल में नक्सली खतरे और हिंसा के स्तर में निश्चित रूप से कमी आई है। गृह मंत्रालय के आंकड़े बताते हैं कि 2013 से 2021 के बीच नक्सली हिंसा में 55 प्रतिशत और हमलों में होने वाली मौतों में 63 प्रतिशत की कमी आई है। माओवाद से प्रभावित पुलिस थानों, जिलों और राज्यों के आंकड़े ध्यान देने योग्य हैं। 2013 में 10 राज्यों के 76 जिले और 330 पुलिस थाने माओवाद से प्रभावित थे। 2021 में नक्सली प्रभाव घटकर 8 राज्यों के 46 जिलों और 191 पुलिस थानों तक सीमित रह गया।
माओवादी उग्रवाद की स्थिति में महत्वपूर्ण सुधार 2018 और 2021 के बीच हुआ। इस दौरान नक्सल प्रभावित जिलों की संख्या 2018 में 90 से घटकर 2021 में 70 रह गई। इसी अवधि में नक्सली हिंसा में 39 प्रतिशत की कमी आई और नक्सली हमलों में होने वाली मौतों की संख्या में भी कमी आई। यानी इस दौरान नक्सली हमले में सुरक्षाबलों और आम नागरिकों की मौत का आंकड़ा क्रमश: 26 प्रतिशत और 44 प्रतिशत रहा।
ध्वस्त होते नक्सली गढ़
सरकार ने ‘जीरो टॉलरेंस’ की नीति के अनुरूप माओवादियों को छत्तीसगढ़-झारखंड सीमा पर बूढ़ा पहाड़ और बिहार के चक्रबंधा और भीमबंध जैसे उनके गढ़ों से खदेड़ दिया है। बूढ़ा पहाड़ क्षेत्र लगभग तीन दशक से माओवादियों का गढ़ था। यह माओवादियों की केंद्रीय समिति के सदस्यों के लिए अड्डे के रूप में काम करता था। अतीत में इस क्षेत्र से माओवादियों को खदेड़ने के सभी प्रयास उग्र सशस्त्र प्रतिरोध के कारण विफल रहे। 2018 में एक बड़ा हमला विफल हुआ था। सितंबर 2022 में इस क्षेत्र पर सुरक्षाबलों के कब्जे के बाद क्षेत्र के लोगों के मन से यह भावना जाती रही कि नक्सली अजेय हैं। क्षेत्र के लोगों के समक्ष नक्सलियों ने अपनी यही छवि बनाई थी। इसी दौरान बिहार में माओवादियों के एक और गढ़ चक्रबंधा को भी ध्वस्त किया गया। यह उल्लेख करना महत्वपूर्ण है कि पूरे क्षेत्र में माओवादियों द्वारा बड़Þे पैमाने पर अवैध खनन किया जाता था, जहां सुरक्षाबलों का ‘प्रवेश निषिद्ध’ था। छत्तीसगढ़ के दंडकारण्य क्षेत्र की तरह यह क्षेत्र भी बेहद खतरनाक और घने जंगलों वाला है। यह नक्सलियों का गढ़ है, जिसे पूरी तरह ध्वस्त किया जाना अभी शेष है।
माओवादियों के कब्जे वाले क्षेत्रों में सीआरपीएफ फॉरवर्ड आपरेटिंग बेस (एफओबी) स्थापित कर रहा है, जिससे नक्सलियों का फिर से संगठित होना बहुत मुश्किल हो गया है। 2004 में पीपुल्स वॉर ग्रुप (पीडब्ल्यूजी) और माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर आॅफ इंडिया (एमसीसीआई) का विलय कर भाकपा (माओवादी) का गठन किया गया था। इस विलय के परिणामस्वरूप रेड कॉरिडोर की स्थापना हुई। अपने चरम दौर में रेड कॉरिडोर, जो भारत के खनिज समृद्ध आदिवासी क्षेत्र से होकर गुजरता था, में आने वाले 640 जिलों में से कम से कम एक तिहाई जिले माओवादियों के प्रभाव में थे। इस विलय के पीछे किशन दा (प्रशांत बोस) प्रमुख व्यक्ति था। झारखंड पुलिस ने उसे नवंबर 2021 में गिरफ्तार कर माओवादियों को बड़ा झटका दिया था। उसकी गिरफ्तारी पर एक करोड़ रुपये का इनाम रखा गया था। माओवादी सेंट्रल कमेटी के 24 सदस्यों में से 15 की उम्र 60 वर्ष से अधिक है।
शीर्ष नक्सली ढेर, कैडर जेल में
सुरक्षाबलों ने पिछले एक दशक में कई शीर्ष माओवादी नेताओं को मार गिराने के साथ 10,000 से अधिक कैडर को गिरफ्तार किया है। अब नक्सलियों के लिए कैडर की भर्ती करना दिन पर दिन कठिन होता जा रहा है। उनके लिए हथियार और गोला-बारूद की खरीद भी एक चुनौती बन गई है। हालांकि इन्हें हथियारों और गोला-बारूद की कुछ आपूर्ति खालिस्तानियों द्वारा की रही है। इन खालिस्तानियों को हथियारों और गोला-बारूद की आपूर्ति पाकिस्तान से आईएसआई ड्रोन के माध्यम से करती है।
माओवाद के पतन की शुरुआत 2014 से शुरू हुई। इस पतन में ‘विकास’ के योगदान को कमतर नहीं आंका जा सकता। आर्थिक अवसरों की उपलब्धता और राजनीतिक माहौल में सुधार ने निश्चित रूप से कई माओवादी कैडरों को नक्सलवाद छोड़ने और मुख्यधारा में लौटने के लिए मजबूर किया है। माओवाद पर अंकुश लगाने का सकारात्मक प्रभाव बिहार में पंचायत चुनाव पर दिखा भी है।
माओवादी अतीत वाले कई निर्वाचित पंचायत प्रमुख (मुखिया) ईमानदार, लेकिन आर्थिक रूप से बहुत कमजोर थे। लेकिन जब उन्हें खुले तरीकों से पैसे कमाने का अवसर मिला तो वे इस लालच में माओवाद से दूर हो गए। इसके अतिरिक्त ढांचागत विकास ने भी सुरक्षाबलों को कहीं अधिक चुस्त, त्वरित, उत्तरदायी और प्रभावी बनाया है।
माओवादी हिंसा में गिरावट और रेड कॉरिडोर के सिकुड़ने के बावजूद सतर्क रहने की जरूरत है, ताकि नक्सली फिर से इन इलाकों में अपनी पैठ न बना सकें। माओवाद में आंतरिक और बाहरी, दोनों आयामों में पुन: समायोजन और पुनर्स्थापन की जबरदस्त क्षमता है।
नक्सली का जिहादी-खालिस्तानी गठजोड़
एक चर्चित माओवादी बर्नार्ड डी मेलो ने अपनी पुस्तक ‘इंडिया आफ्टर नक्सलबाड़ी’ में भारत में अति-वामपंथी आंदोलन के नए रास्ते का उल्लेख किया है। उनका निष्कर्ष यह है कि माओवाद का दुश्मन अब ‘वर्ग-विभाजन’ पर नहीं, बल्कि ‘हिंदू अधिनायकवाद’ पर आधारित होगा। इसी खोज में, माओवादियों ने भारत और पाकिस्तान में जिहादियों और खालिस्तानियों के साथ सांठगांठ कर ली है। कांग्रेस नेता मणिशंकर अय्यर द्वारा पाकिस्तानी अधिकारियों से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को हटाने में कांग्रेस की सहायता करने की मांग को इसी पृष्ठभूमि में देखा जाना चाहिए। 26/11 आतंकी हमले की योजना और तथाकथित ‘हिंदू आतंकवाद’ की प्रस्तुति में कांग्रेस और लश्कर-ए-तैयबा (पाकिस्तान) के बीच सांठगांठ को भी इसी पृष्ठभूमि में देखा जाना चाहिए। चूंकि मणिशंकर अय्यर कांग्रेस का कम्युनिस्ट चेहरा हैं, इसलिए उनका हर अपराध माफ है।
माओवादी और जिहादी, दोनों को लगता है कि हिंदू उनके सबसे बड़े दुश्मन हैं। यही कारण है कि जब चीन में उइगर मुसलमानों पर होने वाले अत्याचारों की बात आती है तो दोनों गहरी और षड्यंत्रकारी चुप्पी साध लेते हैं। जिहादी ‘गजवा-ए-हिंद’ यानी भारत के विरुद्ध युद्ध में माओवादियों और चीन को अपना सहयोगी मानते हैं। चर्च पहले से ही माओवादियों का सहयोगी है। वास्तव में चर्च पश्चिमी आर्थिक संस्थाओं के इशारे पर भारत के खनिज समृद्ध क्षेत्रों में प्रवेश करने का एक हथियार है। भारतीय राजनीति और न्यायपालिका के भीतर के वर्गों ने अपने कार्यक्षेत्र से इतर निष्ठाओं के कारण माओवादी क्षेत्रों में चर्च के प्रवेश को सुगम बनाया है। बिनायक सेन प्रकरण इसका एक भद्दा और निर्लज्ज उदाहरण है।
एक अन्य उदाहरण बाबा आम्टे के बेटे का है, जिसने माओवादी कैडर में पुरुषों की नसबंदी कराई ताकि वे दोबारा पारिवारिक जीवन में वापसी न कर सकें। माओवादी अपने इलाकों में सरकारी मशीनरी के प्रवेश को प्रतिबंधित करके आदिवासियों के कन्वर्जन को सुगम बनाते रहे हैं। अगस्त 2008 में माओवादी-चर्च गठबंधन द्वारा कंधमाल (ओडिशा) में लक्ष्मणानंद सरस्वती की हत्या कर दी गई थी। सोनिया गांधी की राष्ट्रीय सलाहकार परिषद तो माओवादियों से भरी हुई थी।
किसान आंदोलन या माओवादी जमघटमाओवादियों के साथ गठजोड़ करने वाला नया तत्व खालिस्तानी है। ग्रामीण क्षेत्रों पर कब्जा करने के लिए अंदरूनी इलाकों में किसानों व खेतिहर मजदूरों को लामबंद करने और फिर अगले चरण में शहरी क्षेत्रों पर कब्जा करने के लिए औद्योगिक श्रमिकों और शहरी जनता को लामबंद करने की माओवादी रणनीति अभी भी जारी है। दिल्ली के सिंघु बॉर्डर पर कथित किसान आंदोलन के दौरान यह स्पष्ट हो गई थी। इस कथित आंदोलन में अर्बन नक्सल घटक आम आदमी पार्टी द्वारा उपलब्ध कराया गया था। सिंघु बॉर्डर वास्तव में ‘ग्रामीण माओवादियों’ और ‘शहरी माओवादियों’ का मिलन बिंदु था और उसने फिर अंतत: लाल किले पर नहीं, वरन् दिल्ली पर हमला बोला था। लेकिन वे भारत की गहराई और भारत के संकल्प की थाह नहीं ले सके। इससे पूर्व अरविंद केजरीवाल ने भी भारत पर हमले का प्रयास किया था। 2014 में मुख्यमंत्री पद पर रहते हुए वे रेल भवन के सामने धरने पर बैठ गए थे।
वहीं, ‘क्रांतिकारी किसान यूनियन’ का संस्थापक दर्शन पाल, माओवादी आंदोलन के घटक पीपुल्स डेमोक्रेटिक फ्रंट आॅफ इंडिया (पीडीएफआई) का भी संस्थापक सदस्य था। उसके अलावा संस्थापक सदस्यों में वरवर राव, मेधा पाटकर, नंदिता हस्कर और एस.ए.आर. गिलानी शामिल थे। इनमें से कुछ पात्र सिंघु बॉर्डर पर भी सक्रिय थे। कथित आंदोलन के दौरान भारतीय किसान यूनियन (उगराहां) ने उमर खालिद, शरजील इमाम, सुधा भारद्वाज और अन्य की रिहाई की मांग की थी।
शिक्षा क्षेत्र और न्यायपालिका में पैठ
न्यायपालिका और शिक्षा क्षेत्र में माओवादियों की पैठ व्यापक और गहरी है। माओवादियों के पास जब भी अनुकूल न्यायिक वातावरण होता है, वे फलते-फूलते हैं। हाल के दिनों में न्यायपालिका द्वारा कुछ कट्टर माओवादियों की रिहाई के आदेश जारी किए गए हैं। ये न केवल बहुत खतरनाक हैं, बल्कि आंदोलन के पीछे इन्हीं का दिमाग है। इनमें कोबाड गांधी, प्रोफेसर साईं बाबा, वरवर राव, गौतम नौलखा और सुधा भारद्वाज शामिल हैं। कोबाड गांधी पोलित ब्यूरो का एक महत्वपूर्ण सदस्य है, जिसे 2009 में देशभर में आतंकी हमलों की साजिश रचने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था। रोचक बात यह है कि हाल ही में भाकपा (माओवादी) ने अध्यात्म का मार्ग अपनाने के कारण उसे पार्टी की सदस्यता से बेदखल कर दिया था। कोबाड गांधी को 2019 में रिहा किया गया था।
इसकी रिहाई के लिए न्यायपालिका का दृष्टिकोण ‘ब्लीडिंग हार्ट’ यानी अत्यधिक नरमदिली या उदारता वाला था। उसकी रिहाई के लिए खराब स्वास्थ्य, लंबी कारावास अवधि और वृद्धावस्था का हवाला दिया गया था। एक अन्य मामले में अदालत ने सरकार को फटकार लगाते हुए कहा था कि वह ‘नजरबंदी’ के लिए उपयुक्त घर उपलब्ध कराए। सच्चाई यह है कि ये लोग न केवल देशद्रोही हैं, बल्कि हत्यारे माओवादी तंत्र के समन्वयक भी हैं। उनके पास वकीलों की फौज है, जो ‘वैचारिक हत्याओं’ को ‘वर्ग भेदभाव’ और ‘अभाव’ के मामलों में बदलने में माहिर हैं। इन वकीलों को भारत में खनिज समृद्ध परिक्षेत्र में की गई जबरन वसूली के पैसों से मोटी रकम का भुगतान किया जाता है।
दूसरी ओर, ठीक मदरसों की तरह कई विश्वविद्यालय शिक्षक हत्यारी माओवादी विचारधारा में तर वैचारिक रंगरूट तैयार करने में लगे हुए हैं। न्यायपालिका ने अस्सी वर्ष से अधिक उम्र के हिंदू संतों के साथ कभी इस तरह की नरमदिली या उदारता नहीं दिखाई, जिनका छवि निर्माण इन्हीं माओवादियों, चर्च और जिहादियों ने राक्षसों की तरह किया है।
यह वह वर्ग है, जिसे प्रधानमंत्री मोदी ने ‘अर्बन नक्सली’ कहा है। ये इतने विषैले हैं कि इन्हें किसी भांति स्वीकार नहीं किया जा सकता। यदि भारत को 9 प्रतिशत की दर से आर्थिक विकास करना है, तो इनका फन कुचलना ही होगा।
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