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बीबीसी की ये पुरानी बीमारी है, समझिए औपनिवेशिक शक्तियों का “खेल”, जानिये इसकी डॉक्यूमेंट्री के 10 बड़े झूठ

बीबीसी ने यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि गोधरा कांड के बाद निर्दोष मुसलमान ‘हिंदू अतिवाद’ का शिकार बने और तत्कालीन नरेंद्र मोदी सरकार ने जानबूझकर पुलिस कार्रवाई को रोका।

by चंद्रप्रकाश
Jan 24, 2023, 09:20 am IST
in भारत
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कहावत है रस्सी जल गई लेकिन ऐंठन नहीं गई। विश्व की सबसे बड़ी औपनिवेशिक शक्ति ब्रिटेन के साथ इन दिनों कुछ यही हो रहा है। बिजली और गैस के बिल लगभग दोगुना बढ़ चुके हैं। अर्थव्यवस्था की हालत खराब है। देश संभालने के लिए भारतीय मूल के एक हिंदू को प्रधानमंत्री पद पर स्वीकार करना पड़ा। स्पष्ट रूप से इसकी ही खीझ है कि ब्रिटेन के सरकारी चैनल बीबीसी 2 ने एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म का प्रसारण किया। इसका उद्देश्य गुजरात दंगों को लेकर उस दुष्प्रचार को दोबारा हवा देना था, जिसकी पोल बहुत पहले ही खुल चुकी है। लेकिन बीबीसी ऐसा क्यों कर रहा है? उसके पीछे कौन सी शक्तियां हैं? इस बात को समझने के लिए बीबीसी के इतिहास पर नजर डालनी आवश्यक है, लेकिन पहले बात वर्तमान विवाद की।

डॉक्यूमेंट्री में ऐसा क्या है ?

‘इंडिया: द मोदी क्वेश्चन’ नाम की इस फिल्म में वर्ष 2002 में हुए गोधरा हत्याकांड और उसके बाद हुए सांप्रदायिक दंगों की कहानी है। उस समय के बीबीसी संवाददाताओं की रिपोर्टिंग के वीडियो फुटेज के आधार पर इसे बनाया गया है। साथ ही कुछ कथित दंगा पीड़ितों और विश्लेषकों से बात की गई है। यह सिद्ध करने का प्रयास किया गया है कि गोधरा कांड के बाद निर्दोष मुसलमान ‘हिंदू अतिवाद’ का शिकार बने और तत्कालीन नरेंद्र मोदी सरकार ने जानबूझकर पुलिस कार्रवाई को रोका। बीबीसी ने यह दावा ब्रिटिश विदेश विभाग की एक अप्रकाशित रिपोर्ट के आधार पर किया है। यह रिपोर्ट ब्रिटिश विदेश विभाग के एक राजनयिक द्वारा ‘लिखी’ गई है। अर्थात् उसका निजी विचार है। संभवत: यही कारण था कि ब्रिटिश विदेश विभाग ने इसे प्रकाशन योग्य नहीं समझा।

आपत्तियों का आधार क्या ?

बीबीसी ने वक्तव्य जारी करके कहा है कि “हमने इस वृत्तचित्र के लिए उच्चतम संपादकीय मानकों का पालन करते हुए गहरी रिसर्च की है। कई प्रत्यक्षदर्शियों, विश्लेषकों और सामान्य लोगों से बात की। इसमें भाजपा के लोग भी हैं। हमने भारत सरकार को इस पर अपना पक्ष रखने का अवसर दिया, लेकिन उन्होंने उत्तर देने से मना कर दिया।” यह वक्तव्य ही विरोधाभासों से भरा हुआ है। बीबीसी के ‘उच्चतम संपादकीय मानक’ कितने निम्न और स्तरहीन हैं वह इसी से पता चलता है कि उसकी डॉक्यूमेंट्री फिल्म का आधार एक ऐसी रिपोर्ट है जिसे स्वयं ब्रिटिश सरकार ही विश्वसनीय नहीं मानती। यह कोई जांच रिपोर्ट नहीं, बल्कि यहां-वहां सुनी बातों के आधार पर लिखी गई थी।

अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त फिल्मकार कबीर बेदी के शब्दों में “यह दावा पूरी तरह पक्षपातपूर्ण है कि भारत किसी धार्मिक उथल-पुथल में है। ये विवाद लंबे समय पहले न्यायालयों द्वारा सुलझाए जा चुके हैं। यह गटर जर्नलिज्म से अधिक कुछ नहीं।” फिल्म में जिन कथित विश्लेषकों से बात की गई है उनमें से अधिकांश वही हैं जो बीते दो दशक से यही प्रोपोगेंडा चला रहे हैं। अरुंधती रॉय, आकार पटेल और ब्रिटेन के पूर्व विदेश मंत्री जैक स्ट्रॉ।

औपनिवेशिक शक्तियों के खेल

जैक स्ट्रॉ को नस्लभेदी नेता के रूप में देखा जाता है। वे इराक युद्ध के समय ब्रिटेन की टोनी ब्लेयर सरकार में विदेश मंत्री थे। सद्दाम हुसैन के पास भारी मात्रा में ‘वेपन ऑफ मास डिस्ट्रक्शन’ अर्थात विध्वंसकारी हथियार होने का झूठ जैक स्ट्रॉ के ही दिमाग की उपज मानी जाती है। तब भी बीबीसी ही उनके दुष्प्रचार का हथियार बना था। इसी झूठ के आधार पर इराक पर हमला करके सद्दाम हुसैन शासन का अंत कर दिया गया। लाखों निर्दोष लोगों की हत्या हुई और मध्य-पूर्व के खाड़ी देश आज भी उस अतिक्रमण के दुष्प्रभावों से उबर नहीं पाए हैं। अकेले इस तथ्य से आप समझ सकते हैं कि भारत और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विरुद्ध अंतरराष्ट्रीय षड़यंत्रों को कितनी गंभीरता से लेने की आवश्यकता है। जिस कथित रिपोर्ट के आधार पर बीबीसी ने अपनी यह डॉक्यूमेंट्री बनाई है, जुलाई 2002 में वह मीडिया में लीक की गई थी। तब भी इसके पीछे जैक स्ट्रॉ का नाम सामने आया था।

डॉक्यूमेंट्री की टाइमिंग का प्रश्न

प्रथमदृष्टया अधिकांश लोग मानते हैं कि बीबीसी की यह डॉक्यूमेंट्री 2024 के लोकसभा चुनावों को प्रभावित करने के उद्देश्य से लाई गई है। वास्तव में यह इसके उद्देश्यों का सरलीकरण है। वे जानते हैं कि एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को तीसरी बार चुने जाने से नहीं रोक सकती। उनका प्रयास प्रधानमंत्री और उनके नेतृत्व में भारतीयों की बढ़ती शक्ति को बाधित करना है। वर्ष 2022 के उत्तरार्ध में भारत ब्रिटेन को पछाड़कर पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन चुका है। ब्रिटेन भारत के साथ मुक्त व्यापार समझौता करना चाहता है। जी-20 की अध्यक्षता भारत कर रहा है। ऐसे में भारत विरोधी दुष्प्रचार से यदि किसी को क्षति पहुंच सकती है तो वो स्वयं ब्रिटिश सरकार ही है। ब्रिटिश संसद की हाउस ऑफ लॉर्ड्स के प्रमुख सदस्य रामी रेंजर ने इसी बात का हवाला देते हुए बीबीसी के महानिदेशक को पत्र लिखा है और अपना विरोध व्यक्त किया है। प्रधानमंत्री ऋषि सुनक तो संसद में खड़े होकर डॉक्यूमेंट्री में कही बातों पर असहमति व्यक्त कर चुके हैं।

बीबीसी की ये बीमारी पुरानी है

ब्रिटिश करदाताओं के पैसे पर चलने वाला बीबीसी और वहां काम करने वाले पत्रकारों को आज भी यही लगता है कि भारत उनका उपनिवेश है। यह मानसिकता उनकी रिपोर्टिंग में स्पष्ट अनुभव की जा सकती है। रेडियो की हिंदी प्रसारण सेवा, वेबसाइट और टीवी चैनलों पर भारत से जुड़े समाचारों में पूर्वाग्रह झलकता है। धारा 370 हटे एक साल होने को हैं लेकिन बीबीसी अब भी जम्मू कश्मीर को ‘भारत प्रशासित क्षेत्र’ लिखता है। अरुणाचल और उत्तर पूर्व को लेकर भी बीबीसी आपत्तिजनक रिपोर्टिंग करता रहा है। कुछ समय पहले बीबीसी ने भारतीय सरकारी कंपनी जीवन बीमा निगम को लेकर फेक न्यूज फैलाई थी। दावा किया था कि एलआईसी कंगाल हो चुकी है। जबकि एलआईसी की आर्थिक स्थिति बिल्कुल ठीक है। कभी कोई समस्या आए भी तो भी भारत सरकार इसके निवेशकों को संप्रभु गारंटी देती है।

बीबीसी डॉक्यूमेंट्री फिल्म के 10 झूठ
  1. डॉक्यूमेंट्री वर्ष 2021 में हरिद्वार में हुए धर्म संसद के भाषणों से आरंभ होती है। ऐसा जताया गया है मानो इन्हीं के कारण गुजरात में दंगे हुए थे।
  2. गोधरा में कारसेवकों से भरी ट्रेन जलाने की घटना को संदिग्ध बताया। कहा कि यह निश्चित नहीं था कि आग किसने लगाई। हिंदू बहुसंख्यकों ने इसका दोष मुसलमानों पर डाल दिया।
  3. गुजरात दंगों में बड़ी संख्या में हिंदू भी मारे और घायल हुए, लेकिन उन पर इसमें कोई बात नहीं की गई है।
  4. गुजरात के सभी हिंदुओं को दंगाई, अतिवादी और मुस्लिमों को पीड़ित के रूप में चित्रित किया गया है।
  5. अरुंधती रॉय, आकार पटेल, हरतोष बल जैसे लोगों के वक्तव्यों को आधार बनाया गया है, जिनकी विश्वसनीयता स्वयं संदिग्ध है।
  6. गुजरात के दंगे जिन पर सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय आ चुका है, उस पर केंद्र सरकार कोई उत्तर देने को बाध्य नहीं है।
  7. डॉक्यूमेंट्री में किए दावों पर दूसरा पक्ष जानने का कोई प्रयास नहीं किया गया है। भाजपा नेता और पत्रकार स्वपनदास गुप्ता से पूछे गए प्रश्न भी उन आरोपों के संदर्भ में नहीं हैं।
  8. गुजरात दंगों पर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा गठित एसआईटी की जांच और न्यायिक निर्णयों का संदर्भ बड़ी चालाकी से गायब कर दिया गया है।
  9. कुछ नए प्रत्यक्षदर्शियों को पैदा किया गया है। वे भी सुनी-सुनाई बात दोहराते हैं। पुराने प्रत्यक्षदर्शियों के बयान कोर्ट में झूठ सिद्ध हो चुके हैं।
  10. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को नकारात्मक रूप से दिखाया। नरेंद्र मोदी के संघ का स्वयंसेवक होने की बात इस तरह बताई मानो यह कोई अपराध हो।
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“2002 गुजरात दंगों के समय मैं विदेश सचिव था। ब्रिटिश दूतावास की शरारत से मैं अवगत था। उन्होंने अपने अधिकारी को गुजरात भेजा और उसकी बात को ‘रिपोर्ट’ घोषित करके भारत में यूरोपीय देशों के प्रतिनिधियों के बीच प्रचारित करना आरंभ कर दिया। यूरोपीय संघ के एक राजदूत ने मुझे इसकी सूचना दी तो मैंने दिल्ली में ब्रिटिश दूतावास को चेतावनी भेजी और भारत के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप बंद करने को कहा”

 

: कंवल सिब्बल, पूर्व विदेश सचिव

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