पाञ्चजन्य की पूरी टीम बधाई की पात्र है कि आज आप लोग अपनी यात्रा में एक बड़ा ही महत्वपूर्ण मील का पत्थर पार कर चुके हैं। आजाद भारत की प्रमुख साप्ताहिक पत्रिकाओं में राष्ट्रवादी विचारधारा से ओत-प्रोत पाञ्चजन्य का अपनी यात्रा के 75 वर्ष पूरे करना भारतीय पत्रकारिता जगत की एक महत्वपूर्ण घटना है।
भारत में पत्रकारिता की शुरुआत सामाजिक सुधारों और आजादी के हथियार के तौर पर ही हुई थी। उस वक्त पत्रकारिता एक मिशन थी, देश को आजाद कराने का, गुलामी से मुक्ति पाने का मिशन। आजादी की लड़ाई में पत्रकारिता जागृति और जोश पैदा कर रही थी। शायद इसीलिए अकबर इलाहाबादी ने लिखा-‘खींचो न कमानों को, न तलवार निकालो। जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो।’
अंग्रेजी शासन के दमन और शोषण के खिलाफ पत्रकारिता लामबंद हुई। कई संपादकों और पत्रकारों ने आजादी के ‘शस्त्रहीन’ संघर्ष में अपनी आहुति दी। खतरे झेले, यातनाएं सहीं, पर विचलित नहीं हुए। स्वाधीनता की अग्नि में तपकर भारत में पत्रकारिता फली-फूली, तीसरी आंख, डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी पत्रकारिता अपने चिरंतन मूल्यों में बुद्धिमान समाज की सबसे उद्देश्यपरक शक्ति है। कभी वह अंग्रेजों की दमनकारी ताकत के खिलाफ लड़ी थी तो कभी उसने आपात्काल की निरंकुशता और तानाशाही के खिलाफ संघर्ष किया। तो कभी वह सत्ता की ताकत के दुरुपयोग को रोकने का स्वर गुंजाती रही।
प्रकृति में हम दो प्रकार के तत्वों से घिरे हैें, एक है बहुमूल्य और दूसरा अमूल्य। बहुमूल्य शब्द अर्थशास्त्र से आता है। वे वस्तुएं जो कम हैं, उनकी कीमत अधिक है। यह आवश्यक नहीं कि वह वस्तु सबके लिए जरूरी हो। ऐसा भी नहीं कि इसके बिना काम नहीं चल सकता। लेकिन जिन्हें यह चाहिए, उनके लिए पर्याप्त नहीं है। जैसे सोना, चांदी, हीरा आदि। अमूल्य वह है जो सबको चाहिए, और जिसका कोई विकल्प नहीं है। जैसे हवा, पानी, आकाश। इनका कोई मूल्य नहीं है। ये अमूल्य हैं, क्योंकि इनके बिना जीवन नहीं हो सकता।
पत्रकारिता को मैं अमूल्य वर्ग का तत्व मानता हूं, प्राणवायु जैसा। पत्रकारिता सभ्य मानव जीवन की प्राणवायु है। लोकतंत्र से पहले भी समाज में पत्रकारिता जैसा दायित्व निभाने वाली कलाएं, दक्षताएं और व्यवस्थाएं थीं। प्राचीन भारत में नाटक, ग्रंथ, काव्य इस उद्देश्य को पूरा करते थे।
आजादी से पहले पत्रकारिता के तीन चेहरे थे। पहला आजादी की लड़ाई को समर्पित, दूसरा सामाजिक उत्थान के लिए समर्पित और तीसरा चेहरा समाज सुधार और रूढ़ियों व कुरीतियों का विरोध करने वाली पत्रकारिता का था। तीनों को आजादी का महाभाव जोड़ता था। इन्हीं तीनों घटनाओं का संगम हमें भारतीय पत्रकारिता के इतिहास में मिलता है। आजादी के बाद पत्रकारिता लोकतंत्र के प्रहरी के तौर पर अपनी भूमिका निभाती रही।
19वीं शताब्दी का दौर राष्ट्रीय नवजागरण के जनमत के अंकुरण का काल था। इस दौर में पत्रकारिता का तेजी से विकास हुआ। पत्रकारिता ने सिर्फ सामाजिक चेतना ही नहीं, बल्कि समाज के विभिन्न आयामों में जागरूकता फैलाने का काम किया। राजा राममोहन राय, जिन्हें भारतीय पत्रकारिता का जनक माना जाता है, वे मूलत: समाज सुधारक थे। उनकी प्रेरणा से तीन प्रमुख अखबार निकले-1, संवाद कौमुदी (बांग्ला, 1821), 2, मिरातुल अखबार (फारसी, 1822), 3, ब्राह्मिनिकल मैगजीन (अंग्रेजी, 1821)। इस दौर की हिन्दी पत्रकारिता ने न केवल सामाजिक व धार्मिक कुरीतियों के खिलाफ जनमानस में जागरुकता फैलाई, बल्कि यह ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध मुक्ति की मानसिकता को तैयार करने में सहायक बनी।
इस बात पर अलग से शोध किया जाना चाहिए कि पंडित दीनदयाल उपाध्याय की प्रेरणा से देश में कितने पत्र-पत्रिकाओं की शुरुआत हुई और उनमें से कितनी आज भी प्रकाशित हो रही हैं। दैनिक समाचार पत्र ‘स्वदेश’ का भी प्रकाशन दीनदयाल जी की ही प्रेरणा से प्रारंभ हुआ था।
स्वतंत्र भारत में पत्रकारिता को संविधान का चौथा स्तम्भ कहा जाने लगा। इसलिए कि वह जनता की आवाज को अपनी अभिव्यक्ति का आधार बना समाज और समय के सच को निरंतर उजागर करती थी। पत्रकारिता विधायिका, कायर्पालिका और न्यायपालिका के बीच एक सेवा-सेतु बनी, जो हमारे लोकतंत्र को गतिशील बनाती थी। उसे तीसरी आंख भी कहा गया। जब शिव की तीसरी आंख खुलती है तो विनाश होता है। लेकिन पत्रकारिता की तीसरी आंख खुलने पर नए समाज का सृजन होता है।
आजादी के बाद दूसरे दशक तक लगता था कि पत्रकारिता समाज की सजग प्रहरी है, समाज बदलने और नया समतावादी तथा न्याय आधारित समाज बनाने का माध्यम है। आज आप ऐसी बातें करें तो लोग हंसने लगेंगे। आज लोग तोप का मुकाबला करने के लिए नहीं, कुछ और कमाने के लिए अखबार निकालते हैं। इस दौर में शायद अकबर इलाहाबादी गलत हो गए हैं।
इसके बावजूद बहुत सी पत्र-पत्रिकाएं हैं, जो उद्देश्यपरक पत्रकारिता कर रही हैं। पाञ्चजन्य की 75 साल की पत्रकारिता उसी उद्देश्यपरक संकल्पबद्धता का इतिहास है, जिस संकल्प के साथ भारत में पत्रकारिता जन्मी। स्वतंत्रता प्राप्ति के फौरन बाद 14 जनवरी, 1948 को आवरण पृष्ठ पर भगवान श्रीकृष्ण के शंखनाद के साथ पंडित दीनदयाल जी के दिशा-निर्देशन और अटलजी के संपादकत्व में पाञ्चजन्य साप्ताहिक शुरू हुआ। यह पत्रिका स्वाधीनता आंदोलन के प्रेरक आदर्शों एवं राष्ट्रीय लक्ष्यों का स्मरण दिलाते रहने के संकल्प का उद्घोष थी। इस पत्रिका का नाम श्री कृष्ण के शंख के नाम पर ‘पाञ्चजन्य’ रखा गया था।
सचाई यह है कि पेशे से न तो दीनदयाल जी पत्रकार थे और न ही अटलजी ने पत्रकारिता का कोई प्रशिक्षण लिया था। ये दोनों विभूतियां एक विचार से प्रेरित होकर पत्रकारिता जगत में आईं और इस दायित्व के लिए जिस तरह की दृष्टि और प्रतिबद्धता की आवश्यकता थी, उसका दोनों ने ही निर्वहन किया। दीनदयाल जी और अटल जी दोनों के भीतर पत्रकार कम साहित्यकार का स्वभाव अधिक था। इसके बावजूद दोनों ने मिलकर जहां पत्रकारिता को राष्ट्रवादी तेवर और कलेवर दिया, वहीं देश और समाज में एक जागरुकता भी पैदा की, जिसकी आजादी के तुरंत बाद बहुत अधिक आवश्यकता थी।
पाञ्चजन्य की शुरुआत उस दौर में हुई जब देश तो आजाद हो चुका था, मगर जिन हाथों में देश की बागडोर थी, उनकी जो वैचारिक दिशा थी, वह भारतीय मूल्यों और आवश्यकताओं के अनुरूप नहींथी। जब भारत आजाद नहीं था, तब भी हमारे देश के कई राष्ट्रीय नेताओं ने पत्रकारिता की कोई औपचारिक डिग्री लिए बिना पत्रकारिता के माध्यम से देश और समाज का जागरण किया था। इस तरह के पत्रकारों की सूची बहुत लम्बी है, जिनमें पंडित मदन मोहन मालवीय, महात्मा गांधी, बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय, सरदार भगत सिंह, गणेश शंकर विद्यार्थी, विनोबा भावे तक शामिल हैं।
पंडित दीनदयाल उपाध्याय इसी राष्ट्रीय परंपरा की एक महत्वपूर्ण कड़ी थे। जब वे पाञ्चजन्य और राष्ट्रधर्म के माध्यम से सार्वजनिक जीवन में सक्रिय थे, उस समय उनका राजनीति में पदार्पण नहीं हुआ था। उस समय दीनदयाल जी के लिए पत्रकारिता ही एकमेव मिशन थी और सच्चे स्वयंसवेक की तरह वे न केवल स्वयं इस काम को पूरे मनोयोग से कर रहे थे बल्कि साथ-साथ राष्ट्रवादी पत्रकारों की एक पूरी श्रृंखला तैयार कर रहे थे।
मैं कितने नाम लूं। अटल जी, आडवाणी जी, बालेश्वर अग्रवाल जी, राजीव लोचन अग्निहोत्री जी, वचनेश त्रिपाठी जी, राम शंकर अग्निहोत्री जी, के.आर. मलकानी जी, यादवराव देशमुख जी, देवेन्द्र्र स्वरूप जी, भानु प्रताप शुक्ल जी…ये सारे राष्ट्रवादी पत्रकारिता जगत के दिग्गज दीनदयाल जी की प्रेरणा से काम कर रहे थे।
एक और नाम मुझे याद आ रहा है, वह है तेलू राम कम्बोज जी का, जो उत्तर प्रदेश के गाजियाबाद से ‘प्रलयंकर’ नाम से एक पत्र निकालते थे। आप में से कुछ लोग उनसे मिले भी होंगे पर शायद यह नहीं जानते होंगे कि उनके पत्र का ‘प्रलयंकर’ नाम दीनदयाल जी ने ही रखा था। मैंने किसी किताब में पढ़ा था कि दीनदयाल जी पहले पाञ्चजन्य का नाम प्रलयंकर ही रखना चाहते थे। किन्ही कारणों से यह संभव न हो सका। मगर अच्छी बात यह है कि दीनदयाल जी की प्रेरणा से शुरू हुए पाञ्चजन्य और प्रलयंकर दोनों आज भी प्रकाशित हो रहे हैं। इस बात पर अलग से शोध किया जाना चाहिए कि पंडित दीनदयाल उपाध्याय की प्रेरणा से देश में कितने पत्र-पत्रिकाओं की शुरुआत हुई और उनमें से कितनी आज भी प्रकाशित हो रही हैं। दैनिक समाचार पत्र ‘स्वदेश’ का भी प्रकाशन दीनदयाल जी की ही प्रेरणा से प्रारंभ हुआ था।
पाञ्चजन्य के शुरुआती दिनों में क्या-क्या समस्याएं नहीं आईं। संसाधनों के अभाव से लेकर सत्ता का पूरा विरोध झेला। दीनदयाल जी और अटल जी संपादन, प्रूफ रीडिंग, प्रकाशन से लेकर कई बार प्रकाशित सामग्री का बंडल खुद साइकिल पर लेकर हाकरों तक पहुंचाने जाते थे। कार्य के प्रति यह निष्ठा, समर्पण, लगन अपने आप में अतुलनीय और अनुकरणीय है। उस समय सत्ता में बैठे हुक्मरानों की टेढ़ी नजर हमेशा पाञ्चजन्य पर सबसे पहले पड़ती थी। पाञ्चजन्य को शुरू हुए महीना भी नहीं बीता था कि बापू की हत्या से उपजे वातावरण का फायदा उठाते हुए तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने इसके प्रकाशन पर रोक लगा दी। फिर अदालत ने राहत दी तो बमुश्किल से कुछ महीने प्रकाशन चला, फिर रोक लग गई। पाञ्चजन्य पर बार-बार लगाई जा रही जबरदस्ती की रोक न केवल राष्ट्रवादी पत्रकारिता पर हमला थी बल्कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का भी पूरा हनन थी।
लोकतंत्र की मजबूती के लिए जहां विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच ‘सेपेरशन ऑफ पावर’ का सिद्धान्त लागू किया जाता है, वहीं मीडिया, जिसे लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता है, की स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी लोकतंत्र की मजबूती के लिए बेहद जरूरी है। हमारे संविधान निर्माताओं ने अनुच्छेद 19 के माध्यम से यह सुनिश्चित भी किया। फिर ऐसा क्या हुआ कि 1951 में यानी एक साल बाद ही उस संविधान में संशोधन करने की नौबत आ गई, जिसे दुनिया का सबसे उत्तम संविधान माना गया था? कारण बहुत साफ था। कांग्रेस पार्टी, जो उस समय पूरे देश पर एकछत्र राज कर रही थी, उसे विरोध सुनना गवारा नहीं था। कांग्रेस ने हर तरह की आलोचना को दबाने के लिए संविधान को ही बदल डाला।
मैं दो पत्रिकाओं का यहां नाम लेना चाहूंगा। एक थी ‘क्रॉस रोड्स’, जो वामपंथी विचार से प्रेरित थी, मद्रास से निकलती थी। दूसरी है, ‘आर्गेनाइजर’। ये दोनों ही पत्रिकाएं कांग्रेस को इतनी नागवार गुजरीं कि इन पर प्रतिबंध लगा दिया गया। मगर जब अदालत ने फैसले का उलट दिया तो उसके बाद कांग्रेस ने संविधान में संशोधन करने का मन बनाया। संविधान में पहले संशोधन को पारित करने के लिए कई दिनों तक बहस चली। इस बहस में डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर जो जोरदार बहस की है, वह आज भी उतनी प्रासंगिक है, जितनी 1950 के दशक में थी। आजाद भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर जिस तरह की वकालत हमारे प्रेरणास्रोत और मार्गदर्शक डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने की है, वह अपने आप में बेमिसाल है।
आज देश में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर फिर से एक बहस छिड़ी है। मजे की बात यह है कि जो लोग आज मीडिया की स्वतंत्रता के हनन का आरोप लगाते हैं वे भूल जाते हंै कि चाहे अटल जी की रही हो या आज की मोदी जी की सरकार, उन्होंने कभी, किसी भी मीडिया हाउस पर न तो कोई रोक लगाई, न ही किसी पर प्रतिबंध लगाया। जबकि कांग्रेस सरकार ने तो संविधान संशोधन तक कर डाला। कांग्रेस पार्टी का पूरा इतिहास हर तरह की स्वतंत्रता का हनन करने की घटनाओं से भरा पड़ा है।
पाञ्चजन्य की यात्रा साधनों के अभाव और सरकारी प्रकोपों के विरुद्घ राष्ट्रचेचना की जिजीविषा और संघर्ष की प्रेरणादायी गाथा है। पाञ्चजन्य राष्ट्रीयता का प्रहरी, सांस्कृतिक चेतना का अग्रदूत और राष्ट्रीय स्वाभिमान एवं शौर्य का स्वर बना रहा। पाञ्चजन्य स्वाधीनता आंदोलन की मूल प्रेरणाओं से जोड़े रखने के साथ ही राष्ट्रीय पुनर्निर्माण के लिए खतरा उत्पन्न करने वाली प्रवृत्तियों एवं शक्तियों के खिलाफ लगातार चेताता रहा है। जब मिशन की स्पष्टता होती है तो दमन से आपको दबाया नही जा सकता।
आज देखने में आता है कि तनिक भी विपरीत परिस्थिति आने पर कुछ लोग अपनी धारा बदल लेते हैं। ऐसे में विश्वासनीयता का संकट स्वाभाविक है। जब देश में आपातकाल लगा तो हम सबने देखा कि किस तरह एक बड़े मीडिया वर्ग ने सत्ता के सामने रेंगना शुरू कर दिया था। मैं पाञ्चजन्यकी विश्वासनीयता को प्रामाणिक मानता हूं क्योंकि किसी भी दबाव या दमन के कारण इसने अपने विचार की दिशा नहीं बदली है, देश हित में जो कुछ भी लगा उसे बेबाकी से रखा है। पाञ्चजन्य ने हमेशा उन मुद्दों की बात उठाई है जो देश और समाज हित से जुड़े होते हैं। अपनी 75 वर्ष लंबी यात्रा में पाञ्चजन्य ने राष्ट्रहित के प्रहरी के रूप में काम किया है।
भारत में पत्रकारिता का जन्म विदेशी आक्रांताओं से लड़ने के लिए हुआ था।
भारतेन्दु ने उद्देश्यपरक और प्रयोगधर्मी पत्रकारिता की अलख जगाई। 1877 में पं. बालकृष्ण भट्ट ने ‘हिन्दी प्रदीप’ निकालकर मिशन पत्रकारिता की शुरुआत की। महामना मालवीय ने अपनी दृढ़निश्चयी पत्रकारिता से आजादी और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के औजार गढ़े। यह सही है कि स्वतंत्रता के बाद, भारत में प्रेस ने प्रहरी की भूमिका निभाई और यह जनता की समस्याओं और उनकी आकांक्षाओं का प्रतिबिंब रही। इस देश में आज मीडिया का परिदृश्य हजारों पत्रिकाओं एवं समाचार-पत्रों, सैकड़ों टी.वी. चैनलों और अनेक रेडियो स्टेशनों से भरा हुआ है। निस्संदेह, हमारे पास सोशल मीडिया भी है जो इस डिजिटल युग में सूचना-सम्प्रेषण के प्रमुख साधनों में से एक बन गया है।
किसी समाचार-पत्र अथवा समाचार चैनल को चलाने का उद्देश्य केवल वाणिज्यिक हित में नहीं होना चाहिए। मैं समाचार-पत्रों और टी.वी. चैनलों से रातोंरात दानशील संगठन बनने के लिए नहीं कह रहा हूं अपितु सामाजिक दायित्वों और व्यापारिक उद्यमों के बीच थोड़ा संतुलन साधने की आवश्यकता है। मैं यह महसूस करता हूं कि आजकल के पत्रकारों को सटीकता, निष्पक्षता, वस्तुनिष्ठता, समाचारों की उपयुक्तता और स्वतंत्रता के बुनियादी मूल्यों का पालन करना चाहिए। अपने प्रतिद्वंद्वियों अथवा प्रतिस्पर्धियों को हराने की होड़ में गलत खबरें नहीं दी जानी चाहिए।
यह एक सुखद संयोग है कि जहां पाञ्चजन्य आज अपने अमृतकाल में प्रवेश कर रहा है, वहीं भारत भी अपनी आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है। इसलिए आज जहां हम राष्ट्रवादी पत्रकारिता का उत्सव मना रहे हैं, वहीं भारत की स्वतंत्रता के अमृतकाल को भी समृद्ध कर रहे हैं। पाञ्चजन्य केवल समाचार-विचार का माध्यम नहीं है बल्कि यह राष्ट्रवादी विचार का दर्शन और अभिव्यक्ति भी है। एक लेखक और पत्रकार के साथ-साथ संपादक के रूप में भी दीनदयाल जी का पाञ्चजन्य पर खासा प्रभाव पड़ा। दीनदयाल जी की तरह अटल जी ने भी पाञ्चजन्य को अपने परिश्रम से सजाया-संवारा है। अटल जी एक राजनेता थे, कवि थे, लेखक और संपादक की भूमिका भी उन्होंने निभाई। 1998 में जब पाञ्चजन्य ने अपनी स्वर्ण जयंती मनाई थी तो उस कार्यक्रम में वे मुख्य अतिथि के रूप में आए थे।
प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी का मानना है कि भारतीय प्रतिभा और उनकी रचनात्मकता का समुचित विकास भारतीय भाषाओं में ही संभव है। आप कल्पना करें जब भारतवासी अपनी उन मातृ भाषाओं में विचार करेंगे जिस भाषा में वे सांस लेते हैं, तो देश की रचनात्मक शक्ति में कितनी भारी वृद्धि होगी। आज नई शिक्षा नीति के माध्यम से छात्रों को इंजीनियरिंग और मेडिकल की पढ़ाई भी हिंदी भाषा में शुरू करा दी गई है। भाषाई पत्रकारिता भी भारतीय भाषाओं के विकास से लाभान्वित होगी।
मीडिया इस देश और समाज का अभिन्न अंग है। हाल के वर्षों में हमने देखा है कि मीडिया ने काफी सकारात्मक और रचनात्मक भूमिका भी निभाई है। कोरोना के संकट के समय पत्रकारों ने कर्मयोगियों की तरह काम किया, यहां तक कि स्वच्छ भारत अभियान की सफलता में उनकी भी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। इसी तरह आज देश में डिजिटल भुगतान के बारे में जागरूकता बढ़ाने में भी मीडिया की सकारात्मक भूमिका रही है।
आज जब देश अमृतकाल के दौरान एक आत्मनिर्भर और स्वाभिमानी भारत की दिशा में काफी आगे बढ़ चुका है, ऐसे में मीडिया को इस दिशा में भी सहयोग करने की जरूरत है। ऐसा नहीं है कि मीडिया को आलोचना नहीं करनी चाहिए मगर जहां देशहित का सवाल हो, वहां आलोचना के लिए आलोचना ठीक नहीं है। समाज में पत्रकार का वही स्थान होता है जो एक शिक्षक का होता है। जो समाचार के साथ छेड़छाड़ करता है वह पत्रकार नहीं हो सकता है। समाचार चयन में पक्षपात नहीं होना चाहिए। पाञ्चजन्य में कई बार अपने लेखों में दीनदयाल जी सरकार की आलोचना करते थे, मगर उनके मन में किसी के प्रति अपमान का, कटुता का भाव नहीं था। राष्ट्रहित को ध्यान में रखते हुए अपनी बात मजबूती से रखना ही स्वस्थ पत्रकारिता है।
आज जब भारत आत्मनिर्भर होने की दिशा में आगे बढ़ रहा है तो उसकी आधारशिला देश की आंतरिक और बाह्य सुरक्षा की मजबूती पर तैयार हो रही है। देश का रक्षा मंत्री होने के नाते मैं यह भरोसा देना चाहता हूं कि आज भारत उसी दिशा में बढ़ चला है जिसकी कल्पना 75 साल पहले पंडित दीनदयाल उपाध्याय, डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी और बाद में अटल जी जैसी महान विभूतियों ने की थी। इस देश को खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर बनाने, रक्षा की जरूरतों की पूर्ति के मामले में आत्मनिर्भर बनाने, यहां तक कि भारत को एक परमाणु शक्ति बनाने का सपना तो दीनदयाल जी का ही सपना था, जिसके बारे में उन्होंने अनेक अवसरों पर पाञ्चजन्य में भी लिखा था।
आज हमारे सामने अवसर है, क्षमता भी है, हमारा संकल्प भी है कि हम भारत को पुन: विश्वगुरु के पद पर आसीन करेंगे। पाञ्चजन्य की आधारशिला भी इसी धरातल पर रखी गई थी। अमृतकाल उस संकल्प की सिद्धि का अवसर है। हमें उसी दिशा में आगे बढ़ने की जरूरत है।
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