काशी और तमिलनाडु का नेह बंधन

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जे पी पाण्डेय

वाराणसी में ‘काशी-तमिल संगमम्’ का अनूठा कार्यक्रम संपन्न हुआ। इस संगमम् ने भारतवासियों को यह स्पष्ट संदेश दिया कि उत्तर से लेकर दक्षिण तक भारत सदियों से सांस्कृतिक रूप से एक है

जब भी किसी भारतीय को इतिहास की पुस्तक में गांधार से लेकर मगध, चंद्रकेतुगढ़, अवंती, धन्यकटक, चोल, पांडव और चेर का मानचित्र देखने को मिलता है, वह भारतीयता के एक अलग आनंद में डूब जाता है। आज से 2000 वर्ष से अधिक समय पूर्व से यह देश राजनीतिक एकता के सूत्र में बंधा था। एक अखंड भारत की परिधि के भीतर बनते-बिगड़ते राजवंश और राज्य भारत की एकरूपता को रूपायित करते हैं।

हमारी सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक एकता का कालखंड तो उससे भी हजारों साल पुराना है। इस एकता के दो किनारों पर विद्यमान काशी और तमिलनाडु भारतीयता के दो सारस्वत वाचक हैं। एक तरफ परम पावनी मां-गंगा के तट से आती मधुर स्वर लहरी और दूसरी ओर मां-कावेरी के प्रवाह का कलकल गान, एक तरफ काशी विश्वनाथ मंदिर के हर-हर महादेव जयघोष के साथ घंटों का नाद और उधर रामेश्वर धाम में ॐ नमो शिवाय के साथ घंटों का घन-घन निनाद काशी-तमिलनाडु के जन, जमीन, आस्था और संस्कृति सम्मिलन का उद्घोष प्रतीत होता है।

काशी में 17 नवंबर से 16 दिसंबर, 2022 तक आयोजित काशी तमिल संगमम् उदात्त अनुभव की एक नई शुरुआत है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने उद्घाटन भाषण में इसे भारत की वैविध्यपूर्ण संस्कृति का उत्सव कहा। काशी-तमिल संगमम् में काशीवासियों और तमिलनाडु के आगंतुकों के बीच मिलन, समृद्ध तमिल भाषा, संस्कृति, कला, व्यंजनों का प्रदर्शन, आध्यात्मिक, सांस्कृतिक, वास्तुकला, व्यापार, शिक्षा, दर्शन, कला, नृत्य, संगीत सहित संस्कृति के विविध रूपों के दर्शन हुए। साथ ही कला, खेल, साहित्य और फिल्म आदि आयोजनों से संगमम् ने तमिलनाडु-काशी बंधन को सुदृढ़ करने का कार्य किया।

काशी की महिमा

तमिल परंपरा में माना जाता है कि काशी के शिवलिंग की पूजा करने से समस्त पाप धुल जाते हैं।
आदिशंकर ने काशी प्रवास में ब्रह्मसूत्र पर अपनी टीका पूरी की थी।
तमिल के प्रख्यात कवि सुब्रमण्यम भारती लंबे समय तक काशी में रहे और उन्होंने संस्कृत और हिन्दी भाषा सीखी।
महर्षि अगस्त्य काशी से तमिलनाडु गए। चैतन्य महाप्रभु ने भी ‘वृद्ध काशी’ में भगवान शिव की पूजा की थी।
शैव संत तिरुनावुक्करासर के 7वीं शताब्दी में कैलाश यात्रा के साथ काशी आने का वर्णन मिलता है।
वाराणसी के संगीतकारों एवं दक्षिण के पारंपरिक संगीत विद्यालयों के बीच संबंध रहे हैं।

अयोध्या और तमिलनाडु के बीच जनसम्पर्क का प्रथम प्रामाणिक उदाहरण 7,000 वर्ष पूर्व का माना जा सकता है, जब भगवान् श्रीराम रामेश्वरम पहुंचे थे। समुद्र के जलस्तर के नीचे स्थित श्रीराम सेतु इसका जीवंत प्रमाण है। वाल्मिीकि रामायण के अनुसार लंका विजय के बाद ऋषियों ने सुझाव दिया था कि काशी से एक शिवलिंग को रामेश्वरम लाकर उसे पूजा जाए। तमिल परंपरा में माना जाता है कि काशी के शिवलिंग की पूजा करने से समस्त पाप धुल जाते हैं। मान्यता है कि लंका से लौटते समय माता सीता ने रेत से शिवलिंग बनाया और उसकी पूजा की। बाद में हनुमान काशी से शिवलिंग को लाए और उसे एक अलग मंदिर में स्थापना कर उनकी पूजा की गई।

रामेश्वरम-काशी का जुड़ाव वाकई अनूठा है। तमिल लोग रामेश्वरम के तट से रेत को इकट्ठा करते हैं और विश्वनाथ बाबा के दर्शन के लिए काशी आते हैं और वहां से रामेश्वरम में अभिषेक करने के लिए मां गंगा के जल के साथ लौटते हैं। काशी को कांची के साथ सात मोक्षपुरियों में से एक माना जाता है। तमिलनाडु में काशी विश्वनाथ मंदिरों की बहुतायत है। तमिलनाडु में वृद्धाचलम को प्राचीन साहित्य में ‘वृद्ध काशी’ के रूप में संदर्भित किया गया है।

शैव और वैष्णव दोनों भक्ति परंपराओं के विद्वानों का काशी और तमिलनाडु से गहरा संबंध रहा है। आदिशंकराचार्य ने काशी प्रवास में ब्रह्मसूत्र पर अपनी टिप्पणी पूरी की थी। तमिल के महाकवि सुब्रमण्यम भारती लंबे समय तक काशी में रहे और उन्होंने संस्कृत और हिन्दी भाषा सीखी। ऋषि अगस्त्य काशी से तमिलनाडु गए। चैतन्य महाप्रभु ने भी वृद्ध काशी में भगवान शिव की पूजा की थी। शैव संत तिरुनावुक्करासर के 7वीं शताब्दी में कैलाश यात्रा के साथ काशी आने का वर्णन मिलता है। लगभग 11वीं शताब्दी में वैष्णव आचार्य श्री रामानुज, तमिलनाडु के 14वीं शताब्दी के संत अरुणगिरिनाथर के काशी आने का उल्लेख है। आज भी किसी भी दिन काशी विश्वनाथ मंदिर में तमिल भक्तों को बहुतायत में देखा जा सकता है।

तमिल दुनिया की सबसे प्रिय और जीवित सबसे पुरानी भाषाओं में से एक है। तमिल और संस्कृत दोनों भाषाओं के आपसी संगम से अनेक शब्दों और भावों का आपस में सप्रेम आदान-प्रदान हुआ, जिससे दोनों भाषाएं और समृद्ध हुर्इं। आदान-प्रदान की यह प्रक्रिया हिन्दी और तमिल में भी चलती रही। अभी हाल ही में मुझे तमिलनाडु जाने का मौका मिला। मैंने ध्यान से लोगों को बात करते सुना तो ‘मुखम’, ‘विमाना’, ‘देवम’, ‘पुथ्थकम’ (पुस्तक), आधि (आदि-शुरुआत), ‘समीपम’, ‘न्यायम’, कच्चेरी (कचहरी), कुदुंबम (कुटुंब-परिवार), ‘भयम’, ‘कारनम’ जैसे अनेक शब्दों ने मुझे उनकी बात का सार समझने में मदद की।

व्यवसाय और व्यापार में भी काशी-तमिल संबंधों का लंबा इतिहास है। प्रसिद्ध हस्तकला, तंजावुर आर्ट प्लेट्स की उत्पत्ति काशी के धातु शिल्प से मानी जाती है। तंजावुर चित्रकला, तंजावुर वीणा में भी काशी-तमिल संबंधों की प्रगाढ़ता देखी जा सकती है। वाराणसी के संगीतकारों एवं दक्षिण के पारंपरिक संगीत विद्यालयों के बीच संबंध रहे हैं।

शास्त्रीय कर्नाटक शैली में संगीत की भारतीय शैली का प्रभाव सर्वविदित है। कर्नाटक के संगीत मर्मज्ञ श्री मुथुस्वामी दीक्षितार, काशी में पले-बढ़े और उन्हें कई हिंदुस्थानी रागों को शास्त्रीय कर्नाटक धारा में प्रस्तुत करने का श्रेय जाता है। महान गायक एम. एस. सुब्बुलक्ष्मी ने काशी की प्रसिद्ध गायिका सिद्धेश्वरी देवी से संगीत सीखा था।

तमिलनाडु में विवाह समारोहों के दौरान काशी यात्रा की प्रथा अभी भी एक रस्म के रूप में प्रचलित है, जिसमें युवा दूल्हा ज्ञान प्राप्त करने के लिए काशी के लिए रवाना होता है। इसी ज्ञान को चाहने वाले वर के लिए दुल्हन को पत्नी के रूप में स्वीकार करने की सलाह दी जाती है। उत्तर भारत में भी रामेश्वरम की यात्रा सभी परिवारों में एक अभीष्ट है।

काशी और तमिलनाडु के बीच एक शाश्वत संबंध सदा से विद्यमान रहा है। तमिल-हिन्दी और उत्तर-दक्षिण का यह मिलन प्रधानमंत्री मोदी के ‘एक भारत-श्रेष्ठ भारत’ की संकल्पना को साकार करने का सशक्त माध्यम हो सकता है। ऐसे आयोजन आगे भी किए जाने चाहिए जिनसे भारतीयता के बिखरे मोतियों को एकसूत्र में पिरोने में मदद मिलेगी। उच्च शैक्षिक संस्थानों में ‘काशी-तमिल संगमम् सीट’ बनाई जानी चाहिए और इस पर पठन-पाठन और शोध के काम किए जाने चाहिए। हमारे पूर्वजों के गहरे संबंधों को भावी पीढ़ी की आत्मीयता में परिलक्षित होना चाहिए।
(लेखक शिक्षा मंत्रालय, भारत सरकार में स्कूली शिक्षा निदेशक हैं)

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