आज युवा भारत के कालजयी मंत्रदृष्टा स्वामी विवेकानंद की 160वीं जयंती है। स्वामी जी के ओजस्वी विचारों से अनुप्राणित होकर हम भारतवासी उनके जन्मोत्सव (12 जनवरी) को युवा दिवस के रूप में मनाते हैं। उनका जन्मदिन राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाए जाने का प्रमुख कारण उनका दर्शन, सिद्धांत, अलौकिक विचार और उनके आदर्श हैं, जिनका उन्होंने स्वयं पालन किया और भारत के साथ-साथ अन्य देशों में भी उन्हें स्थापित किया। उनके ये विचार और आदर्श आज भी युवाओं में नई शक्ति और ऊर्जा का संचार करने में पूर्ण सक्षम हैं।
उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत’’ (कठोपनिषद् 3/14) अर्थात उठो, जागो, श्रेष्ठ (आचार्यों) को पाकर ज्ञान प्राप्त करो; ध्येय की प्राप्ति तक कहीं मत रुको; उपनिषद् के इस सूक्त को अपने जीवन का मूल मंत्र बनाकर तदयुग के प्रसुप्त राष्ट्रजीवन में राष्ट्रीय नवजागरण का तुमुल शंखनाद करने वाले इस महामनीषी की कालजयी विचार संजीवनी आज भी हमारी पथ प्रदर्शक बन सकती है। आज जब हम देशवासी आजादी का अमृतकाल मना रहे हैं, स्वामी जी के विचारों के आलोक में हम सब स्वतन्त्र भारत के नागरिक अपने राष्ट्रीय कर्त्तव्यों की भलीभांति समीक्षा कर सकते हैं कि आखिर हम कहाँ चूक गये? क्यों विश्ववन्द्य माँ भारती आज अपनी ही सन्तानों से आहत हैं। क्यों देश की युवा शक्ति त्याग-बलिदान, प्रतिभा एवं ज्ञान के गौरव से दीप्त होने की बजाय अपसंस्कृति के संजाल, आपराधिक कृत्यों, घोटालों, जालसाजी, अलगाव एवं आतंक की कालिमा से धुँधली हो रही है।
भारतमाता के प्रति अगाध श्रद्धा स्वामी जी के रोम-रोम में समायी थी। इंग्लैंड से विदा लेने से पूर्व एक अंग्रेज मित्र ने स्वामी विवेकानंद से पूछा था, ‘’स्वामीजी! चार वर्षों तक विलासिता, चकाचौंध तथा भौतिकता से परिपूर्ण पश्चिमी जगत का अनुभव लेने के बाद अब आपको अपनी मातृभूमि कैसी लगेगी?’ स्वामीजी ने उत्तर दिया- ‘यहाँ आने से पूर्व मैं भारत से प्रेम करता था परंतु अब तो भारत की धूलिकण तक मेरे लिए पवित्र हो गयी है। अब मेरे लिए वह एक पुण्यभूमि है – एक तीर्थस्थान है!’ ऐसी थी हमारे परम पूजनीय स्वामी विवेकानंद की भारत भक्ति। स्वामीजी के शब्दों में-”यह वही प्राचीन भूमि है, जहाँ दूसरे देशों को जाने से पहले तत्वज्ञान ने आकर अपनी वासभूमि बनायी थी। यह वही भारत है जहाँ के आध्यात्मिक प्रवाह का स्थूल प्रतिरूप उसके समुद्राकार नद हैं। जहाँ चिरन्तन हिमालय अपने हिमशिखरों द्वारा स्वर्ग राज्य के रहस्यों की ओर निहार रहा है। यह वही भारत है जिसकी भूमि पर संसार के सर्वश्रेष्ठ ऋषियों की चरण रज पड़ी है। यहीं सबसे पहले मनुष्य के भीतर प्रकृति तथा अंतर्जगत के रहस्योद्घाटन की जिज्ञासाओं के अंकुर उगे थे। आत्मा का अमरत्व, अंतर्यामी ईश्वर एवं जगत्प्रपंच तथा मनुष्य के भीतर सर्वव्यापी परमात्मा विषयक मतवादों का पहले-पहल यहीं उद्भव हुआ था।‘’
अन्यत्र वे लिखते हैं, ‘’अध्यात्म भारतीय जीवन का मूल मंत्र रहा है लेकिन हम साम्प्रदायिक कभी नहीं रहे। यूरोप तथा अन्य देशों में राजनीतिक विचार ही राष्ट्रीय एकता का आधार मानी जाती हैं लेकिन हमारी आध्यात्मिक भावनाएं व हमारी साँस्कृतिक विरासत ही हमारे राष्ट्रीय जीवन का मूल आधार है, लेकिन यह आध्यात्मिक कट्टरता का पर्याय नहीं, पारस्परिक आत्म-भाव एवं सौहार्द का विशेषण है। हमारा भारत विविध सम्प्रदायों का आश्रय-स्थल है। यहाँ की आध्यात्मिक विचारधारा का सर्वमान्य सिद्धान्त रहा है-एकं सद्विप्राः बहुधा वदन्ति। फिर साम्प्रदायिक द्वेष क्यों? इसी शक्ति के बल पर हमारा भारत शताब्दियों के आघात, विदेशियों के शत-शत आक्रमण और सैकड़ों आचार-व्यवहारों के विपर्यय सहकर भी अक्षय बना हुआ है।‘’ स्वामीजी स्पष्ट उद्घोष करते हैं-”मेरा दृढ़ विश्वास है कि शीघ्र ही भारतवर्ष किसी में भी जिस श्रेष्ठता का अधिकारी नहीं था, शीघ्र ही उस श्रेष्ठता का अधिकारी हो जाएगा। जो अंधे हैं वे ही देख नहीं सकते और जो विकृत बुद्धि हैं वे ही नहीं समझ सकते कि हमारी मातृभूमि अपनी गम्भीर निद्रा से अब जाग रही है। अब उसे कोई रोक नहीं सकता। अब यह फिर से सो भी नहीं सकती। कोई बाहरी ताकत इस समय इसे दबा नहीं सकती। गौरव का विषय है कि स्वामी जी का यह महास्वप्न आज एक प्रबल नेतृत्व में आकार लेता दिख रहा है। ऐसे में हम राष्ट्रवासियों के कर्त्तव्य और बढ़ जाते हैं।
स्वामी जी का मानना था कि भारतवासियों में शिक्षा, सुसंस्कारों का रोपण करके ही राष्ट्र की उज्ज्वल भवितव्यता साकार हो सकती है। उन्होंने देशवासियों को गरीबी व अशिक्षा के अज्ञानजन्य अंधकार से बाहर निकलकर ज्ञानार्जन की प्रेरणा दी थी। वे चाहते थे कि अपने देशवासी समाज के समक्ष उपस्थित विभिन्न समस्याओं के प्रति सचेत हों और उनके निराकरण का मार्ग खोजें। इसी कारण वे कहते थे कि मेरे सपनों का भारत महलों नहीं वरन झोंपड़ियों के ही निश्छल-निर्मल हृदयों से उठकर आएगा। यदि हम पुनः राष्ट्रीय गौरव को दीप्त करना चाहते हैं, तो हम जन-समुदाय में शिक्षा का प्रसार करके वैसा कर सकते हैं। स्वामी जी कहते थे, ‘’झोपड़ियों में बसने वाला जो भारत अपना मनुष्यत्व विस्मृत कर चुका है, हमें उन्हें शिक्षित कर उनका खोया हुआ व्यक्तित्व वापस करना है। अनपढ़ शिक्षक के निकट नहीं आ सकते तो शिक्षक को उनके पास घर, खेत, कारखाने और हर जगह पहुँचना होगा। हमारे शास्त्र-ग्रन्थों में आध्यात्मिकता के रत्न विद्यमान हैं और जो अभी थोड़े ही मनुष्यों के अधिकार में मठों और अरण्यों में छिपे हुए हैं, सबसे पहले उन्हें निकालना होगा। मैं इन तत्वों को निकाल कर इन्हें सबकी, भारत के प्रत्येक मनुष्य की सार्वजनिक सम्पत्ति बना देना चाहता हूँ। वेदान्त शिक्षा देता है कि अपनी आत्मा का आह्वान करो और अपने देवत्व को प्रदर्शित करो। अपने बच्चों को सिखाओ कि वे दिव्य हैं, बाकी सब अपने आप हो जाएगा। कर्मरत रहो अपने अहं को शून्य में विलीन हो जाने दो, फिर देखो मेरे स्वप्नों के भारत को अभ्युदय कैसे होता है? यह नया भारत निकलेगा हल पकड़े किसानों की कुटी भेदकर, माली, मोची, मेहतरों की झोंपड़ियों से। निकलेगा बनिये की दुकानों, भुजवा के भाड़ के पास से, कारखाने से, हाट से, बाजार से निकल पड़ेगा। झाड़ियों, जंगलों, पहाड़ों, पर्वतों से। अटल जीवनी शक्ति ये लोग मुट्ठी भर सत्त खाकर दुनिया उलट देंगे।‘’
सन् 1897 में मद्रास में युवाओं को संबोधित करते हुए कहा था, ‘’जगत में बड़ी-बड़ी विजयी जातियां हो चुकी हैं। हम भी महान विजेता रह चुके हैं। हमारी विजय की गाथा को महान सम्राट अशोक ने धर्म और आध्यात्मिकता की विजयगाथा बनाया है और अब समय आ गया है कि भारत फिर से विश्व पर विजय प्राप्त करे। यही मेरे जीवन का स्वप्न है और मैं चाहता हूं कि तुम में से प्रत्येक, जो कि मेरी बातें सुन रहा है, अपने-अपने मन में उसका पोषण करे और कार्यरूप में परिणित किए बिना न छोड़े। युवाओं के लिए उनका कहना था कि पहले अपने शरीर को हृष्ट-पुष्ट बनाओ, मैदान में जाकर खेलो, कसरत करो ताकि स्वस्थ-पुष्ट शरीर से धर्म-अध्यात्म ग्रंथों में बताये आदर्शो में आचरण कर सको। आज जरूरत है ताकत और आत्म विश्वास की, आप में होनी चाहिए फौलादी शक्ति और अदम्य मनोबल।‘’ स्वामी विवेकानन्द के उपर्युक्त उद्गार न केवल राष्ट्र के नीति-निर्माताओं एवं कर्णधारों के लिए आत्मावलोकन की प्रेरणा देते हैं, बल्कि भारत के जन-गण-मन के लिए कर्त्तव्य का निर्धारण करते हैं।
एक बार किसी ने स्वामीजी से कहा की संन्यासी को अपने देश के प्रति विशेष लगाव नहीं रखना चाहिए, बल्कि उसे तो प्रत्येक राष्ट्र को अपना ही मानना चाहिए। इस पर स्वामीजी ने उत्तर दिया – ‘जो व्यक्ति अपनी ही माँ को प्रेम तथा सेवा नहीं दे सकता, वह भला दूसरे की माँ को सहानुभूति कैसे दे सकेगा?’ अर्थात पहले देशभक्ति और उसके बाद विश्व प्रेम। स्वामी जी की महान प्रशंसिका तथा उनकी अमेरिकी शिष्या जोसेफिन मैक्लाउड ने एक बार उनसे पूछा था, ‘मैं आपकी सर्वाधिक सहायता कैसे कर सकती हूँ?’ तब स्वामीजी ने उत्तर दिया था, ‘भारत से प्रेम करो।’ भगिनी निवेदिता के शब्दों में यही विश्वास प्रतिध्वनित होता है – ‘भारत ही स्वामीजी का महानतम भाव था। भारत ही उनके हृदय में धड़कता था, भारत ही उनकी धमनियों में प्रवाहित होता था, भारत ही उनका दिवा-स्वप्न था और भारत ही उनकी सनक थी। वस्तुतः उनका भारत-प्रेम इतना गहन था कि आखिरकार वे भारत की साकार प्रतिमूर्ति ही बन गये थे।
विश्वकवि रवीन्द्रनाथ टैगोर ने उनके विषय में कहा था कि, ‘’यदि आप भारत को समझना चाहते हैं तो विवेकानंद का अध्ययन कीजिये। स्वामी जी सभी दृष्टियों से अतुल्य थे। ऐसा कोई भी न था, जो भारत के प्रति उनसे अधिक लगाव रखता हो, जो भारत के प्रति उनसे अधिक गर्व करता रहा हो और जिसने उनसे अधिक उत्साहपूर्वक राष्ट्रहित के लिए कार्य किया हो। उन्होंने कहा था, ‘अगले 50 वर्षों तक के लिए सभी देवी-देवताओं को ताक पर रख दो, पूजा करो तो केवल अपनी मातृभूमि की, सेवा करो अपने देशवासियों की, वही तुम्हारा जाग्रत देवता है। उन्होंने देशभक्ति का ऐसा राग छेड़ा कि वह आज भी गुंजायमान है।‘’
ज्ञात हो कि बहुत से क्रांतिकारी, देशभक्तों ने स्वामी विवेकानंद को अपना आदर्श मानकर, उनके बताए रास्ते पर चलकर अपना सर्वस्व, भारत माँ को समर्पित कर दिया। इनमें वीर सावरकर, महात्मा गांधी, सरदार भगत सिंह, बाल गंगाधर तिलक, महर्षि अरविंद, रवीन्द्रनाथ टैगोर, नेताजी सुभाषचंद्र बोस, बिपिन चंद्र पाल, जमशेद जी टाटा, विनोबा भावे, ब्रह्मबांधव उपाध्याय जैसे अनेक महापुरुषों के नाम उल्लिखित हैं। यही नहीं, उन्होंने भारत के बाहर दुनिया के अनेक देशों को भी राष्ट्रभक्ति का मर्म समझाया। जॉन हेनरी राइट, जे.जे.गुडविन, जॉन हेनरी बैरोज़, मार्कट्वैन जैसे सुप्रसिद्ध पाश्चात्य विद्वान भी स्वामी जी के विचारों से अत्यधिक प्रेरित हुए।
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