स्वामी विवेकानंद कहते थे कि चित्त-शुद्धि के लिए अपने चारों ओर फैले हुए असंख्य मानवों की सेवा करो। आपस में ईर्ष्या-द्वेष रखने के बजाय, आपस में झगड़े और विवाद के बजाय, तुम परस्पर एक-दूसरे की अर्चना करो
विवेकानंद अनूठे संन्यासी थे। संन्यासियों का एक वृहत् मठ भी उन्होंने खड़ा किया था एवं समाजसेवी युवकों को वे अविवाहित रहने का उपदेश देते थे। किन्तु गृहस्थों को वे हीन नहीं मानते थे। उलटे, उनका विचार था कि गृहस्थ भी ऊंचा और संन्यासी भी नीच हो सकता है। वे कहते थे, ‘‘मैं संन्यासी और गृहस्थ में कोई भेद नहीं करता। संन्यासी हो या गृहस्थ, जिसमें भी मुझे महत्ता, हृदय की विशालता और चरित्र की पवित्रता के दर्शन होते हैं, मेरा मस्तक उसी के सामने झुक जाता है।’’
नारियों के प्रति उनमें असीम उदारता का भाव था। वे कहते थे, ‘‘ईसा अपूर्ण थे, क्योंकि जिन बातों में उनका विश्वास था, उन्हें वे अपने जीवन में नहीं उतार सके। उनकी अपूर्णता का सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि उन्होंने नारियों को नरों के समकक्ष नहीं माना। असल में, उन्हें यहूदी संस्कार जकड़े हुए था, इसीलिए वे किसी भी नारी को अपनी शिष्या नहीं बना सके। इस मामले में बुद्ध उनसे श्रेष्ठ थे, क्योंकि उन्होंने नारियों को भी भिक्षुणी होने का अधिकार दिया था।’’
एक बार उनके एक शिष्य ने पूछा, ‘‘महाराज! बौद्ध मठों में भिक्षुणियां बहुत रहती थीं। इसीलिए तो देश में अनाचार फैल गया।’’ स्वामी जी ने इस आलोचना का उत्तर नहीं दिया, किन्तु वे बोले, ‘‘पता नहीं, इस देश में नारियों और नरों में इतना भेद क्यों किया जाता है। वेदान्त तो यही सिखाता है कि सब में एक ही आत्मा निवास करती है। तुम लोग नारियों की सदैव निन्दा ही करते रहते हो, किन्तु बता सकते हो कि उनकी उन्नति के लिए अब तक तुमने क्या किया है? स्मृतियां रच कर तथा गुलामी की कड़ियां गढ़ कर पुरुषों ने नारियों को बच्चा जनने की मशीन बना कर छोड़ दिया। नारियां महाकाली की साकार प्रतिमाएं हैं। यदि तुमने इन्हें ऊपर नहीं उठाया, तो यह मत सोचो कि तुम्हारी अपनी उन्नति का कोई अन्य मार्ग है। संसार की सभी जातियां नारियों का समुचित सम्मान करके ही महान हुई हैं। जो जाति नारियों का सम्मान करना नहीं जानती, वह न तो अतीत में उन्नति कर सकी, न आगे उन्नति कर सकेगी।’’
स्वामी जी हिन्दुत्व की शुद्धि के लिए उठे थे तथा उनका प्रधान क्षेत्र धर्म था। किन्तु धर्म और संस्कृति, ये परस्पर एक-दूसरे का स्पर्श करते चलते हैं। भारतवर्ष में राष्ट्रीय पतन के कई कारण आर्थिक और राजनीतिक थे। किन्तु बहुत से कारण ऐसे भी थे, जिनका संबंध धर्म से था। अतएव, स्वामी विवेकानंद ने धर्म का परिष्कार भारतीय समाज की आवश्यकताओं को दृष्टिगत रख कर करना आरंभ किया और इस प्रक्रिया में उन्होंने कड़ी से कड़ी बातें भी बड़ी ही निर्भीकता से कह दीं। ‘‘शक्ति का उपयोग केवल कल्याण के निमित्त होना चाहिए। जब उससे पाप का समर्थन किया जाता है, तब वह गर्हित हो जाती है। युगों से ‘ब्राह्मण’ भारतीय संस्कृति का थातीदार रहा है। अब उसे इस संस्कृति को सब के पास विकीर्ण कर देना चाहिए। उसने इस संस्कृति को जनता में जाने से रोक रखा, इसीलिए भारत पर मुसलमानों का आक्रमण संभाव्य हो सका।…’’
मनुष्य देवताओं की अर्चना इसलिए करते हैं कि देवताओं का मन एक है। मन से एक होना समाज के अस्तित्व का सार है। किन्तु द्रविड़ और आर्य, ब्राह्मण और अब्राह्मण, इन तुच्छ विवादों में पड़ कर तुम जितना ही झगड़ते जाओगे, तुम्हारी शक्ति उतनी ही क्षीण होती जाएगी, तुम्हारा संकल्प एकता से उतना ही दूर पड़ता जाएगा। स्मरण रखो कि शक्ति-संचय और संकल्प की एकता, इन्हीं पर भारत का भविष्य निर्भर करता है
एकता का मंत्र
ऊंची और तथाकथित नीची जातियों के बीच सामाजिक पद-प्रतिष्ठा को लेकर जो संघर्ष है, स्वामी जी ने उससे पैदा होने वाले खतरों पर भी विचार किया था। इस संबंध में उनका समाधान यह था कि यदि ब्राह्मण कहलाने से सभी जातियों को संतोष होता है तो उचित है कि वे अपनी-अपनी सभाओं में यह घोषणा कर दें कि हम ब्राह्मण हैं। इससे भारत को बहुत बड़ी शक्ति प्राप्त होगी। एक तो देश में जातियों का भेद आप-से- आप समाप्त हो जाएगा। दूसरे, सभी वर्णों के लोग ब्राह्मण संस्कृति को स्वीकार करके आज के सांस्कृतिक धरातल से स्वयंमेव ऊपर उठ जाएंगे। हां, स्वामी जी का यह भी विचार था कि रुपया चाहे जिस विधा से भी प्राप्त हो जाए, किन्तु सामाजिक प्रतिष्ठा भारतवर्ष में अब भी संस्कृत भाषा के ज्ञान से मिलती है। अतएव, जो भी भारतवासी ब्राह्मण की प्रतिष्ठा वाला पद प्राप्त करना चाहता है, उसे संस्कृत में दक्षता अवश्य प्राप्त करनी चाहिए।
भारतीय एकता का महत्व स्वामी जी ने जनता के समक्ष अत्यंत सुस्पष्ट रूप में रखा, ‘‘अथर्ववेद में एक मंत्र है, जिसका अर्थ होता है कि मन से एक बनो, विचार से एक बनो। प्राचीन काल में देवताओं का मन एक हुआ, तभी से वे नैवेद्य के अधिकारी रहे हैं। मनुष्य देवताओं की अर्चना इसलिए करते हैं कि देवताओं का मन एक है। मन से एक होना समाज के अस्तित्व का सार है। किन्तु द्र्रविड़ और आर्य, ब्राह्मण और अब्राह्मण, इन तुच्छ विवादों में पड़ कर तुम जितना ही झगड़ते जाओगे, तुम्हारी शक्ति उतनी ही क्षीण होती जाएगी, तुम्हारा संकल्प एकता से उतना ही दूर पड़ता जाएगा।
स्मरण रखो कि शक्ति-संचय और संकल्प की एकता, इन्हीं पर भारत का भविष्य निर्भर करता है। जब तक महान कार्यों के लिए तुम अपनी शक्तियों का संचय नहीं करते, जब तक एक मन होकर तुम आत्मोद्धार के कार्य में नहीं लगते, तब तक तुम्हारा कल्याण नहीं है। प्रत्येक चीनी अपने ही ढंग पर सोचता है, किन्तु मुट्ठी भर जापानियों का मन एक है। इसके जो परिणाम निकले हैं, उन्हें तुम भलीभांति जानते हो। विश्व के समग्र इतिहास में यही होता आया है।’’
एक व्यावहारिक नेता के समान स्वामी जी ने भारतीयों के चरित्र के एक भीषण दोष पर अपनी उंगली रखी और काफी जोर देकर कहा, ‘‘हमारे देशवासियों में से कोई व्यक्ति जब ऊपर उठने की चेष्टा करता है, तब हम सब लोग उसे नीचे घसीटना चाहते हैं। किन्तु यदि कोई विदेशी आकर हमें ठोकर मारता है, तो हम समझते हैं, यह ठीक है। हमें इन तुच्छताओं की आदत पड़ गई है। लेकिन अब गुलामों को अपना मालिक आप बनना है। इसलिए दास-भावना को छोड़ दो। अगले पचास वर्ष तक भारत माता को छोड़ कर हमें और किसी का ध्यान नहीं करना है। यही देवी, यही हमारी जाति वास्तविक देवी है। सर्वत्र उसके हाथ दिखाई पड़ते हैं। सर्वत्र उसके पांव विराजमान हैं, सर्वत्र उसके कान हैं और सब कुछ पर उसी देवी का प्रतिबिम्ब छाया हुआ है।’’
यह अकरणीय है
धर्म-साधना के लोभ में जीवन से भाग कर गुफा में नाक-कान दबा कर प्राणायाम करने की परंपरा की, भारत में बड़ी महिमा थी। स्वामी विवेकानंद ने इस परंपरा की महिमा एक झटके में उड़ा दी। वे कहते हैं, ‘‘आधा मील की खाई तो हमसे पार नहीं की जाती, मगर हनुमान के समान हम समग्र सिन्धु को लांघ जाना चाहते हैं। यह होने वाली बात नहीं है। हर आदमी योगी बने, हर आदमी समाधि में चला जाए, यह गलत बात है। यह असंभव है, यह अकरणीय है। दिनभर कम-संकुल विश्व के साथ मिलन और संघर्ष तथा संध्या समय बैठ कर प्राणायाम। क्या यह इतना सरल कार्य है। तुमने तीन बार नाक बजाई है, तीन बार नासिका से भीतर की वायु को बाहर किया है, तो क्या इतने से ही ऋषिगण आकाश से होकर तुम्हारे पास चले आएंगे? क्या यह कोई मजाक है?
ये सारी बेवकूफी की बातें हैं। जिस चीज की जरूरत है, वह है चित्त-शुद्धि और चित्त-शुद्धि कैसे होगी? सबसे पहली पूजा विराट की होनी चाहिए, उन असंख्य मानवों की, जो तुम्हारे चारों ओर फैले हुए हैं। संसार में जितने भी मनुष्य और जीव-जन्तु हैं, सभी परमात्मा हैं, सभी परब्रह्म के रूप हैं। आपस में ईर्ष्या-द्वेष रखने के बजाय, आपस में झगड़े और विवाद के बजाय, तुम परस्पर एक-दूसरे की अर्चना करो, एक-दूसरे से प्रेम रखो। हम जानते हैं कि किन कर्मों ने हमारा सर्वनाश किया, किन्तु फिर भी हमारी आंख नहीं खुलती।’’
(‘संस्कृति के चार अध्याय’ से साभार)
टिप्पणियाँ