भारत के सांस्कृतिक इतिहास की विरासत को संजोकर रखने में उत्तराखंड राज्य का योगदान किसी भी दृष्टि से कम नहीं है। उत्तराखण्ड राज्य में अनेकों महान विभूतियों ने जन्म लिया है, जो आध्यात्मिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, पर्यावरण संरक्षण, कला, साहित्य, आर्थिक, देश की रक्षा एवं सुरक्षा जैसे अनेकों महत्वपूर्ण क्षेत्रों में विश्वप्रसिद्ध हुए हैं। देश की इन्हीं महान विभूतियों की कतार में स्थान प्राप्त करने वाले सबसे चर्चित और विख्यात प्रतिष्ठित नाम बैरिस्टर मुकुंदीलाल का आता है। मुकुन्दीलाल को एक प्रसिद्ध वकील, कुशल प्रशासक, चित्रकला के अमर अन्वेषक अपनी सृजनात्मक, गुणात्मक और भावात्मक विशिष्टताओं में ख्याति प्राप्त, उच्चकोटि के कलामर्मज्ञ, अमर मानवतावादी, लेखक, पत्रकार मशहूर शिकारी, फोटोग्राफर, पुष्प और पक्षी प्रेमी और भी न जाने किन-किन नामों से पहचाना जाता था।
बैरिस्टर मुकुन्दीलाल का जन्म 14 अक्टूबर सन 1885 में देवभूमि उत्तराखण्ड के चमोली जिले के पाटली गांव में हुआ था। मुकुन्दीलाल की प्रारम्भिक शिक्षा चोपड़ा, पौड़ी के मिशन हाईस्कूल में हुई थी। रैमजे इन्टर कॉलेज, अल्मोड़ा से हाईस्कूल और इन्टर की परीक्षा उन्होंने उस समय प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की थी। सन 1911 में तत्कालिक इलाहाबाद वर्तमान प्रयागराज से प्रथम श्रेणी में बीए स्नातक की परीक्षा उत्तीर्ण की, जिसके बाद उन्हें दानवीर घनानन्द खंडूड़ी द्वारा मिली आर्थिक सहायता से वह सन 1913 में इंग्लैण्ड में आगे की शिक्षा–दीक्षा के लिए चले गए थे। मुकुन्दीलाल सन 1919 में बार-एट.लॉ की डिग्री प्राप्त कर भारत लौट आए थे। इंग्लैंड में पढ़ाई के साथ-साथ मुकुन्दीलाल का प्रवासी स्वाधीनता संग्राम सेनानी शिवप्रसाद, प्रो.हेराल्ड लास्की, प्रो.गिलबर्ट गेर, दार्शनिक वर्टेड रसेल और साहित्यकार बर्नाड शा जैसे सुप्रसिद्ध लोगों के साथ प्रत्यक्ष संपर्क रहता था। सन 1914 में उनकी मुलाकात महात्मा गांधी से हुई थी।
मुम्बई में कस्तूरी रंगा अय्यर ने मुकुन्दीलाल को मद्रास आने तथा अपने साथ ‘हिन्दू’ में काम करने का ऑफर दिया था। मुकुन्दीलाल उनका आमंत्रण ठुकरा कर इलाहाबाद पहुंचे, जहां स्वयं पंडित जवाहर लाल नेहरू ने इनका गर्मजोशी से स्वागत किया था। इस दौरान इन्हें राष्ट्रीय नेताओं पंडित मोतीलाल नेहरू, जवाहर लाल नेहरू, रामेश्वरी नेहरू, सुन्दरलाल और महात्मा गांधी जैसे नेताओं के प्रत्यक्ष सम्पर्क में आने का मौका मिला। मुकुन्दीलाल ने अपने विचारों से सबको प्रभावित किया और जिसके बाद वह पूरी तरह से राजनीति में उतर आए थे। कांग्रेस की सदस्यता ग्रहण कर सन 1919 में मुकुन्दीलाल ने लैंसडाउन में वकालत करने का फैसला लिया था। इसके बाद इनका संपर्क–परिचय देश और प्रदेश के स्वतंत्रता सेनानियों और आन्दोलनकारियों से हुआ था। सन 1920 में मुकुन्दीलाल उत्तराखण्ड से एक प्रतिनिधिमण्डल लेकर अमृतसर के कांग्रेस सम्मेलन में गए और सम्मेलन से लौटने के बाद उन्होंने लैंसडाउन में कांग्रेस की स्थापना की थी। उन्होंने कांग्रेस के 800 सक्रिय सदस्य बनाये, तत्कालिक समय उत्तराखण्ड में कुली बेगार आन्दोलन अपने चरमकाल पर था।
मुकुन्दीलाल भी इस आन्दोलन में कूद पड़े। सन 1923 और सन 1926 में मुकुन्दीलाल जो अब बैरिस्टर मुकंदीलाल के नाम से प्रसिद्ध हो गये थे, गढ़वाल सीट से वह प्रान्तीय कौंसिल के लिए चुने गए थे। सन 1927 में वह कौंसिल के उपाध्यक्ष भी चुने गए थे। सन 1930 में बैरिस्टर मुकुन्दीलाल कांग्रेस से त्यागपत्र दे दिया था। सन 1930 में वीर चन्द्रसिंह गढ़वाली के साथ पेशावर काण्ड के सिपाहियों की पैरवी के लिये एबटाबाद चले आये थे। तत्कालिक अंग्रेज सरकार अपने अपमान जिसे राजद्रोह की संज्ञा दी गई थी, का बदला वीर चन्द्रसिंह गढ़वाली को फांसी देकर चुकाना चाहती थी। बैरिस्टर मुकंदीलाल की दमदार तर्क पूर्ण बहस से वह पेशावर कांड के सभी सिपाहियों को फांसी की सजा से बचाने में कामयाब रहे थे। सन 1938 से सन 1943 तक बैरिस्टर मुकुंदीलाल टिहरी रियासत के हाईकोर्ट के न्यायधीश रहे। इसके बाद वह 16 वर्षों तक टरपेन्टाइल फैक्ट्री, बरेली के जनरल मैनेजर रहे।
सन 1930 में कांग्रेस की सदस्यता से त्यागपत्र देने के 32 साल बाद और प्रांतीय कौंसिल के लिए सन 1936 में चुनाव हारने के बाद सन 1962 में उन्होंने पुनः राजनीति में प्रवेश कर गढ़वाल से सन 1962 में विधानसभा का निर्दलीय चुनाव लड़ा और विजय प्राप्त की, इसके तत्पश्चात वह कांग्रेस में सम्मिलित हो गए। सन 1967 में उन्होंने सक्रिय राजनीति से एक प्रकार से सन्यास ले लिया था। उन्होंने हर तरह से राजनीति से दूरी तो बना ली थी, परन्तु किसी न किसी रूप में गढ़वाल से जुड़े मामलों पर उनका पूरा ध्यान रहता था। बैरिस्टर मुकुन्दीलाल उत्तराखण्ड के विकास के लिए जीवनभर सतत प्रयत्नशील रहे। उत्तराखण्ड में गढ़वाल कमिश्नरी का गठन और मौलाराम स्कूल ऑफ गढवाल आर्ट्स की स्थापना का सम्पूर्ण श्रेय उनको ही दिया जाता है। एक कला समीक्षक, लेखक, सम्पादक, पत्रकार और संग्रहकार के रुप में उन्होंने अपना परचम देशभर में लहराया था। इटली के प्रसिद्ध समाचार पत्र “यंग इटली” की तर्ज पर उन्होंने लैंसडाउन से “तरुण कुमाऊँ” नाम से एक मासिक समाचार पत्र का सम्पादन और प्रकाशन शुरू किया था।
सुप्रसिद्ध मौलाराम के कवि-चित्रकार व्यक्तित्व को प्रकाश में लाने में इनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही थी, वरन इसका सम्पूर्ण श्रेय उन्हीं को दिया जाता है। बैरिस्टर मुकुन्दीलाल की “गढ़वाल पेन्टिंग्स” नामक प्रसिद्ध पुस्तक का प्रकाशन सन 1969 में भारत सरकार के प्रकाशन विभाग ने किया था। सन 1972 में उनको उत्तरप्रदेश ललित कला अकादमी की फेलोशिप मिली थी और सन 1978 में अखिल भारतीय कला संस्थान ने अपनी स्वर्ण जयन्ती के अवसर पर उनको सहर्ष सम्मानित किया था। बैरिस्टर मुकुंदीलाल एक कुशल शिकारी भी थे, उन्होंने अपने जीवनकाल में 5 शेर और 23 बाघों का शिकार किया था। कोटद्वार में स्थित उनके घर “भारती भवन” में पशु–पक्षियों और दुर्लभ फूलों का एक छोटा सा संग्रहालय भी है।
अपने जीवनकाल के 97 वर्षों में बैरिस्टर मुकुंदीलाल ने सनातन हिन्दू, आर्य समाज, सिख और बौद्ध विचारधाराओं को आत्मसात कर जीवन जिया और अपने अंतिम समय बौद्ध विचारधारा के साथ 10 जनवरी सन 1982 को कोटद्वार में निर्वाण को प्राप्त किया था। उत्तर प्रदेश के तत्कालिक राज्यपाल महामहिम बी.गोपाल रेड्डी ने कहा था कि “इसमें कोई दो राय नहीं कि बैरिस्टर मुकुन्दीलाल गढ़वाल के भीष्म पितामह है।”
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