पांच जनवरी की रात एक बार फिर दिल्ली-एनसीआर से लेकर जम्मू-कश्मीर तक में भूकम्प के झटके महसूस किए गए, रिक्टर स्केल पर जिसकी तीव्रता 5.9 रही। नेशनल सेंटर फॉर सीस्मोलॉजी (एनसीएस) के अनुसार भूकम्प का केन्द्र अफगानिस्तान के फैयजाबाद से 79 किलोमीटर दूर हिंदू कुश इलाका रहा। इससे पहले नए साल के पहले ही दिन एक जनवरी की सुबह भी दिल्ली-एनसीआर में 3.8 तीव्रता के भूकम्प के झटके महसूस हुए थे। हिमाचल प्रदेश के अलग-अलग इलाकों में तो 18 दिनों में पांच बार धरती डोल चुकी है। बीते कुछ महीनों में दिल्ली-एनसीआर इलाके में भी भूकम्प के कई झटके आ चुके हैं। नवम्बर में तो दो बार ऐसे बड़े भूकम्प आए, जिनमें से एक अति गंभीर श्रेणी का रिक्टर स्केल पर 6.3 तीव्रता का था, जिसका असर उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड सहित सात राज्यों के अलावा चीन और नेपाल तक महसूस किया गया था। आंकड़े देखें तो एनसीएस के मुताबिक वर्ष 2020 में दिल्ली-एनसीआर और आसपास के इलाकों में कुल 51 बार भूकम्प के झटके महसूस किए गए, जिनमें से कई रिक्टर स्केल पर तीन या उससे अधिक तीव्रता के थे। 2020 के बाद से भी दिल्ली-एनसीआर इलाका लगातार भूकम्प से झटकों से थर्रा रहा है। हालांकि राहत की बात यही है कि बार-बार लग रहे भूकम्प के झटकों से अब तक जान-माल का कोई बड़ा नुकसान नहीं हुआ है।
संसद में एक सवाल के जवाब में एनसीएस के आंकड़ों के हवाले से बताया गया था कि 1 जनवरी 2020 से 31 दिसम्बर 2020 तक देश में 965 बार भूकम्प आया और भूकम्प के ये सभी झटके रिक्टर पैमाने पर तीन या उससे अधिक तीव्रता के थे। बार-बार आ रहे भूकम्प के अध्ययन के लिए अब इसरो की सहायता से सैटेलाइट इमेजिंग की मदद ली जा रही है और एनसीएस, वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी देहरादून तथा आईआईटी कानपुर भूकम्प को लेकर गहन अध्ययन कर रहे हैं। बड़े खतरे के मद्देनजर देश में भूकम्प माइक्रोजोनिंग का कार्य भी शुरू किया जा चुका है, जिसमें क्षेत्रवार जमीन की संरचना आदि के हिसाब से जोनों के भीतर भी क्षेत्रों को भूकम्प के खतरों के हिसाब से तीन माइक्रोजोन में विभाजित किया जाता है। एनसीएस द्वारा किए गए एक अध्ययन के अनुसार 20 भारतीय शहरों तथा कस्बों में भूकम्प का खतरा सर्वाधिक है, जिनमें दिल्ली सहित नौ राज्यों की राजधानियां शामिल हैं। हिमालयी पर्वत श्रृंखला क्षेत्र को दुनिया में भूकम्प को लेकर सर्वाधिक संवेदनशील क्षेत्र माना जाता है और एनसीएस के अध्ययन के अनुसार भूकम्प के लिहाज से सर्वाधिक संवदेनशील शहर इसी क्षेत्र में बसे हैं।
बड़े भूकम्प का संकेत
कई भूगर्भ वैज्ञानिक आशंका जता रहे हैं कि भूकम्प के छोटे-छोटे झटके किसी बड़े भूकम्प का संकेत हो सकते हैं। कई अध्ययनों के आधार पर कहा गया है कि 72 फीसदी मामलों में हल्के भूकम्प ही शक्तिशाली भूकम्प के संकेत होते हैं। दिल्ली-एनसीआर में बार-बार लगते भूकम्प के झटकों को देखते हुए एक ओर जहां काफी समय से सवाल उठ रहे हैं कि क्या दिल्ली की ऊंची-ऊंची आलीशान इमारतें और अपार्टमेंट किसी बड़े भूकम्प को झेलने की स्थिति में हैं, वहीं देश के अन्य हिस्सों में भी मध्यम तीव्रता वाले लगते झटके वर्ष 2001 के विनाशकारी भूकम्प की यादें ताजा करा रहे हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि ऐसी कोई तकनीक नहीं है, जिससे भूकम्प आने के समय, स्थिति और तीव्रता की भविष्यवाणी की जा सके लेकिन यदि निजी इमारतें भूकम्प झेलने में कमजोर हैं तो उन्हें चरणबद्ध तरीके से मजबूत बनाए जाने और लोगों को भूकम्प जैसी स्थिति से निबटने को तैयार करने के लिए लगातार मॉक ड्रिल कराए जाने की सख्त जरूरत है। कुछ भूकम्प विशेषज्ञों के मुताबिक दिल्ली-हरिद्वार रिज में खिंचाव के कारण धरती बार-बार हिल रही है और ऐसे में आगे भी ऐसे झटकों का दौर जारी रहेगा। भूगर्भ वैज्ञानिकों के अनुसार दिल्ली एनसीआर में बार-बार आ रहे भूकम्पों से पता चल रहा है कि यहां के भू-गर्भीय फाल्ट सक्रिय हैं। एनसीएस के अनुसार इसी भू-गर्भीय फाल्ट में वर्ष 1700 से अभी तक 6 या उससे अधिक तीव्रता वाले कुल चार बड़े भूकम्प आ चुके हैं।
ऐसे आता है भूकम्प
विशेषज्ञों का कहना है कि भूकम्प की पूरी भविष्यवाणी तो संभव नहीं लेकिन यह अवश्य पता लगाया जा सकता है कि धरती के नीचे किस क्षेत्र में किन प्लेटों के बीच ज्यादा हलचल है और किन प्लेटों के बीच ज्यादा ऊर्जा पैदा होने की आशंका है। भूकम्प धरती की प्लेटों के टकराने से आते हैं। पूरी पृथ्वी कुल 12 टैक्टॉनिक प्लेटों पर स्थित है, जो पृथ्वी की सतह से 30-50 किलोमीटर तक नीचे हैं और इनके नीचे स्थित तरल पदार्थ (लावा) पर तैर रही हैं। ये प्लेट काफी धीरे-धीरे घूमती रहती हैं और इस प्रकार प्रतिवर्ष अपने स्थान से 4-5 मिलीमीटर खिसक जाती हैं। कोई प्लेट दूसरी प्लेट के निकट जाती है तो कोई दूर हो जाती है और ऐसे में कभी-कभी टकरा भी जाती हैं। इन प्लेटों के आपस में टकराने से ऊर्जा निकलती है, वही भूकम्प है। विशेषज्ञों के अनुसर भूकम्प तब आता है, जब ये प्लेटें एक-दूसरे के क्षेत्र में घुसने की कोशिश करती हैं। प्लेटों के एक-दूसरे से रगड़ खाने से बहुत ज्यादा ऊर्जा निकलती है, उसी रगड़ और ऊर्जा के कारण ऊपर की धरती डोलने लगती है। कई बार यह रगड़ इतनी जबरदस्त होती है कि धरती फट भी जाती है। भूकम्प विशेषज्ञों के मुताबिक जिन क्षेत्रों में भूकम्प का खतरा ज्यादा होता है, उसका कारण सैकड़ों वर्षों में धरती की निचली सतहों में तनाव बढ़ना होता है। दरअसल भूकम्प आने का मुख्य कारण टेक्टॉनिक प्लेटों का अपनी जगह से हिलना है लेकिन तनाव का असर अचानक नहीं बल्कि धीरे-धीरे होता है। भूकम्प की गहराई जितनी ज्यादा होगी, सतह पर उसकी तीव्रता उतनी ही कम महसूस होगी। भूकम्प का केन्द्र वह स्थान होता है, जिसके ठीक नीचे प्लेटों में हलचल से भूगर्भीय ऊर्जा निकलती है। उस स्थान पर भूकम्प का कंपन ज्यादा होता है और जैसे-जैसे कंपन की आवृत्ति दूर होती जाती हैं, उसका प्रभाव कम होता जाता है। हिमालय के नीचे भारत तथा आस्ट्रेलिया की प्लेटें मिली हुई हैं, जिन्हें इंडो-आस्ट्रेलियन प्लेट कहा जाता है। इन प्लेटों में जगह बन जाने पर धरती के अंदर हलचल होती है और फाल्ट लाइन का संबंध इन्हीं प्लेटों से है। ऐसे में यहां तेज भूकम्प आने पर उसका असर दिल्ली-एनसीआर तक पड़ सकता है।
दिल्ली एनसीआर काफी संवेदनशील
भूकम्प के लिहाज से दिल्ली एनसीआर काफी संवेदनशील है, जो दूसरे नंबर के सबसे खतरनाक सिस्मिक जोन-4 में आता है। वैज्ञानिक चेतावनी दे रहे हैं कि यदि इस इलाके में कोई बड़ा भूकम्प आया तो उसके बहुत भयानक परिणाम होंगे। भूगर्भ वैज्ञानिकों के अनुसार भारत में वर्ष 1885 से 2015 के बीच सात बड़े भूकम्प दर्ज किए गए हैं, जिनमें से तीन की तीव्रता 7.5 से 8.5 के बीच थी और वाडिया इंस्टीच्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी द्वारा कहा जा चुका है कि इस क्षेत्र में लगातार हो रही सिस्मिक गतिविधि के कारण दिल्ली में बड़ा भूकम्प आ सकता है। इसीलिए अधिकांश भूकम्प विशेषज्ञों का कहना है कि दिल्ली एनसीआर की इमारतों को भूकम्प के लिए तैयार करना शुरू कर देना चाहिए ताकि बड़े भूकम्प के नुकसान को कम किया जा सके। एक अध्ययन के मुताबिक दिल्ली में करीब 90 फीसदी मकान क्रंकीट और सरिये से बने हैं, जिनमें से 90 फीसदी इमारतें रिक्टर स्केल पर छह तीव्रता से तेज भूकम्प को झेलने में समर्थ नहीं हैं। एनसीएस के एक अध्ययन के अनुसार दिल्ली का करीब 30 फीसदी हिस्सा तो जोन-5 में आता है, जो भूकम्प की दृष्टि से सर्वाधिक संवेदनशील है। पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय की एक रिपोर्ट में भी कहा गया है कि दिल्ली में बनी नई इमारतें 6 से 6.6 तीव्रता के भूकम्प को झेल सकती हैं जबकि पुरानी इमारतें 5 से 5.5 तीव्रता का भूकम्प ही सह सकती हैं। विशेषज्ञ बड़ा भूकम्प आने पर दिल्ली में जान-माल का ज्यादा नुकसान होने का अनुमान इसलिए भी लगा रहे हैं क्योंकि छोटी सी दिल्ली की आबादी करीब सवा दो करोड़ है और प्रति वर्ग किलोमीटर में करीब दस हजार लोग रहते हैं। कोई भी बड़ा भूकम्प 300-400 किलोमीटर की रेंज तक असर दिखाता है।
ये अनुमान लगा रहे विशेषज्ञ
वैसे तो धरती के नीचे छोटे-मोटे एडजस्टमेंट होते रहते हैं, जिससे कभी-कभार भूकम्प के हल्के झटके महसूस होते रहते हैं लेकिन बार-बार लग रहे ऐसे झटकों को लेकर कुछ भूकम्प विशेषज्ञ तीन तरह के अनुमान लगा रहे हैं। पहला यह कि भूकम्प के हल्के झटके कुछ समय तक आते रहेंगे और फिर स्थिति सामान्य हो जाएगी। दूसरा, लगातार कुछ हल्के झटके आने के बाद एक बड़ा भूकम्प आ सकता है। विशेषज्ञों का कहना है कि प्रायः पांच-सात छोटे भूकम्प आने के बाद ही एक बड़ा भूकम्प आता है। तीसरा अनुमान यह है कि संभव है ऐसे हल्के भूकम्प किसी दूरस्थ इलाके में आने वाले बड़े भूकम्प का संकेत दे रहे हों। राष्ट्रीय भूकम्प विज्ञान केन्द्र के अधिकारियों के मुताबिक दिल्ली-एनसीआर में जमीन के नीचे दिल्ली-मुरादाबाद फाल्ट लाइन, मथुरा फाल्ट लाइन तथा सोहना फाल्ट लाइन मौजूद है और जहां फाल्ट लाइन होती है, भूकम्प का अधिकेन्द्र वहीं पर बनता है। उनका कहना है कि बड़े भूकम्प फाल्ट लाइन के किनारे ही आते हैं और केवल दिल्ली ही नहीं बल्कि पूरी हिमालयन बेल्ट को भूकम्प से ज्यादा खतरा है। हिन्दुकुश से अरूणाचल प्रदेश तक जाने वाले रेंज में ही बड़े भूकम्प आते हैं। हिमालय के केन्द्रीय हिस्से में 8 से 8.5 की तीव्रता के कई भूकम्प आ चुके हैं, जिनके कारण इस इलाके में गहरी दरारें पैदा हो गई हैं। भूवैज्ञानिकों के मुताबिक वर्ष 1934 में आए भूकम्प ने तो सतह पर 150 किलोमीटर लंबी दरार बना दी थी और हिमालय का यही हिस्सा ऐसे ही बड़े भूकम्पों की संभावनाएं संजोये हुए है।
ये है पैमाना
रिक्टर पैमाने पर जितनी ज्यादा तीव्रता का भूकम्प आता है, उतना ही ज्यादा कंपन होता है। रिक्टर पैमाने का हर स्केल पिछले स्केल के मुकाबले 10 गुना ज्यादा ताकतवर माना जाता है। रिक्टर पैमाने पर 2.9 तीव्रता का भूकम्प आने पर हल्का कंपन होता है, वहीं 7.9 तीव्रता के भूकम्प से इमारतें धराशयी हो जाती हैं। रिक्टर पैमाने पर भूकम्प की तीव्रता और उसके असर को समझना भी आवश्यक है। भूकम्प के दौरान धरती के भीतर से जो ऊर्जा निकलती है, उसकी तीव्रता को इसी से मापा जाता है और इसी तीव्रता से भूकम्प के झटके की भयावहता का अनुमान लगाया जाता है। 1.9 तीव्रता तक के भूकम्प का केवल सिस्मोग्राफ से ही पता चलता है। 2 से कम तीव्रता वाले भूकम्पों को रिकॉर्ड करना भी मुश्किल होता है और उनके झटके महसूस भी नहीं किए जाते हैं। सालभर में आठ हजार से भी ज्यादा ऐसे भूकम्प आते हैं। 2 से 2.9 तीव्रता का भूकम्प आने पर हल्का कंपन होता है जबकि 3 से 3.9 तीव्रता का भूकम्प आने पर ऐसा प्रतीत होता है, मानो कोई भारी ट्रक नजदीक से गुजरा हो। 4 से 4.9 तीव्रता वाले भूकम्प में खिड़कियों के शीशे टूट सकते हैं और दीवारों पर टंगे फ्रेम गिर सकते हैं। रिक्टर स्केल पर 5 से कम तीव्रता वाले भूकम्प को हल्का माना जाता है और वर्षभर में करीब छह हजार ऐसे भूकम्प आते हैं। 5 से 5.9 तीव्रता के भूकम्प में भारी फर्नीचर भी हिल सकता है और 6 से 6.9 तीव्रता वाले भूकम्प में इमारतों की नींव दरकने से ऊपरी मंजिलों को काफी नुकसान हो सकता है। 7 से 7.9 तीव्रता का भूकम्प आने पर इमारतें गिरने के साथ जमीन के अंदर पाइपलाइन भी फट जाती हैं। 8 से 8.9 तीव्रता का भूकम्प आने पर तो इमारतों सहित बड़े-बड़े पुल भी गिर जाते हैं जबकि 9 तथा उससे तीव्रता का भूकम्प आने पर हर तरफ तबाही ही तबाही नजर आना तय होता है। भूकम्प वैज्ञानिकों के अनुसार 8.5 तीव्रता वाला भूकम्प 7.5 तीव्रता के भूकम्प के मुकाबले करीब 30 गुना ज्यादा शक्तिशाली होता है। रिक्टर स्केल पर 5 तक की तीव्रता वाले भूकम्प को खतरनाक नहीं माना जाता लेकिन यह भी क्षेत्र की संरचना पर निर्भर करता है। भूकम्प का केन्द्र यदि नदी का तट हो और वहां भूकम्प रोधी तकनीक के बिना ऊंची इमारतें बनी हों तो ऐसा भूकम्प भी बहुत खतरनाक हो सकता है।
दूसरे देशों से ले सकते हैं सबक
बहरहाल, माना कि भूकम्प जैसी प्राकृतिक आपदाओं के समक्ष मनुष्य बेबस है क्योंकि ये आपदाएं प्रायः बगैर किसी चेतावनी के आती हैं, जिससे इनकी मारक क्षमता कई गुना बढ़ जाती है लेकिन जापान, अमेरिका, आस्ट्रेलिया, कनाडा इत्यादि कुछ देशों से सबक लेकर हम ऐसे प्रबंध तो कर ही सकते हैं, जिससे भूकम्प आने पर नुकसान की संभावना न्यूनतम रहे। जापान तो ऐसा देश है, जहां सबसे ज्यादा भूकम्प आते हैं लेकिन उसने भवन निर्माण और बुनियादी सुविधाओं का ऐसा मजबूत ढ़ांचा विकसित कर लिया है, जिससे वहां अब भूकम्पों के कारण बहुत कम नुकसान होता है। भूकम्प जैसी प्राकृतिक आपदाओं से जान-माल की हानि को न्यूनतम करने के लिए बेहद जरूरी है कि जापान जैसे ही भूकम्परोधी प्रबंध करने की दिशा में ठोस कदम उठाए जाएं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और 33 वर्षों से पत्रकारिता में सक्रिय हैं)
टिप्पणियाँ