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भारत के ‘ठीकरावादी’ इतिहासकार

देश के लोगों को अपने इतिहास को जानना होगा, करारा जवाब देना सीखना होगा

by सागर तोमर
Jan 7, 2023, 11:47 am IST
in सोशल मीडिया
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प्रपंची इहिासकारों की निगाह में भारत भूमि पर कोई भी इसका मूल निवासी नहीं है। कोई मध्य एशिया से आया, ईरान, यूरोप, उत्तरी अफ्रीका तो कोई भूमध्यसागर के निकटवर्ती प्रदेशों से आया। देश के लोगों को अपने इतिहास को जानना होगा, करारा जवाब देना सीखना होगा। अपने इतिहास को पढ़ना-जानना और अगली पीढ़ियों तक सर्वश्रेष्ठ रूप में पहुंचाना होगा।

भारत का इतिहास लिखने वालों में सर्वाधिक इतिहासकार ऐसे रहे जिनकी पुस्तकें स्कूल-कॉलेजों में पाठ्यक्रम में लगती रहीं। ऐसी ही अकादमिक इतिहास की अनेक पुस्तकों के लेखक विद्याधर महाजन अपनी पुस्तक में ब्रह्मा, विष्णु, शिव, राम, कृष्ण, इंद्र, वशिष्ठ, विश्वामित्र आदि श्रेष्ठ और पूजनीय व्यक्तियों के लिए ‘एकवचन’ का प्रयोग करते हैं। मानो वे वास्तविक और महत्वपूर्ण न होकर लेखक के विश्वविद्यालय के चपरासी हों!

ये तरीके सिर्फ इसी इतिहासकार के नहीं हैं, बल्कि देश के लगभग सभी इतिहासकारों ने कमोबेश ऐसे ही नैरेटिव का लज्जाहीन प्रदर्शन किया है। जाहिर है लेखक उसी ‘एंटी हिंदुस्थान’ प्रवृत्ति की चाल को आगे बढ़ा रहे थे। इसलिए नीचे दिए गए तथ्यों को सभी पर समान रूप से लागू समझना चाहिए। ‘प्राचीन भारत का इतिहास’ में विद्याधर इस बात के पीछे पड़े हैं कि कैसे भी करके निम्नलिखित बातें सिद्ध कर दी जाएं-

भारत भूमि पर कोई भी इसका मूल निवासी नहीं है। कोई मध्य एशिया से आया, ईरान, यूरोप, उत्तरी अफ्रीका से तो कोई भूमध्यसागर के निकटवर्ती प्रदेशों से आया। ऐसे नकलची व पिछलग्गू विद्वानों के मतानुसार सिर्फ निवासी नहीं, बल्कि आलू, गेहूं, गन्ना, धान आदि पदार्थ सब बाहर से आए हैं। इस देश की धरती मानो रेगिस्तान थी, जहां कुछ पैदा ही नहीं होता था। चूंकि भारत-भूमि पर कोई मौलिक मानव समुदाय है नहीं, इसलिए स्पष्टत: देश की सभ्यता-संस्कृति पर मिस्र, यूनान, रोम, बेबीलोन, अक्कादी, सीरिया, मेसोपोटामिया, मध्य एशिया आदि का ही प्रभाव है!

चूंकि देश का इतिहास लिख रहे हैं, सिलसिलेवार इतिहास तो बताना पड़ेगा। वे इसकी शुरुआत ऐसे करते हैं कि प्रागैतिहासिक युग में इस धरती पर जो जाति बाहर से आकर बसी, वह निश्चय ही नीग्रो थी जो अफ्रीका से आई थी। द्रविड़, मंगोलॉयड, आॅस्ट्रेलॉयड, इंडो-ईरानियन, इंडो-ग्रीक, बैक्ट्रियन आदि इस देश में आते रहे, बसते रहे। इन सबमें सर्वाधिक योग्य और सक्षम सिद्ध हुई ‘द्रविड़’ जाति, जिसने बड़े-बड़े नगर बसाए, उद्योग शुरू किए। इसी ‘द्रविड़’ जाति ने सिंधु-घाटी की महान सभ्यता बसाई, जिसे बाहर से आने वाली घुमंतू जाति ‘आर्य’ ने नष्ट-भ्रष्ट कर द्रविड़ों को विंध्याचल पर्वत के पार दक्षिण में धकेल दिया।

यह बात अलग है कि इसी जाति से संबद्ध ‘ब्राहुई’ भाषा बलूचिस्तान में बोली जाती है। ‘आर्य’ आपस में भी खूब लड़े और ‘अनार्य’ से भी। इंद्र व वृत्र का युद्ध, दिवोदास एवं सुदास के मध्य हुआ ‘दाशराज्ञ युद्ध’ आदि। इंद्र को तो इन्होंने ‘अनार्य’ का नगर उजाड़ने वाला ‘पुरंदर’ कह दिया। जिन पवित्र वेदों में कुछ भी ऐसा नहीं है, जिसे तुच्छ मनुष्यों की सामान्य फूहड़ता कहा जा सके, उनमें भी इन मक्कार इतिहासकारों ने पशु-बलि, नर-बलि, मदिरा-सोमरस, अपरिमित शारीरिक भोग, गोमांस भक्षण, नारी-शिक्षा पर प्रतिबंध, ब्याज पर धन देकर लोभ-मोह में पड़े रहना इत्यादि ‘खोज’ निकाले हैं।

वैदिक-सनातन-हिंदुत्व के प्रति ईर्ष्या-द्वेष व उपेक्षा की भावना इनके स्वभाव से जाने वाली ही नहीं। भारत की विशालता, श्रेष्ठता, विविधता, ग्रहणशीलता आदि भी नष्ट नहीं होगी। ऐसे ‘ठीकरा-गैंग’ के छिपे हुए षड्यंत्र से देश के सौ करोड़ हिंदू-समाज को प्रतिक्षण चौकस और तैयार रहना होगा। 

संस्कृत जैसी महानतम, प्रामाणिक भाषा की संश्लेषणात्मक व प्रतीकात्मक व्यवस्था को न समझने के कारण ही इन्होंने संस्कृत के शब्दों, वाक्यांशों, वाक्यों आदि के मनमाने अर्थ निकालकर हिंदुओं को हतोत्साहित करने व उनमें हीनभावना भरने के निकृष्ट प्रयास किए हैं। इतिहास को समझने का इन ‘गरीबों’ का सबसे महान स्रोत है- मृदभांड। काबुल से मेरठ, कश्मीर से महाराष्ट्र तक खुदाई के बाद इन्हें क्या मिला- मिट्टी के बर्तन! इसी के आधार पर उस काल-खंड का सारा ज्ञान छौंकते रहते हैं।

इन्होंने आज तक सिंधु-लिपि नहीं पढ़ी। वह कोई अलग सभ्यता थी ही नहीं, बल्कि तत्कालीन भारत के ही किसी हिस्से में कुछ मनुष्य अलग ढंग से रह रहे थे। सिंध के ‘मुअन-जो-दड़ो’ (यानी मुर्दों का टीला) का सही नाम आज तक न लिख सके। उसे ‘मोहनजोदड़ो’ ही लिखते आ रहे हैं। ‘मुर्दों का टीला’ शीर्षक से रांगेय राघव की ऐतिहासिक कृति भी है। उसी तथाकथित सिंधु-सभ्यता में पाए गए बैल व देवता के चित्र को भी ‘शिव’ कह नहीं सके, बार-बार उसे ‘पशुपतिनाथ’ सिद्ध करने में पूरी मेहनत लगा देते हैं।

यह शृंखला कभी खत्म नहीं हो सकती, क्योंकि वैदिक-सनातन-हिंदुत्व के प्रति ईर्ष्या-द्वेष व उपेक्षा की भावना इनके स्वभाव से जाने वाली ही नहीं। भारत की विशालता, श्रेष्ठता, विविधता, ग्रहणशीलता आदि भी नष्ट नहीं होगी। ऐसे ‘ठीकरा-गैंग’ के छिपे हुए षड्यंत्र से देश के सौ करोड़ हिंदू-समाज को प्रतिक्षण चौकस और तैयार रहना होगा।

Topics: ईरानप्रामाणिक भाषादेश की सभ्यता-संस्कृतियूरोपउत्तरी अफ्रीकासिंधु-लिपि
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