पाकिस्तान-अफगानिस्तान संघर्ष : ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य से वर्तमान तक
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पाकिस्तान-अफगानिस्तान संघर्ष : ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य से वर्तमान तक

पाकिस्तान और अफगान तालिबान के बीच तनाव एक नए पड़ाव पर पहुंच गया है, जहां से क्षेत्र में आने वाले एक बड़े संकट के संकेत मिलने लगे हैं।

by एसके वर्मा
Jan 4, 2023, 03:46 pm IST
in विश्लेषण
प्रतीकात्मक चित्र

प्रतीकात्मक चित्र

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पाकिस्तान और अफगान तालिबान के बीच तनाव एक नए पड़ाव पर पहुंच गया है, जहां से क्षेत्र में आने वाले एक बड़े संकट के संकेत मिलने लगे हैं। इस बार सत्ता में आने के बाद से तालिबान के पाकिस्तान के साथ संबंध पहले की तरह नहीं रहे हैं। उल्लेखनीय है कि ऑपरेशन एंड्योरिंग फ्रीडम के द्वारा सत्ता से अपदस्थ होने के बाद से संयुक्त राज्य अमेरिका की सेना और पूर्ववर्ती अफगान सरकार के खिलाफ लंबे समय तक चले संघर्ष में पाकिस्तान ने तालिबान के संरक्षक की भूमिका निभाई थी। परंतु पाकिस्तान द्वारा इस स्थिति का फायदा डूरंड लाइन की स्थिति में उठाए जाने को लेकर, जो कि प्रत्येक अफगानी के लिए एक गहरे क्षोभ का विषय है, तालिबान भी इस सबमें कूद पड़ा है। उसने इस अफगान-पाकिस्तान सीमा की स्थिति को चुनौती तो दी ही है साथ ही साथ उसके प्रभाव में आने वाले पाकिस्तान स्थित विद्रोही समूह तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (टीटीपी), जिसे पाकिस्तानी तालिबान भी कहा जाता है, को भी पाकिस्तान की सरकार और सेना के विरुद्ध मुखर कर दिया है। हाल ही में दोनों देशों की सेनाओं के बीच भीषण गोलाबारी हुई है। मुख्य रूप से चमन बॉर्डर के क्षेत्र में जो पाकिस्तान और अफगानिस्तान के बीच संपर्क और सबसे बढ़कर व्यापार का द्वार है। तालिबान की सेनाओं ने पाकिस्तान को भयंकर नुकसान पहुंचाया है। विश्लेषकों का कहना है कि अफ़गानिस्तान में तालिबान के सत्ता अधिग्रहण ने इससे पूर्व भी पाकिस्तान में आतंकी हमलों में तेजी ला दी है, जिसने इस्लामाबाद को मुश्किल स्थिति में डाल दिया है।

डूरंड रेखा आखिर क्यों इतनी महत्वपूर्ण है

डूरंड रेखा को 1893 में हिंदूकुश क्षेत्र में खींचा गया जो तत्कालीन अफगानिस्तान और ब्रिटिश भारत के बीच की पख्तून कबायली भूमि से होकर गुज़रती है। आधुनिक समय में इसने अफगानिस्तान और पाकिस्तान के बीच की सीमा को चिह्नित किया है। डूरंड रेखा रूसी और ब्रिटिश साम्राज्यों के बीच 19वीं शताब्दी के “ग्रेट गेम्स” की एक विरासत है, जिसमें अफगानिस्तान को भयभीत अंग्रेज़ों द्वारा पूर्व में रूसी विस्तारवाद के खिलाफ एक बफर ज़ोन के रूप में इस्तेमाल किया गया था। ब्रिटेन को डर था कि रूस के डार्डनेल्स और बैस्फोरस के जरिए भूमध्य सागर में उतर कर गर्म पानी में आने की कोशिशों को नाकाम करने का बदला रूस जमीन के माध्यम से ब्रिटेन के भारतीय साम्राज्य पर हमला कर ले सकता है और लगभग एक सदी तक ब्रिटेन की विदेश नीति का एक प्रमुख आधार स्तंभ यह डर ही बना रहा।

वर्ष 1893 में ब्रिटिश सिविल सेवक सर हेनरी मोर्टिमर डूरंड और उस समय के अफगान शासक अमीर अब्दुर रहमान के बीच डूरंड रेखा के रूप में एक समझौते पर हस्ताक्षर किये गए थे। उल्लेखनीय है कि द्वितीय अफगान युद्ध की समाप्ति के दो साल बाद गृहयुद्ध में अपने प्रतिद्वंदियों को परास्त 1880 में अब्दुर रहमान अमीर बने। अफगान युद्ध के दौरान अंग्रेज़ों ने कई ऐसे क्षेत्रों पर नियंत्रण कर लिया जो अफगान साम्राज्य का हिस्सा थे। डूरंड लाइन के तहत किए गए उनके समझौते ने भारत के साथ अफगान “सीमा” पर उनके और ब्रिटिश भारत के “प्रभाव क्षेत्र” की सीमाओं का सीमांकन किया। इस समझौते ‘सेवन क्लॉज़’ एग्रीमेंट ने 2,670 किलोमीटर की रेखा को मान्यता दी, जो चीन के साथ सीमा से लेकर ईरान के साथ अफगानिस्तान की सीमा तक फैली हुई है। इसके द्वारा रणनीतिक महत्व रखने वाले खैबर दर्रे को भी ब्रिटिश पक्ष में कर दिया।

आज पाकिस्तान और अफगानिस्तान के अफगानों में इस रेखा को लेकर घृणा समान रूप से विद्यमान है, क्योंकि जहां एक ओर इसे अफगानिस्तान के अमीर को आतंकित कर बलपूर्वक लागू कराया गया वहीं दूसरी ओर यह रेखा पश्तून कबायली क्षेत्रों को दो राष्ट्रीयताओं में विभक्त कर दिया जिसके व्यक्ति गांव परिवार और भूमि जो हमेशा से जुड़े हुए थे। ब्रिटिश सत्ता के जाने के बाद इस डूरंड लाइन पर अफगान और पश्तून प्रतिरोध का सामना उसका उत्तराधिकारी राज्य पाकिस्तान कर रहा है। जो कई मामलों में इस समझौते के कारण हुई लाभदायक स्थिति का उपभोग भी कर रहा है। निवर्तमान सेनाध्यक्ष जनरल बाजवा के कार्यकाल के प्रारंभ से पाकिस्तान और अफगानिस्तान के बीच इस संघर्ष की एक नई शुरुआत देखने को मिलने लगी थी।

जनरल बाजवा ने अपने कार्यकाल के प्रारंभ में पाकिस्तान में लगातार बढ़ते आतंकवाद की समस्या का सामना किया तो उसका पहला निष्कर्ष यह था कि अफगानिस्तान की धरती आतंकवादियों के लिए स्वर्ग बन चुकी है और वह डूरंड रेखा को जहां चाहे रौंद कर देश में घुस आते हैं और पाकिस्तानी नागरिकों की जानें लेते हैं, इसी क्रम में उसने एक बड़ा फैसला लिया कि डूरंड लाइन पर एक बाड़ लगाई जाए, ठीक उसी तरह की बाड़ जैसे भारत ने अपनी सीमा पर लगाई हुई है और दुनिया के कई देश भी अपने सुरक्षा और रक्षा के लिए ऐसी बाड़ लगा चुके हैं, और उस समय अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प तो मेक्सिको सीमा पर एक दीवार का निर्माण करने की घोषणा कर चुके थे तथा चीनी राष्ट्रपति ने भी एक अवसर पर कहा था कि खनज़राब की चोटियों पर आकाश तक एक ठोस दीवार खड़ी कर दी जाए ताकि पाकिस्तान से कोई आतंकवादी चीन के अंदर न गुस सके। जनरल कमर बाजवा के लिए भी अफगान सीमा को सुरक्षित करने के लिए ऐसी दीवार निर्माण के लिए एक आवश्यकता बन गई और वह इस परियोजना को अपने विश्वास का हिस्सा बना चुके थे। और आश्चर्य की बात नहीं तालिबान के साथ हिंसा में वृद्धि का समय नए सेनाध्यक्ष के रूप में जनरल असीम मुनीर के पदभार ग्रहण करते ही एक नई तेजी देखने को मिली है।

उल्लेखनीय है कि चीन द्वारा समर्थित विविध परियोजनाएं जो सीपीइसी के माध्यम से संचालित है, जिनकी लागत 70 अरब डॉलर से भी ज्यादा हो चुकी है, और पाकिस्तान के विविध क्षेत्रों में बलोच संघर्ष से लेकर पख़्तून विद्रोह तक तथा देश भर में विविध इस्लामिक समूहों की आतंकवादी गतिविधियां इस सारे आर्थिक विकास के परिदृश्य को ध्वस्त कर सकती हैं। ऐसे में पाकिस्तान की सरकार और सेना को शांति स्थापित करने के लिए इनका दमन करना आवश्यक है। परंतु पाकिस्तान के प्रयासों से सत्ता में आए तालिबान ने जो इन कट्टरपंथियों का वैचारिक के साथ ही साथ रणनीतिक और सामरिक सरगना भी है, का प्रभाव भी दिखना स्वाभाविक ही है और यही सामने भी आ रहा है। पाकिस्तान, अफगानिस्तान में जिस रणनीतिक बढ़त की आशा पाले हुए था वह ध्वस्त हो चुकी है और औपचारिक संबंध ही खतरे में दिखाई दे रहे हैं। पाकिस्तान की लगातार दखलंदाजी के विरुद्ध अफगानिस्तान ने पाकिस्तान के आंतरिक मामलों में दखल देने की कार्यवाही के तहत तहरीके तालिबान पाकिस्तान टीटीपी जैसे संगठनों को जो मुक्त हस्त सहयोग उपलब्ध कराना प्रारंभ किया है, वह राजनीतिक और आर्थिक रूप से गहन संकट का सामना कर रहे इस देश की स्थिति को गंभीर क्षति पहुंचा सकता है।

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