सिरो-मलाबार चर्च इन दिनों आंतरिक कलह से जूझ रहा है। पोप ने प्रार्थना पद्धति में मामूली बदलाव के निर्देश दिए हैं, जिसे एर्नाकुलम-अंकामाली डायोसिस मानने को तैयार नहीं है। कुछ पादरी पुरानी प्रार्थना पद्धति छोड़ने को तैयार नहीं हैं
केरल में एर्नाकुलम-अंकमाली डायोसिस में सिरो-मलाबार चर्च गंभीर आंतरिक कलह से जूझ रहा है। यह कलह प्रार्थना पद्धति में किए गए मामूली बदलाव को लेकर है, जिसे दुनिया भर में फैले सिरो-मालाबार चर्च के 36 में से 35 डायोसिस ने स्वीकार किया है। लेकिन एर्नाकुलम-अंकामाली डायोसिस इसका अपवाद है। दरअसल, पोप द्वारा निर्देशित बदलाव के अनुसार, अब ‘ट्रांस सबस्टेंशिएन’ के दौरान पादरी को वेदी के सामने रहना पड़ेगा। पहले प्रार्थना के दौरान पूरे समय पादरी मतावलंबियों के सामने खड़े होते थे, वेदी के सम्मुख कभी नहीं।
कैथोलिक चर्च के सभी संप्रदायों के सर्वेसर्वा पोप खुद सिरो-मलाबार चर्च को उसके नियमित मामलों में स्वतंत्रता या स्वायत्तता दे चुके हैं। सिरो-मलाबार चर्च सीधे वेटिकन (पोप) के अंतर्गत आता है। पिछले लगभग एक दशक से यह किसी पादरी के बजाय एक कार्डिनल द्वारा नियंत्रित किया जाता है, जो कैथोलिक चर्च के सर्वोच्च नियंत्रक निकाय का सदस्य होता है। किसी पोप के पद त्याग करने या देहांत होने पर कार्डिनल को ही पोप के रूप में निर्वाचित किया जाता है। लेकिन अब सिरो-मलाबार कैथोलिक चर्च के मेजर आर्चबिशप, कार्डिनल मार गिवर्गिस एलेनचेरी की कमान को उसी चर्च के विभिन्न पादरी चुनौती दे रहे हैं।
बदलाव से विलगाव
ईसाइयों की प्रार्थना पद्धति में ट्रांस सबस्टेंशिएन को पवित्र माना जाता है। इस अनुष्ठान के दौरान पादरी एक हाथ में रोटी और दूसरे हाथ में शराब लिए होता है। कुछ प्रार्थनाओं के बाद वह कहता है, ‘‘यह यीशु का मांस और लहू है।’’ इसलिए कई मतावलंबियों का मानना है कि यह बदलाव स्वागत योग्य है। चर्च से जुड़े कुछ लोगों ने बताया कि ट्रांस सबस्टेंशिएशन के दौरान पादरी को कम से कम कुछ समय तो वेदी को देखना चाहिए। इसलिए कुछ पादरी इस बदलाव को मानने को तैयार नहीं हैं। वे इसे ईश्वरीय मार्ग से भटकाव मानते हैं।
प्रार्थना पद्धति में सुधारों की शुरुआत को चुनौती देने वाले पादरी और कुछ ‘मतावलंबी’ बड़ी सुविधाजनक ढंग से यह भूल जाते हैं कि परिवर्तन पोप द्वारा नियुक्त पादरी सभा द्वारा अनुशंसित था। दूसरे शब्दों में, इसे ईसाई मत की सर्वोच्च पीठ से मंजूरी मिल गई है। दिलचस्प बात यह है कि पादरी समाज ने लैटिन से मलयालम में अनुदित प्रार्थनाओं को स्वीकार कर लिया था। कुछ दशक पहले एक फादर एबेल पेरियाप्पुरम ने इसका अनुवाद किया था। तब तक प्रार्थना के दौरान गाई जाने वाली हर ईसाई प्रार्थना लैटिन में होती थी। उनका मलयालम में अनुवाद भारतीयकरण की प्रक्रिया का एक हिस्सा था, जिसे फादर जोसेफ पारेकट्टिल ने 1969 में कार्डिनल बनाए जाने पर शुरू किया था। इसे पूरे सिरो-मलाबार समुदाय ने अपनाया।
पोप को चुनौती!
प्रार्थना पद्धति में नए सुधार को पोप द्वारा नियुक्त पूर्वी चर्चों के निकाय द्वारा अनुमोदित किया गया है। दूसरे शब्दों में, यह पोप की इच्छा पर होती है। कार्डिनल की नियुक्ति वेटिकन द्वारा की जाती है। कार्डिनल अपने डायोसिस में पादरी की नियुक्ति करता है। पोप पादरी सभा की नियुक्ति करता है। इन सबका मतलब है कि दुनिया के सभी हिस्से में कैथोलिक चर्च का सर्वोच्च अधिकारी पोप है। लेकिन अब कार्डिनल के अधिकार को चुनौती देकर स्वयं पोप के अधिकार को चुनौती दी जा रही है। कुछ मतावलंबियों ने कहा कि यह अफसोसजनक है और ईसाई समाज में ऐसा नहीं होना चाहिए था। उन्हें डर है कि इससे उनके समुदाय में एक गंभीर आंतरिक संघर्ष पैदा हो सकता है। वे कार्डिनल को दी जा रही चुनौती को सहन नहीं कर सकते, पोप की तो बात ही छोड़िए। वे ऐसी स्थिति की कल्पना नहीं कर सकते, जहां मतावलंबियों के दो गुट आपस में लड़ें। वे देखते आए हैं कि केरल में आर्थोडॉक्स और जैकोबाइट चर्चों के बीच क्या हो रहा है।
अदालतों में चल रहे कानूनी मामले सौ वर्ष से भी पुराने हैं। बहुत से चर्च और यहां तक कि कब्रिस्तान भी असली उत्तराधिकारी होने के दावों के चलते अभी भी अदालती आदेशों के कारण बंद हैं। इस संबंध में बहुत मारपीट भी हुई है। दोनों गुटों के बीच हिंसक झड़प में कई बार पुलिस को कितनी बार बल प्रयोग करना पड़ा, इसकी गिनती किसी के पास नहीं है। कभी-कभार जब उनके सम्मेलन या प्रशिक्षण शिविर होते हैं, तो मतावलंबी दूसरे गुटों के आध्यात्मिक नेताओं पर हर तरह की चुनिंदा गालियों की बौछार करते हैं। यह स्थिति केरल में राजनीतिक दलों के झगड़ों से भी बदतर होती है। सिरो-मलाबार चर्च के अनुयायी अपने संप्रदाय में इसी तरह की घटनाओं की पुनरावृत्ति से डरते हैं। इसलिए वे इस मुद्दे का शीघ्रातिशीघ्र समाधान ढूंढ रहे हैं।
सर्वोच्च न्यायालय तक पहुंचा विवाद
केरल में अस्पताल से अधिक चर्च हैं, जिन पर नियंत्रण को लेकर ईसाई धड़ों के बीच लंबे समय से विवाद है। इसके लिए जैकोबाइट और आर्थोडॉक्स गुट आपस में लड़ते आ रहे हैं। मामला सर्वोच्च न्यायालय में पहुंचा तो 3 जुलाई, 2017 को अदालत ने आर्थोडॉक्स गुट के पक्ष में निर्णय दिया। शीर्ष अदालत ने मलंकारा चर्च के 1934 के संविधान को बरकरार रखते हुए केरल के 1,100 पैरिश और चर्चों का नियंत्रण आर्थोडॉक्स ईसाइयों को देने फैसला सुनाया। राज्य के चर्चों पर जैकोबाइट गुट का नियंत्रण था और वे इन्हें आर्थोडॉक्स को सौंपने को तैयार नहीं थे। न्यायालय के आदेश पर अमल कराने की कोशिश हुई तो दोनों गुट फिर भिड़ गए।
बागी पादरियों पर तलवार
कुछ मतावलंबियों का मानना है कि जिन पादरियों ने कार्डिनल के खिलाफ अपमानजनक शब्द कहे, उन्हें जल्द चर्च से निकाल दिया जाए। चूंकि उन सभी को कार्डिनल द्वारा पोप की ओर से अधिकारी की हैसियत से नियुक्त किया जाता है, इसलिए जिसने उन्हें नियुक्त किया, उसके पास उन्हें बर्खास्त करने की पूरी शक्ति है। अगर ऐसा होता है, तो बर्खास्त पादरियों के पास पद छोड़ने और चुपचाप घर जाने के अलावा और कोई विकल्प नहीं बचेगा। क्योंकि कार्डिनल और पोप के खिलाफ लड़ाई में मतावलंबी बागी पादरियों का साथ देने के लिए राजी नहीं होंगे। कार्डिनल और पोप की इच्छा के विरुद्ध चर्च को नियंत्रित करना तो एक दिवास्वप्न ही है।
‘श्रेष्ठता’ की लड़ाई
नाम न छापने की शर्त पर एक ईसाई मतावलंबी ने कहा कि पूरा मामला कुछ पादरियों की श्रेष्ठता की भावना के कारण पैदा हुआ है, जो नंबूदरी और नायर जैसे तथाकथित उच्च वर्ग के हिंदुओं की आनुवांशिकता का दावा करते हैं। उसका कहना है कि ‘‘वे अहंकारी हैं और दलित ईसाइयों को हेय दृष्टि से देखते हैं, क्योंकि वे ईसाई मत अपनाने से पहले तथाकथित निम्न जाति के हिंदू थे।’’
इस सोच के पीछे भी एक दिलचस्प कहानी है। कुछ ईसाइयों का मानना है कि ईसा मसीह का एक शिष्य सेंट थॉमस केरल आया और नंबूदिरियों और नायरों को ईसाई मत में कन्वर्ट कर दिया। इसलिए, ‘श्रेष्ठता बोध’ से ग्रस्त कुछ ईसाई ढोल पीटते हुए कहते हैं कि वे ‘श्रेष्ठ’ पूर्वजों के वंशज हैं। हालांकि बाद में वेटिकन ने ही घोषित कर दिया कि सेंट थॉमस ने केरल का दौरा ही नहीं किया था। इसलिए, जब कोई चर्च के भीतर प्रतिद्वंद्विता की गहराई में जाता है, तो बहुत से ‘छिपे हुए’ विवाद सतह पर आ जाते हैं। पिछले दिनों एनार्कुलम (कोच्चि) में पुलिस बल की मदद से सेंट मेरी बैसिलिका को खोला गया।
यह 24 दिनों से बंद पड़ा था। नवनियुक्त प्रशासक पादरी एंटनी पुथुवेली ने प्रार्थना करने की कोशिश की, लेकिन अल्माया समन्वय परिषद ने, जो प्रार्थना पद्धति में सुधार के विरुद्ध अभियान चला रही थी, इसका विरोध किया और पादरी पुथुवेली को प्रार्थना का विचार त्यागना पड़ा। इस विवाद का अभी तक कोई समाधान नहीं निकला है। कुछ मतावलंबियों को चिंता है कि कहीं बागी धड़ा वेटिकन के साथ ही संबंध न तोड़ ले। उल्लेखनीय है कि प्रार्थना प्रथा को लेकर बीते दिनों ईसाइयों के गुट आपस में भिड़ गए थे। हिंसक विरोध इतना बढ़ गया कि कुछ चर्चों को बंद करने का आदेश देना पड़ा। साथ ही, सुरक्षा के लिए चर्चों की सुरक्षा के लिए पुलिसबल को भी तैनात कर दिया गया।
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