हमारी भारतभूमि सदा से सनातन जीवन संस्कृति की पोषक रही है और हर सच्चा भारतीय शौर्य व संस्कार से आपूरित अपने गौरवशाली अतीत पर सदैव गौरवान्वित होता है। इतिहास गवाह है कि जब-जब विदेशी आक्रान्ता लुटेरों व षड्यंत्रकारियों ने छल-बल से हमारी धर्म-संस्कृति को नष्ट करने के कुत्सित प्रयास किये; तब-तब भारतमाता के महान रणबांकुरे वीरों ने अपने प्राणों की बाजी लगाकर उन्हें मुंहतोड़ जवाब दिया। विश्व की बलिदानी परम्परा में अद्वितीय स्थान रखने वाले सिख समाज के दशम गुरु गोविन्द सिंह की गणना इसी श्रेणी के महामानवों में होती है। नानकशाही कैलेण्डर के अनुसार सन् 1666 में पौष माह के शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि ( इस वर्ष 29 दिसम्बर) को नौवें सिख गुरु तेग बहादुर की पत्नी गूजरी देवी ने बिहार प्रांत के पटना शहर में जिस तेजस्वी बालक को जन्म दिया था; उसकी अप्रतिम शौर्य गाथा भारतीय इतिहास का स्वर्णिम अध्याय है। गुरु गोविन्द सिंह जी द्वारा अपने समकालीन बर्बर, कट्टर व मतान्ध मुगल शासक औरंगज़ेब को लिखे गये ऐतिहासिक पत्र ‘’जफरनामा’’ को भारतीय इतिहास में आध्यात्मिकता, कूटनीति तथा शौर्य का अद्भुत संगम माना जाता है।
मूल रूप से फारसी भाषा में लिखा गया ‘’जफरनामा’’ गुरु गोविन्द सिंह द्वारा मुगल आक्रान्ता औरंगज़ेब को लिखा गया वह ‘विजय पत्र’ है जो उन्होंने अपने चारों पुत्रों और सैकड़ों साथियों के बलिदान के उपरांत आनन्दपुर छोड़ने के बाद सन 1706 में तब लिखा था जब औरंगज़ेब दक्षिण भारत के अहमदनगर किले में अपने जीवन की अंतिम सांसें गिन रहा था।
फारसी में लिखे इस पत्र में कुल 111 काव्यमय पदों में खालसा पंथ की स्थापना, आनंदपुर साहिब छोड़ना, फ़तेहगढ़ की घटना, 40 सिखों के साथ अपने चार पुत्रों के बलिदान तथा चमकौर के संघर्ष के साथ मराठों तथा राजपूतों द्वारा औरंगजेब की करारी हार का वृत्तांत ऐसी शौर्यपूर्ण तथा रोमांचकारी शैली में मिलता है जो किसी भी राष्ट्रभक्त की भुजाओं में नवजीवन का संचार करने के लिए पर्याप्त है।
भारतीय इतिहासकारों के मुताबिक ‘’जफरनामा’’ में गुरु गोविन्द सिंह द्वारा औरंगज़ेब के अत्याचारों के विरुद्ध मुखर विरोध अभिव्यक्त होता है। इस पत्र में दशम गुरु पूरी निर्भीकता से औरंगज़ेब की झूठी कसमों एवं उसके कुशासन की चर्चा के साथ उसकी क्रूर व बर्बर सोच की भर्त्सना करते हैं।
‘’जफरनामा’’ के लेखक का स्वर एक विजेता का स्वर है, जिसमें अत्यन्त ओजस्वी भाषा में गुरु गोविन्द सिंह औरंगज़ेब को ललकार कर अपने स्वाभिमान तथा वीरभाव का परिचय देते हुए लिखते हैं, ” औरंगज़ेब ! तू धर्म से कोसों दूर है जो अपने भाइयों व बाप की हत्या करके अल्लाह की इबादत करने का ‘ढोंग’ रचता है। तूने कुरान की कसम खाकर कहा था कि मैं सुलह रखूंगा, लड़ाई नहीं करूंगा पर तू अव्वल दर्जे का ‘धूर्त’, ‘फरेबी’ और ‘मक्कार’ है। तूने अपने बाप की मिट्टी को अपने भाइयों के खून से गूँथा और उस खून से सनी मिट्टी से अपने राज्य की नींव रखी है और अपना आलीशान महल तैयार किया है। तेरे खुदा की कसम तेरे सिर पर भार है।‘’
औरंगज़ेब को चुनौती देते हुए दशम गुरु लिखते हैं कि क्या हुआ (परवाह नहीं) अगर जो मेरे चार बच्चे (अजीत सिंह, जुझार सिंह, फतेह सिंह, जोरावर सिंह) देश की मिट्टी के लिए कुर्बान हो गये, पर कुंडली मारे तुझे डंसने वाला नाग अभी जिन्दा बाकी है। अगर तू कमजोरों पर जुल्म करना और उन्हें सताना बंद नहीं करेगा तो मुझे कसम है उस परवरदिगार की कि तुझे आरे से चिरवा दूंगा। मैं युद्ध के मैदान में अकेला आऊंगा और मैं तेरे पांव के नीचे ऐसी आग रखूंगा कि पूरे पंजाब में उसे बुझाने वाला तथा तुझे पानी पिलाने वाला एक न मिलेगा। मैंने पंजाब में तेरी पराजय की पूरी व्यवस्था कर ली है। फिर इसके आगे गुरु गोविंद सिंह औरंगज़ेब को इतिहास से सीख लेने की सलाह देते हुए लिखते हैं कि तू अपनी मन की आँखों से देख कर विचार कर कि भारत को जीतने का सपना देखने वाले सिकंदर और शेरशाह; तैमूर और बाबर, हुमायूं और अकबर आज कहां हैं ? फिर आगे इस संदेश पत्र में गुरु गोविंद सिंह औरंगज़ेब को चेतावनी देते हुए कहते हैं- औरंगज़ेब ! तू मेरी यह बात ध्यान से सुन कि जिस ईश्वर ने तुझे इस मुल्क की बादशाहत दी है, उसी ने मुझे धर्म और मेरे देश की रक्षा का जिम्मा सौंपकर वह शक्ति दी है कि मैं धर्म और सत्य का परचम बुलंद करूं। आगे युद्ध तथा शांति के बारे में अपनी नीति को स्पष्ट करते हुए वे लिखते हैं कि जब सभी प्रयास असफल हो गये हों, न्याय का मार्ग अवरुद्ध हो गया हो, तब तलवार उठाना तथा युद्ध करना सबसे बड़ा धर्म है। जफरनामा के अंतिम भाग में ईश्वर के प्रति पूर्ण आस्था व्यक्त करते हुए महान गुरु ने लिखा है कि शत्रु भले हमसे हजार तरह से शत्रुता करे पर जिनका विश्वास ईश्वर पर है उनका कोई भी बालबांका नहीं कर सकता।
वस्तुत: गुरु गोविंद सिंह का ‘’जफरनामा’’ एक पत्र नहीं बल्कि भारतीय जनमानस की भावनाओं का प्रखर प्रकटीकरण है। अतीत से वर्तमान तक न जाने कितने ही देशभक्तों ने उनके इस पत्र से प्रेरणा ली है। गुरु गोविंद सिंह का यह पत्र युद्ध के आह्वान के साथ शांति, धर्मरक्षा, आस्था तथा आत्मविश्वास का भी परिचायक है और पीड़ित, हताश, निराश तथा चेतना शून्य समाज में नवजीवन तथा गौरवानुभूति का संचार करने का भी। यह पत्र औरंगज़ेब के कुकृत्यों पर गुरु गोविंद सिंह की सैन्य, नैतिक तथा आध्यात्मिक विजय का अनूठा ऐतिहासिक दस्तावेज है। कहा जाता है कि इस पत्र को पढ़कर वह बर्बर मुगल शासक भय व आत्मग्लानि के बोध से थर थर कांपने लगा था और महज चंद दिनों उपरांत में ही उसकी उसकी मृत्यु हो गयी थी। जानना दिलचस्प हो कि मूलत: फारसी में लिखे दशम गुरु के इस ओजस्वी पत्र का गुरुमुखी के साथ हिंदी व अंग्रेज़ी भाषा में अनुवाद हो चुका है। जानकार सूत्रों अनुसार के गुरुमुखी में इसका अनुवाद पंजाब के महेन्द्र सिंह तथा सुरेन्द्र जीत सिंह द्वारा, हिन्दी में कुरुक्षेत्र के बालकृष्ण मुंजतर व देहरादून के जनजीवन जोत सिंह आनंद द्वारा तथा अंग्रेजी में दिल्ली के नवतेज सिंह सरन द्वारा किया गया है।
अप्रतिम योद्धा के होने साथ महान कर्मयोगी गुरु गोविन्द सिंह उच्चकोटि के आध्यात्मिक चिंतक भी थे। उनकी ख्याति महान विद्वान, मौलिक विचारक, उत्कृष्ट लेखक, अनुपम संगठनकर्ता व रणनीतिकार के रूप में भी है। उनकी रचनाओं में बछित्तर नाटक (आध्यात्मिक जीवन दर्शन), चंडी चरित (मां दुर्गा की स्तुति), कृष्णावतार (भागवत पुराण के दशम स्कन्ध पर आधारित), गोविन्द गीत, प्रेम प्रबोध, जप साहब, अकाल स्तुति, चौबीस अवतार व नाममाला (पूर्व गुरुओं, भक्तों एवं संतों की वाणियों का संकलन) विशेष रूप से लोकप्रिय हैं। वे बहुभाषाविद थे। मातृभाषा पंजाबी के साथ संस्कृत, हिंदी, ब्रजभाषा, उर्दू, फ़ारसी और अरबी भाषा पर उनका अच्छा अधिकार था। विभिन्न भाषाओं के 52 लोकप्रिय कवि, लेखक व विचारक उनके दरबार की शोभा बढ़ाते थे। सिख कानून को सूत्रबद्ध करने का श्रेय भी दशम गुरु को जाता है। यही नहीं, “दशम ग्रंथ” (दसवां खंड) लिखकर “गुरु ग्रन्थ साहिब” को पूर्ण कर उसे “गुरु” का दर्जा भी इसी महामानव ने दिया था। कारण कि वे भली भांति इस तथ्य से अवगत थे कि सांसारिक स्थितियां व्यक्ति को पतित बना सकती हैं किन्तु शब्द व विचार सदैव शुद्ध व पवित्र ही रहते हैं। जनसाधारण में सरबंसदानी, कलगीधर, दशमेश गुरु आदि नामों से जाने जाने वाले सिख धर्म की दसवीं जोत गुरु गोविन्द सिंह अपने जीवन का सारा श्रेय सर्वज्ञ प्रभु को देते हुए कहते है, “मैं हूं परम पुरख को दासा, देखन आयो जगत तमाशा।” आज हमारा समाज जिस तरह स्वार्थ, संदेह, संघर्ष, हिंसा, आतंक, अन्याय और अत्याचार की चुनौतियों से जूझ रहा है, उनमें गुरु गोविन्द सिंह का जीवन-दर्शन हम सबका सक्षम मार्गदर्शन कर सकता है।
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