ब्रह्मपुत्र की तमाम सहायक नदियों में से सबसे बदहाल और सबसे बड़े खतरे का सबब भारालू ही है। सात शहरी वार्डों को छूकर गुजरती इस नदी में जहरीले रसायनों का स्तर खतरनाक है। भारालू नदी पर अलग-अलग एजेंसियों ने वक्त-वक्त पर चेताया है। इस पर कुछ काम भी हुआ है, परंतु सरकारी अमले और नागरिकों को इस बारे में और जागरूक होना पड़ेगा
देश के ज्यादातर इलाकों में ‘जल जीवन मिशन’ रफ़्तार पकड़ रहा है। मंत्रालय के डैशबोर्ड से जाहिर है कि जो इलाके, भूभाग और राजनीति – दोनों लिहाज से पेचीदा हैं, वहां ‘हर घर नल’ की पहुंच आसान लक्ष्य नहीं है। मणिपुर, मिजोरम और नागालैंड में करीब 70 प्रतिशत घर नल से जुड़े हैं जबकि अरुणाचल, त्रिपुरा, नागालैंड में 50 प्रतिशत के आस-पास और सिक्किम और असम के अभी करीब 40 प्रतिशत घर ही हैं जहां पानी पहुंचा है। त्रासदी यही है कि देश में ज्यादा पानी वाले राज्य हों, मैदानी हों या पठार, पीने के पानी की किल्लत हर जगह है। असम में हर घर नल पहुंचाना जितना टेढ़ा काम है, उतना ही बड़ा है छोटी नदियों की साज-सम्भाल का काम। दुनिया के सबसे बड़े नदी तंत्र में एक ब्रह्मपुत्र है, जिसे नदी नहीं, नद का संबोधन रास आता है। असम की प्यास बुझाने वाले इस नद-तंत्र को मैला करने वाली शहरी नदियां उस पर बड़ा दाग हैं, जिसे धोने के लिए, अब भरपूर जोर लगाना होगा।
भारत के पूर्वोत्तर इलाके में देश की करीब चार प्रतिशत आबादी बसती है। देश के करीब आठ प्रतिशत भूभाग वाले यहां के कुल आठ राज्यों में औसतन 18 हजार मिलीमीटर बारिश होती है। कुछ राज्य इस बारिश के अभ्यस्त हैं और बिना ज्यादा नुकसान गुजर-बसर कर भी लेते हैं। और खामोशी से तकलीफ सहने वालों की गिनती वैसे भी कहां हो पाती है। उनकी सुनवाई तभी हो पाती है जब शासन-प्रशासन की किरकिरी होने लगे या वोटों की राजनीति में वे घेर लिये जाएं। साल दर साल असम की बाढ़ की तस्वीरें, कुदरत के कहर की गवाह बनती हैं। असम का 30-40 प्रतिशत इलाका हर साल बाढ़ से तबाह होता है। प्रदेश में शहरी आबादी लगातार बढ़ रही है, और संसाधनों की परवाह न करने वाली फितरत भी। तीन करोड़ की आबादी को पार कर चुके असम को बाढ़ से हर साल करीब 200 करोड़ रू. का नुकसान सहना पड़ता है। पर्यटन, चाय बागान, कला और हाथ के हुनर की पहचान वाले इस प्रदेश के सबसे जाने-माने शहर गुवाहाटी में भी बाढ़ अपने निशान छोड़कर जाती है। इस इलाके की गलियों-बाजारों में महीनों जमा कीचड़ और गंदगी के साथ बेहिसाब बारिश के अभ्यस्त हो चुके लोग अब न इसकी शिकायत करते हैं, न ही फिक्र। गुवाहाटी की बदहाली, वहां से गुजरती एक छोटी सी नदी की वजह से है, जो मेघालय की पहाड़ियों से निकलती है और आखिर में जाकर ब्रह्मपुत्र में मिल जाती है।
नदी या गंदा नाला?
कैलाश पर्वत से उतरकर पूरे असम के साढ़े छह सौ किलोमीटर को छूकर बहती हुई ब्रह्मपुत्र का वेग किसी के काबू का नहीं रहता। वजह पानी के रास्ते में इंसानी बसावटें, नदियों की तलहट में मिट्टी का भराव, नए निर्माण, जंगल और मिट्टी का कटाव। असम में गुवाहाटी और आस-पास का इलाका पीने के पानी के लिए यूं तो ब्रह्मपुत्र पर ही निर्भर है, लेकिन बीच शहर से गुजरती एक और नदी है- भारालू। मेघालय की खासी पहाड़ियों से निकलकर 13 किलोमीटर की बाहिनी नदी असम में आकर बशिष्ठ और भारालू नदी में बंट जाती है। करीब डेढ़ सौ किलोमीटर की भारालू का आधा हिस्सा पहाड़ियों से और आधा मैदानी इलाकों से गुजरता है। बशिष्ठ नदी आगे जाकर दीपोर बील नाम के वेटलैंड में मिलती है और भारालू, ब्रह्मपुत्र में समा जाती है। रामसर साइट की पहचान पाने वाली, अपने खास जल-जीवन तंत्र के लिए मशहूर दीपोर बील नाम की झील के लिए बशिष्ठ का मैलापन और ब्रह्मपुत्र के लिए भारालू की गंदगी, बहुत बड़ा दाग है। ब्रह्मपुत्र की तमाम सखी नदियों में से सबसे बदहाल और सबसे बड़ा खतरे का सबब भारालू ही है।
सात शहरी वार्डों को छूकर बहती इस नदी में जहरीले रसायनों का स्तर खतरनाक है। इसमें मरे हुए जानवर डाले जाते हैं, सेप्टिक टैंक इसमें खुलते हैं, पेपर मिलों का मलबा इसमें गिरता है, और घरों का इकट्ठा कचरा और मेडिकल कचरा भी इसमें ही फेंका जाता है। गुवाहाटी शहर के 39 गंदे नाले इसमें आकर खुलते हैं। कुल मिलाकर शासन-प्रशासन और जनता, सभी इससे नदी की जगह ‘कचरागाह’ की तरह पेश आते हैं। गुवाहाटी को स्मार्ट सिटी की तरह तैयार करने का जो लक्ष्य गुवाहाटी विकास विभाग के पास है, उसकी मियाद भी करीब ही है। एशियन डेवलपमेंट बैंक की मदद से बनने वाली स्मार्ट सिटी की रिपोर्ट में भारालू की दशा सुधारने के लिए इसमें सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट लगाना, इसके बहाव की दिशा मोड़ना, बांध बनाना, पैदल के रास्ते तैयार करना, वॉक वे और सोलर सब शामिल है। नदारद है तो बस जन-जुड़ाव, जागरूकता और नदी को जीवित करने के लिए युद्धस्तर पर काम करने की बात।
कागजों में अटके काम
बात ये भी है कि सरकारी कागजों और रिपोर्टों पर खुद अधिकारियों को ही भरोसा नहीं हो पाता। इसीलिए कागज भले ही कुछ कह लें, आखिर में बात राजनीतिक इच्छाशक्ति पर ही आकर टिकती है। साल 2018 में लोकसभा में पूछे एक सवाल के जवाब में केंद्रीय मंत्री हरदीप पुरी ने जानकारी दी थी कि साल 2016 में पूर्वोत्तर की 18 परियोजनाओं को छांटा गया था, जिनके सुधार के लिए काम होना था। इनमें दीपोर बील, बोरसोला बील और ब्रह्मपुत्र रिवर फ्रंट सहित भारालू की दशा सुधारना शामिल था। ईरान के रामसर शहर में 70 के दशक में हुई एक बैठक में खास जलवायु-जंतु-जल तंत्र वाले इलाकों को दुनिया भर की धरोहर माना गया। हर देश में, ऐसे इलाकों को संरक्षित और इंसानी दखल से दूर रखना और उनकी कुदरती दशा को बनाए रखने के लिए कड़ी पाबंदियां लगाना भी तय हुआ। पूर्वोत्तर के आठों राज्यों में ऐसी खूबियों वाली कुल तीन अहम रामसर साइट हैं, जिनमें एक है असम के कामरूप जिले में 40 वर्ग किलोमीटर में फैली दीपोर बील। रामसर साइट का गौरव हासिल होने के बावजूद इस झील की स्थिति गंभीर है। जबकि ये झील इलाके के करीब दो दर्जन गांवों की प्यास बुझाती है।
भारालू नदी पर अलग-अलग एजेंसियों ने अपनी रिपोर्ट देकर वक्त-वक्त पर चेताया है। ये बड़ी बात भी कही है कि वक्त रहते इस पर ध्यान नहीं दिया तो किसी दिन भयावह आपदा का सामना करना होगा। राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण ने साल 2018 में देश की सबसे प्रदूषित 17 नदियों में भारालू को भी शामिल किया और सुधार के लिए कार्ययोजना भी तैयार करने के निर्देश भी जारी किए थे। इसके बाद जापानी एजेंसी ने भी गुवाहाटी सीवेज परियोजना तैयार की। स्मार्ट सिटी बनाने के लिए मिली आर्थिक मदद के इस्तेमाल में पूरे पूर्वोत्तर में सबसे पीछे असम ही है। जहां शेष राज्यों में 90 प्रतिशत तक फंड का इस्तेमाल हो चुका है, वहीं असम में इस मद में अब तक केवल 37 प्रतिशत धन ही काम में आ पाया है। इस मसले पर असम के मुख्यमंत्री हिमंता बिस्व सरमा ने हाल ही बैठक भी ली और असम को बाढ़ के प्रकोप से बचाने के लिए अभियांत्रिकी समाधान की तैयारी का खाका रखा। नदियों की दशा सुधारने के लिए जो निर्देश दिए, उनमें नदियों के रास्तों के अतिक्रमण हटाने और उनकी गंदगी खाली करने की भी बात है।
अहोम योद्धा और जल-विरासत
दुनिया भर में जलवायु के कहर की भी फिक्र है। इस इस साल जून में आई असम की बाढ़ इसलिए भी भयावह रही, क्योंकि औसत 252 मिलीमीटर के मुकाबले इस बार दुगना करीब 528 मिलीमीटर बारिश हुई। बारिश ने अपनी सीमाएं तोड़ीं और 109 प्रतिशत बरसकर, लाखों जानवरों और करीब 33 लाख लोगों को बेघर कर दिया। एक लाख हेक्टेअर में लगी फसलें बर्बाद हुईं, खेती-किसानी और आजीविका पर भारी संकट आया। काजीरंगा अभयारण्य भी आधा पानी में डूब गया। प्रदेश का प्रशासनिक अमला, अगर ठान ले, तो वहीं के अव्वल तकनीकी संस्थानों, पूर्वोत्तर के जानकारों और शोधकर्ताओं को शामिल कर, ऐसी त्रासदी से जान-माल के बचाव के समाधान निकाल ले। पूर्वोत्तर के मामलों को देखने वाला मंत्रालय, इन मसलों पर देशव्यापी बहस छेड़ने के साथ ही बदलाव की अगुआई करता नजर आना चाहिए।
जिन दिनों असम के जल-जीवन मिशन और आस-पास के जिलों के अधिकारियों के साथ, भारालू का जायजा लेने का मौका मिला, उन दिनों वहां अहोम कमांडर लचित बरफुकन की 400वीं जन्मशती मनाई जा रही थी। औरंगजेब को इस योद्धा ने सराईघाट पर गुरिल्ला युद्ध शैली से जबर्दस्त शिकस्त देकर पूर्वोत्तर पर मुगल शासन का सपना ध्वस्त कर दिया था। इतिहास की इस घटना की अहमियत इस मायने में भी है कि इस युद्ध की व्यूहरचना ब्रह्मपुत्र के किनारे रची गई और रात के अंधेरे में छोटी-छोटी नौकाओं में जाकर अहोम सेना ने छापामार शैली में दुश्मनों पर वार किया। जिनकी सूझबूझ और हिम्मत की तुलना शिवाजी महाराज और महाराणा प्रताप से होती रही है, उस योद्धा लचित और अहोम सेना की ताकत को आज याद किया जा रहा है तो कृतज्ञता का भाव जगाती पहल है। मगर ब्रह्मपुत्र की ताकत से अपनी सरहदें महफूज कर लेने वाले प्रदेश को, नदी की समृद्ध विरासत से अगर वास्ता नहीं, तो इस इतिहास बोध से मौजूदा दौर की तस्वीर कतई नहीं बदलने वाली।
जो सभ्यता जल और उसके रास्तों को पहचानती रही है, उसके किनारों की धूल माथे से लगाकर अपने कर्तव्य पथ पर चलती रही है, वहीं नदियों और जल की बेकद्री का दर्द, जागरूक नागरिकों और अधिकारियों की बातों में भी छलका। आखिरकार सारी बात सरोकारों पर ही आकर टिकती है। दुनिया को आध्यात्मिक ऊंचाई देने वाला भारत, अपने ही लोगों में, नदियों और पानी से हमारे रिश्ते को, हमारी सोच में उतारने में नाकाम रहा, तो ये छोटी बात नहीं। नागरिक जगत को भी ये समझना होगा, मशीनी जगत में भी नेतृत्व को जगाते रहना और खुद भी जागरूक रहना, सबकी बेहतरी का रास्ता है। पर्यटकों की पसंद बने रहने और इंसानी बेपरवाही से नदियों को बचाए रखने में असम कामयाब हुआ, तो यही बदलते भारत की नायब झलक होगी।
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