मेरे और अटल जी के बीच संबंधों में कभी स्पर्धा की भावना नहीं रही। कभी-कभी हम दोनों के विचार अलग-अलग रहे हैं। लेकिन हमने कभी ऐसे मतभेदों को बढ़ावा नहीं दिया, जिससे परस्पर विश्वास और आदर का मूल्य कम हो
यदि मुझे ऐसे किसी एक व्यक्ति का नाम लेना हो, जो प्रारंभ से अब तक मेरे पूरे राजनीतिक जीवन का अंतरंग हिस्सा रहे, जो लगभग पचास वर्ष तक इस पार्टी में मेरे सहयोगी रहे तथा जिनका नेतृत्व मैंने सदैव नि:संकोच भाव से स्वीकार किया तो वह नाम ‘अटल बिहारी वाजपेयी’ का होगा। अनेक राजनीतिक पर्यवेक्षक यह पाते हैं कि विरले ही स्वतंत्र भारत के राजनीतिक इतिहास में, राजनीतिक क्षेत्र में दो प्रभावशाली व्यक्तियों के बीच इतनी घनिष्ठ मैत्री का समतुल्य उदाहरण मिलता हो, जिन्होंने एक ही संगठन में इतने लंबे समय तक भागीदारी की इतनी उत्कट भावना के साथ मिलकर काम किया हो।
पहला प्रभाव: चिरस्थायी प्रभाव
मैं पहली बार 1952 के उत्तरार्ध में अटल जी से मिला था। भारतीय जनसंघ के युवा सक्रिय कार्यकर्ता के रूप में वे राजस्थान में कोटा से गुजर रहे थे। वहां मैं संघ प्रचारक था। उन दिनों वे डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी के राजनीतिक सचिव थे। उनमें आदर्शवाद की भावना कूट-कूटकर भरी हुई थी। उनके चारों ओर एक कवि का प्रभामंडल व्याप्त था, जिससे नियति ने राजनीति की ओर प्रवृत्त कर दिया। उनके भीतर कुछ सुलग रहा था और इस अग्नि की दीप्ति उनके मुखमंडल पर छाई हुई थी। उस समय उनकी आयु 27-28 वर्ष रही होगी। इस पहली यात्रा के अंत में मैंने स्वयं से कहा कि यह असाधारण युवक है तथा मुझे इसके बारे में जानना चाहिए।
1948 में अटल जी राष्ट्रवादी साप्ताहिक पत्र ‘पाञ्चजन्य’ के संस्थापक संपादक बने। मेरे जैसे किसी व्यक्ति के लिए, जिसने अभी हाल ही में हिंदी सीखी थी, ‘पाञ्चजन्य’ भाषा के नैसर्गिक सौंदर्य तथा शुद्धता का अनुभव कराने के लिए उपयोगी माध्यम रहा। इस पत्र में देशभक्ति की प्रेरणा देने की अद्भुत क्षमता थी।
राजग सरकार की छह वर्ष की अवधि के दौरान मीडिया और कुछ राजनीतिक क्षेत्रों में ‘अटल-आडवाणी विवाद’ न होते हुए भी, इस बारे में अटकलें लगाना समय बिताने का रोचक विषय था।
कुछ समय बाद अटल जी राजस्थान दौरे पर आए। मैं पूरी यात्रा में उनके साथ रहा। उनका अनूठा व्यक्तित्व, असाधारण भाषण शैली, उनका हिंदी भाषा पर अधिकार तथा वाक्-चातुर्य और विनोदपूर्ण तरीके से गंभीर राजनीतिक मुद्दों को प्रभावशाली ढंग से मुखरित करने की क्षमता—इन सभी गुणों का मुझ पर गहरा प्रभाव पड़ा। मैंने अनुभव किया कि वे नियति पुरुष एवं ऐसे नेता हैं, जिसे एक दिन भारत का नेतृत्व करना चाहिए।
लंबी राजनीतिक यात्रा के सहयात्री
डॉ. मुखर्जी के बाद उस समय जनसंघ में सर्वाधिक महत्वपूर्ण व्यक्ति पं. दीनदयाल उपाध्याय थे। अटल जी के प्रति उनके भी उच्च विचार थे। मई 1953 में डॉ. मुखर्जी की त्रासद मृत्यु के बाद उन्होंने अटल जी को पार्टी तथा संसद की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी सौंपी। थोड़े ही समय में अटल जी ने स्वयं को पार्टी के सर्वाधिक करिश्माई नेता के रूप में सिद्ध कर दिया। हालांकि कांग्रेस जैसे विशालकाय वृक्ष के सामने जनसंघ एक छोटा-सा पौधा था; लेकिन ऐसे स्थानों पर भी लोगों की भीड़ अटल जी का भाषण सुनने के लिए टूट पड़ती थी, जहां पर पार्टी की जड़ें जमी भी नहीं थीं। वक्तृत्व शैली के अलावा जन-साधारण उनसे इस कारण भी प्रभावित था कि वे राष्ट्रीय मुद्दों पर कांग्रेस तथा कम्युनिस्ट पार्टी से भिन्न विकल्प प्रस्तुत करते थे।
1957 में संसद में अटल जी के निर्वाचित होने के बाद दीयदयाल जी ने मुझे दिल्ली आकर संसदीय कार्यों में उनकी मदद करने को कहा। तब से अटल जी और मैंने जनसंघ के विकास तथा बाद में भाजपा के विकास के लिए प्रत्येक स्तर पर मिलकर कार्य किया। लोकसभा में प्रवेश के थोड़े समय बाद ही अटल जी संसद में पार्टी की आवाज बन गए। संख्या में कम होते हुए भी उन्होंने सभी पर अपना प्रभाव बनाया। एक दशक बाद, फरवरी 1968 में दीनदयाल जी की दुखद मृत्यु के बाद उन्हें पार्टी की अध्यक्षता का उत्तरदायित्व भी संभालना पड़ा। पार्टी के इतिहास में यह अत्यंत विकट दौर था; लेकिन अटल जी शीघ्र ही सक्षम नेता के रूप में उभरे और जनसंघ को इस गहरे दलदल से उबार लिया। उस समय यह नारा हमारी पार्टी के कार्यकर्ताओं तथा समर्थकों के बीच व्यापक रूप से लोकप्रिय हुआ- ‘अंधेरे में एक चिनगारी, अटल बिहारी, अटल बिहारी।‘
पांच वर्ष बाद 1973 में उन्होंने पार्टी की संगठन संबंधी जिम्मेदारी मुझे सौंपी। जब इंदिरा गांधी ने जून 1975 में आपातकाल की घोषणा की, तब जनसंघ पहले ही मजबूत तथा सर्वाधिक संगठित विपक्षी दल के रूप में स्थापित हो चुका था। अटल जी एवं मैंने मिलकर संघर्ष किया तथा जेल गए और आपातस्थिति हटने के बाद जनता पार्टी के गठन के लिए मिलकर कार्य किया। लेकिन ‘दोहरी सदस्यता के मुद्दे’ के बहाने हमें इस पार्टी से निकाल दिया गया। 1980 में अटल जी और मैंने पुन: अन्य साथियों के साथ भाजपा की स्थापना की। 1984 के लोकसभा चुनावों में हमने सिर्फ 2 सीटें जीतीं। यहां तक कि ग्वालियर से अटल जी चुनाव हार गए। इसके बाद भाजपा की आकस्मिक प्रगति का माध्यम ‘अयोध्या आंदोलन’ रहा।
1996 में केंद्र में स्थिर सरकार बनाने की विफलता से लेकर 1998 में पुन: मिली सफलता तक की पार्टी की यात्रा का श्रेय मुख्यत: अटल जी की व्यक्तिगत लोकप्रियता को जाता है। इससे पार्टी का जनाधार कई गुना बढ़ गया। 1990 में अयोध्या आंदोलन के लिए समर्थन जुटाने हेतु मेरे द्वारा रथयात्रा का श्रीगणेश किए जाने के बाद मीडिया ने अटल जी और मुझे अलग-अलग ढंग से पेश करना शुरू किया। अटल जी को उदार बताया गया, वहीं मुझे ‘कट्टर हिंदू’। अपने अन्य सहयोगियों के साथ हम दोनों ने 1998 में भाजपा को सत्ता में लाने के लिए मिलकर कार्य किया। मैंने सरकार में उनके सहायक के रूप में कार्य किया। जब 29 जून, 2002 को मुझे उपप्रधानमंत्री नियुक्त किया गया था, तब इस संबंध को औपचारिक रूप मिला।
परस्पर विश्वास एवं सम्मान में बनते रिश्ते
दशकों से मेरे और अटल जी के बीच संबंधों में कभी स्पर्धा की भावना नहीं रही। इसका निहितार्थ यह नहीं है कि हमारा कभी मतभेद नहीं रहा। कभी-कभी हम दोनों के विचार अलग-अलग रहे हैं। तथापि हमारी इस प्रगाढ़ मैत्री के मूल में तीन कारक हैं। हम दोनों दृढ़तापूर्वक जनसंघ और भाजपा की विचारधारा, आदर्श तथा लोकाचारों से बंधे हुए थे। हमने कभी ऐसे मतभेदों को बढ़ावा नहीं दिया, जिससे परस्पर विश्वास और आदर का मूल्य कम हो जाए। तीसरा तथा अत्यधिक महत्वपूर्ण कारक यह है कि मैंने स्पष्ट रूप से तथा निरपवाद रूप में अटल जी को अपना वरिष्ठ एवं अपना नेता स्वीकार किया था।
अटल जी और मैंने जनसंघ के सैकड़ों कार्यकतार्ओं के साथ कड़ी मेहनत की थी। हमारे सर्वश्रेष्ठ प्रयासों के बावजूद हमारी पार्टी को जीत नहीं मिल पाई। परिणामतया, हम हताश थे। तब अटल जी ने मुझसे कहा, ‘‘चलो, कोई सिनेमा देखने चलते हैं।’’ हम दोनों राजकपूर की फिल्म ‘फिर सुबह होगी’ देखने के लिए पहाड़गंज के ‘इंपीरियल’ थिएटर गए।
राजग सरकार की छह वर्ष की अवधि के दौरान मीडिया और कुछ राजनीतिक क्षेत्रों में ‘अटल-आडवाणी विवाद’ न होते हुए भी, इस बारे में अटकलें लगाना समय बिताने का रोचक विषय था। मैं यहां दो उदाहरण देना चाहता हूं, जब अटल जी और मेरे बीच काफी मतभेद उत्पन्न हुआ था। अयोध्या आंदोलन के साथ भाजपा के सीधे जुड़ने के बारे में उन्हें आपत्ति थी। लेकिन धारणा और स्वभाव से लोकतांत्रिक होने के नाते तथा हमेशा साथियों के बीच सर्वसम्मति लाने के इच्छुक होने के कारण अटल जी ने पार्टी का सामूहिक निर्णय स्वीकार किया।
दूसरा उदाहरण, फरवरी, 2002 में गोधरा में कारसेवकों के व्यापक संहार के बाद गुजरात में सांप्रदायिक हिंसा भड़की थी। इस क्रूर घटना के बाद पड़ने वाले प्रभाव के कारण गुजरात सरकार, विशेषकर मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी, का प्रचंड विरोध किया गया। विरोधी पार्टियों ने मोदी के त्यागपत्र की मांग कर दी। यद्यपि अटल जी ने इस विषय पर स्पष्ट रूप से विचार अभिव्यक्त नहीं किए; लेकिन मैं जानता था कि वे मोदी के त्यागपत्र का पक्ष लेंगे। अप्रैल 2002 के दूसरे सप्ताह में भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की गोवा में बैठक थी। गोवा में लिए गए पार्टी के निर्णय से देश के अनेक लोग खुश नहीं थे।
जब मैं अतीत की ओर देखता हूं तो मुझे सबसे ज्यादा उस क्षण की मधुर याद आती है, जब हमने 1959 में फिल्म देखी थी। 1970 के दशक के मध्य तक हम प्राय: ‘रीगल’ तथा दिल्ली के अन्य थियेटरों में बड़े शौक से सिनेमा देखने जाते थे।
दिल्ली नगर निगम के उप-चुनावों में अटल जी और मैंने जनसंघ के सैकड़ों कार्यकतार्ओं के साथ कड़ी मेहनत की थी। हमारे सर्वश्रेष्ठ प्रयासों के बावजूद हमारी पार्टी को जीत नहीं मिल पाई। परिणामतया, हम हताश थे। तब अटल जी ने मुझसे कहा, ‘‘चलो, कोई सिनेमा देखने चलते हैं।’’ हम दोनों राजकपूर की फिल्म ‘फिर सुबह होगी’ देखने के लिए पहाड़गंज के ‘इंपीरियल’ थिएटर गए।
(श्री लाल कृष्ण आडवाणी की पुस्तक ‘मेरा देश, मेरा जीवन’ के एक अध्याय से उद्धृत)
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