समाज का हित ही लेखनी का ध्येय

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पाञ्चजन्य ब्यूरो

अटल जी ‘राष्ट्रधर्म’ और ‘पाञ्चजन्य’ के प्रथम संपादक थे। पत्रकारिता छोड़ कर राजनीति में पूरी तरह रम जाने और राजनीतिक ऊंचाइयां चढ़ने के बाद भी अटल जी की न सिर्फ दृष्टि और लेखनी की धार पैनी बनी रही बल्कि पत्रकारिता के तमाम पहलुओं पर वह चिंतन भी करते थे

दिल्ली में 29 और 30 मार्च, 1994 को प्रथम पाञ्चजन्य लेखक एवं संवाददाता सम्मेलन का आयोजन हुआ था। इसके उद्घाटन सत्र को पाञ्चजन्य के प्रथम संपादक अटल बिहारी वाजपेयी ने संबोधित किया था। यह संबोधन अटल जी की पत्रकारिता के विभिन्न आयामों के प्रति पैनी दृष्टि को दर्शाता है।

अटल जी कहते हैं कि पत्रकारिता के लिए बुनियादी बात यह है कि ध्येय के प्रति समर्पण हो, विचार के प्रति समर्पण हो। उन्होंने कहा कि विचार में शक्ति है और विचार जब छप जाता है तो एक हथियार बन जाता है। हालांकि यदि विचार बिक रहा है, विचार बेचा जा रहा है और उसके मूल में राष्ट्र के प्रति समर्पण की भावना नहीं है तो फिर विचारों का विक्रय हमें कहां ले जाएगा, इसकी कल्पना से हमें चिंता होती है।

अखबारों के स्वामित्व पर अटल जी ने कहा कि यद्यपि इस समय बाजार आधारित अर्थव्यवस्था चल रही है लेकिन फिर भी अखबारों के स्वामित्व का कोई न कोई तरीका होना चाहिए, ढंग होना चाहिए। विचारों की स्वाधीनता, अभिव्यक्ति की आजादी, उसका उपयोग समाज के हित में होगा या नहीं होगा या वह निहित स्वार्थ के हाथों का खिलौना बन कर रह जाएगी, यह देखना चाहिए। समाचारपत्र मालखाने से निकलने वाला माल नहीं है।

मई, 1996 में पाञ्चजन्य को दिए गए एक साक्षात्कार में आज के संपादकों को संदेश देने के लिए कहने पर अटल जी ने कहा कि मैं उपदेश देने की स्थिति में नहीं हूं। इतना ही कहूंगा कि संपादक को समाज के प्रति उत्तरदायी होना चाहिए और अपने प्रति सच्चा होना चाहिए। आत्मा के विरुद्ध काम नहीं करना चाहिए। लेकिन यह जरूरी है कि पहले आत्मा को जीवित रखा जाए।

फरवरी, 2000 में अटल जी ने कहा कि लेखन एक कला है, उसकी साधना करनी पड़ती है। विषय कोई भी हो, उसको ठीक तरह से प्रस्तुत करके पाठक का ज्ञानवर्धन करना चाहिए। पत्रकारिता में लेखन का परम लक्ष्य समाज होता है जो समाज को सबल बनाता है। पत्रकारिता में यह भी जरूरी है कि विचारों के प्रति प्रतिबद्धता हो। विचारों की भिन्नता भी एक सत्य है। लेकिन विचार भिन्नता और मतभेद ऊंचे स्तर पर पेश किए जाने चाहिए।

पत्रकारों के लिए आचार संहिता की पैरवी करते हुए उन्होंने कहा कि पत्रकारों को अगर अपनी बात कहनी है तो कही जाए, लेकिन लोकतांत्रिक मर्यादा के भीतर, लक्ष्मण रेखा का ध्यान रखते हुए। अगर बार-बार लक्ष्मण रेखा का उल्लंघन होगा, तो उसका कोई अर्थ नहीं रहेगा। हर वर्ग को अपने लिए आचार संहिता बनानी चाहिए।

मैं उपदेश देने की स्थिति में नहीं हूं। इतना ही कहूंगा कि
संपादक को समाज के प्रति उत्तरदायी होना चाहिए।

– 1996 में पाञ्चजन्य को दिए गए एक साक्षात्कार में

पत्रकारिता की पगडंडी पर
अटल जी के पत्रकार बनने की कहानी भी काफी दिलचस्प है। बात 1947 की है। उन दिनों भाऊराव देवरस जी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, उत्तर प्रदेश के प्रांत प्रचारक थे और पंं. दीनदयाल उपाध्याय सह प्रांत प्रचारक। संघ के कार्यक्रमों में अटल कविता-पाठ किया करते थे। खूब सराहना होती थी। भाऊराव जी और दीनदयाल जी की नजर में यह युवा, प्रखर और ओजस्वी कवि आ गया। जुलाई के महीने में दीनदयाल जी, भाऊराव जी और अटल जी की बैठक हुई। तय हुआ कि संघ के प्रचार-प्रसार के लिए एक मासिक पत्रिका निकाली जाए। किसी ने नाम सुझाया ‘राष्ट्रधर्म’। अटल जी इसके पहले संपादक बने। 31 अगस्त, 1947 को रक्षाबंधन पर राष्ट्रधर्म का पहला अंक प्रकाशित हुआ। इस अंक के पहले पन्ने पर संपादक अटल बिहारी वाजपेयी की कविता प्रकाशित हुई थी,
‘हिंदू तन मन, हिंदू जीवन, रग-रग हिंदू मेरा परिचय,
मैं शंकर का वह क्रोधानल, कर सकता जगती क्षार क्षार।’
यह कविता बाद में बहुत मशहूर हुई।

‘राष्ट्रधर्म’ के पहले अंक की 3,000 प्रतियां प्रकाशित हुई थीं। उस दौर में कोई भी हिंदी पत्रिका 500 से अधिक संख्या में नहीं छपती थी। राष्ट्रधर्म की सभी प्रतियां हाथों-हाथ बिक गईं तो 500 प्रतियां और छापनी पड़ीं। राष्ट्रधर्म के दूसरे अंक की 8,000 और तीसरे अंक की 12,000 प्रतियां छपी थीं। अटल जी कुछ ही महीने इस पत्रिका के संपादक रहे।

‘राष्ट्रधर्म’ की सफलता से उत्साहित संघ ने ‘पाञ्चजन्य’ नाम से एक साप्ताहिक भी निकालने का फैसला किया। इसके भी पहले संपादक की जिम्मेदारी अटल जी को ही मिली। 1948 में मकर संक्रांति के अवसर पर पाञ्चजन्य का पहला अंक प्रकाशित हुआ। उनके साथ काम करने वाले लोग बताते थे कि संपादन का उनका अंदाज वाकई निराला था। उन दिनों लेटर प्रेस होने के कारण कम्पोजिंग आज जैसी आसान नहीं थी। अंतिम दौर में पता लगता था कि चार-छह पंक्तियों की जगह खाली छूट रही है। कम्पोजिटर दौड़ा-दौड़ा आता था कि कुछ और पंक्तियां दे दीजिए, जिससे जगह भर जाए। अब लेख हो, गीत हो या कविता, अटल जी तुरंत उसमें चार-छह पंक्तियां बोलकर जुड़वा देते थे। अटल जी उत्कृष्ट राजनेता, यशस्वी संपादक, कवि और पत्रकार होने के साथ-साथ अच्छे कम्पोजिटर भी थे। 1980 में रांची से प्रकाशित एक दैनिक में अटल जी पहुंचे तो उन्हें पीटीएस लग जाने के बारे में बताया गया। वे पीटीएस की तकनीक और इसकी बारीकियों, विशेषताओं को देखने प्रेस पहुंच गए। वे कुर्सी पर बैठ गए और काफी देर तक तकनीक को समझने का प्रयास करते रहे। इसी दौरान उन्होंने बताया कि वे ‘हैण्ड कम्पोजिंग’ करना भी जानते हैं। ‘राष्ट्रधर्म’ के संपादन के दौरान कभी-कभी यह भी करना पड़ता था।

शब्द शिल्पी

साहित्यप्रेमी राजनेता कम होते हैं। लेकिन अटलजी इन दोनों परिभाषाओं से परे थे। वे वास्तव में शब्दों का संधान बहुत कुशलता से कर लेते थे। चाहे वह भाषण में हो, प्रत्युत्तर हो, तर्क हो, लेखन हो या कविता हो। उनका साहित्यिक प्रस्फुटन बहुत अनूठा था। प्रस्तुत हैं, कुछ उदाहरण –

  • अमावस के अभेद्य अंधकार का अंत:करण पूर्णिमा की उज्ज्वलता का स्मरण कर थर्रा उठता है।
  • राष्ट्र कुछ संप्रदायों तथा जनसमूहों का समुच्चय मात्र नहीं, अपितु एक जीवमान इकाई है।
  • साहित्य और राजनीति के कोई अलग-अलग खाने नहीं होते।’

पंडित मदन मोहन मालवीय द्वारा स्थापित सचित्र साप्ताहिक अभ्युदय में 11 फरवरी, 1946 को प्रकाशित अटल बिहारी वाजपेयी जी की कविता का एक अंश –
स्वतत्रता का युद्ध दूसरा, बजी समर की भेरी
लानत कोटि-कोटि पुत्रों की, मां कहलाए चेरी।
सर पर कफन बांध कर
निकली सरि-सी मस्त जवानी,
एक नया इतिहास बनाने, गढ़ने नई कहानी।
सागर सी लहराती आई मतवालों की टोली,
महलाप्रलय के बादल गरजे इंकलाब की बोली।
और …
आज लबालब भरा देश के अपमानों का प्याला,
आंसू के सागर में सुलगी है बड़वा की ज्वाला।
जला नहीं प्रह्लाद होलिका क्षार हो गई क्षण में,
सुनो प्रसून की अगवानी का स्वर उन्चास पवन में।
यह चन्दन की भूमि है, अभिनन्दन की भूमि है,
यह तर्पण की भूमि है, यह अर्पण की भूमि है।
इसका कंकर-कंकर शंकर है,
इसका बिन्दु-बिन्दु गंगाजल है।
**
आज सिंधु में ज्वार उठा है,
नगपति फिर ललकार उठा है,
कुरुक्षेत्र के कण-कण से फिर,
पाञ्चजन्य हुंकार उठा है।

अटल जी के भाषणों के कुछ उद्धरण

  • जीवन को टुकड़ों में नहीं बांटा जा सकता, उसका पूर्णता में ही विचार करा जाना चाहिए।
  • हमारे पड़ोसी कहते हैं कि एक हाथ से ताली नहीं बजती, हमने कहा कि चुटकी तो बज सकती है।
  • लालकृष्ण आडवाणी की रथयात्रा पर संसद में बहस के दौरान (आप चाहते हैं कि) ‘हम कारसेवा करते रहें, और आप सरकार सेवा करते रहें
  • वास्तव में हमारे देश की लाठी कमजोर नहीं है,बल्कि वह जिन हाथों में है, वे कांप रहे हैं।
  • मेरे पास न परदादा, दादा की दौलत है और न बाप की। मेरे पास सिर्फ मेरी मां का आशीर्वाद है।
  • बिना हमको सफाई का मौका दिए फांसी पर चढ़ाने की कोशिश मत करिए। क्योंकि हम मरते-मरते भी लड़ेंगे और लड़ते-लड़ते भी मरने को तैयार हैं।
  • मेरा कहना है कि सबके साथ दोस्ती करें लेकिन राष्ट्र की शक्ति पर विश्वास रखें। राष्ट्र का हित इसी में है कि हम आर्थिक दृष्टि से सबल हों, सैन्य दृष्टि से स्वावलम्बी हों।

पाञ्चजन्य से लगाव
‘पाञ्चजन्य’ से उनका लगाव अंत तक बना रहा। प्रधानमंत्री कार्यालय में साथ काम कर रहे पाञ्चजन्य के एक पूर्व पत्रकार से कई बार ‘पाञ्चजन्य’ की चर्चा हो जाती थी। वे अपने व्यस्त समय में से कई बार अपने पुराने सहयोगियों की खोज-खबर लेने को कहते। इस कड़ी में ‘पाञ्चजन्य’ के पूर्व संपादक महेंद्र कुलश्रेष्ठ का पता लगाने के कई प्रयास किए गए। कई बार उन्होंने पूर्व सहयोगियों को मिलने के लिए बुलाया भी। स्व. रामशंकर अग्निहोत्री भी उनसे मिलते रहते थे।

स्व. दीनानाथ मिश्र और प्रो. देवेंद्र स्वरूप भी ‘पाञ्चजन्य’ में उनके सहयोगी रहे, जिनसे वे गपशप करते रहते थे। एक बार किसी कार्यक्रम के लिए उनका भाषण तैयार हो गया, लेकिन आयोजक ने उन्हें कुछ गलत जानकारी दी थी, जिसका पता उन्हें एक दिन पहले लगा। इस बात से वे क्षुब्ध थे। आयोजक के बारे में अतीत में उन्होंने जो प्रशंसा की थी, वह उस प्रारूप में थी। यह देखते ही अटल जी बिफर गए और उसे संशोधित करने को कहा। जब पूर्व पत्रकार ने उनसे आग्रह किया कि वे ‘पाञ्चजन्य’ के संपादक रहे हैं, यदि स्वयं कलम चलाएंगे तो अच्छा होगा और उन्हें कलम पकड़ा दी।

उन्होंने भाषण के शुरू की 13 पंक्तियों को जिस तरह दो पंक्तियों में संपादित किया, वह उनके कुशल संपादन की एक झलक मात्र थी। ऐसा करते समय उनके चेहरे पर जो संतोष का भाव दिखा, वह एक संपादक जैसा भाव था। उनका लेखकीय मन बार-बार कुछ लिखने को या संपादित करने को तैयार दिखता था। कई बार जब भाषण तैयार कर उन्हें दिए जाते तो वह ऐसा कोई न कोई शब्द या वाक्य ढूंढ लेते और चर्चा करते। तब उनके चेहरे पर लेखक भाव झलकता था।

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