28 मई, 1996 को अपने मंत्रिमंडल के प्रति अविश्वास प्रस्ताव पर हुई बहस के बाद अटल जी ने चर्चा का उत्तर दिया। इस लेख की शुरुआत उनके उसी भाषण से होती है
अध्यक्ष महोदय, जिन्होंने प्रस्ताव का समर्थन किया है, उनको मैं विशेष रूप से धन्यवाद देना चाहता हूं। समता पार्टी के श्री जार्ज फर्नांडीस, शिवसेना के श्री सरपोतदार, अकाली दल के नेता बरनाला जी और हरियाणा विकास पार्टी के जयप्रकाश जी इन सबने प्रस्ताव का समर्थन किया है। जिन्होंने अलोचना की है, मैं उनकी आलोचना का उत्तर दूंगा, मगर मैं विशेष रूप से श्री मुरासोली मारन का उल्लेख करना चाहूंगा। अपने प्रिय मित्र श्री मुरासोली मारन के लिए कृतज्ञता का एक विशेष शब्द है मेरे पास। निश्चित मुद्दों पर हमारे मतभेदों के बावजूद, उन्होंने काफी गंभीरता से खरीद-फरोख्त के मुद्दे को साफ-साफ और तथ्यों के साथ रखा, यह स्पष्ट करते हुए कि हमने अल्पमत को बहुमत में बदलने के लिए सूटकेसों का उपयोग नहीं किया।
अध्यक्ष महोदय, मुझ पर आरोप लगाया गया है, और यह आरोप मेरे हृदय में घाव कर गया है। आरोप यह है कि मुझे सत्ता का लोभ हो गया है। और मैंने पिछले 10 दिन में जो कुछ किया है वह सत्ता के लोभ के कारण किया है। अभी थोड़ी देर पहले मैंने उल्लेख किया था कि मैं 40 साल से इस सदन का सदस्य हूं। कभी हम सत्ता के लोभ से गलत काम करने के लिए तैयार नहीं हुए। यहां पर श्री शरद पवार जी बैठे हुए हैं। जब मेरे मित्र जसवंत सिंह जी भाषण कर रहे थे तो श्री शरद पवार यहां नहीं थे। उस समय श्री जसवंत सिंह जी कह रहे थे कि श्री शरद पवार ने अपनी पार्टी तोड़कर हमारे साथ सरकार बनाई। सत्ता के लिए बनाई थी या महाराष्टÑ के भले के लिए बनाई थी, यह अलग बात है। मगर उन्होंने अपनी पार्टी तोड़कर हमारे साथ सहयोग किया था। मैंने तो ऐसा कुछ नहीं किया। बार-बार इस चर्चा में एक स्वर सुनाई दिया कि वाजपेयी तो अच्छा है, मगर पार्टी ठीक नहीं है।
लेकिन पार्टी तोड़कर सत्ता के लिए नया गठबंधन करके अगर सत्ता हाथ में आती है तो मैं ऐसी सत्ता को चिमटे से भी छूना पसंद नहीं करूंगा। ‘न भीतो मरणातस्मि केवलम सुचितो यश:।’ भगवान राम ने कहा था कि मैं मृत्यु से नहीं डरता। अगर डरता हूं तो बदनामी से डरता हूं, लोकापवाद से डरता हूं। 40 साल का मेरा राजनीतिक जीवन खुली किताब है। लेकिन जनता ने जब भारतीय जनता पार्टी को सबसे बड़े दल बनाने के रूप में समर्थन दिया तो क्या जनता की अवज्ञा होनी चाहिए? अब राष्ट्रपति ने मुझे सरकार बनाने के लिए बुलाया और कहा कि कल आपके मंत्रियों की शपथ-विधि होनी चाहिए और 31 तारीख तक आप अपना बहुमत सिद्ध कीजिए, तो क्या मैं मैदान छोड़कर चला जाता? मैं पलायन कर जाता? क्या यह तथ्य नहीं है कि हम सबसे बड़े दल के रूप में उभरे हैं।
पार्टी तोड़कर सत्ता के लिए नया गठबंधन करके अगर सत्ता हाथ में आती है तो मैं ऐसी सत्ता को चिमटे से भी छूना पसंद नहीं करूंगा।
हरियाणा में हम जीते हैं। हमने कर्नाटक में समर्थन प्राप्त किया है और यह ठीक है कि केरल और तमिलनाडु में हम उतने शक्तिशाली नहीं हैं, मगर हमारा संगठन है। पश्चिम बंगाल में भी हमें 10 प्रतिशत से थोड़े कम वोट मिले हैं, अगर आप वोट की बात करते हैं तो 10 प्रतिशत वोट की बात करिए। इस सदन में एक-एक व्यक्ति की पार्टियां हैं और वे हमारे खिलाफ जमघट करके हमें हटाने का प्रयास कर रहे हैं। उन्हें प्रयास करने का पूरा अधिकार है। यहां एक व्यक्ति की पार्टी है।
एकला चलो रे और चलो एकला अपने चुनाव क्षेत्र से और दिल्ली में आकर हो जाओ इकट्ठे रे। किसलिए इकट्ठे हो जाओ? देश के भले के लिए? स्वागत है। हम भी अपने ढंग से देश की सेवा कर रहे हैं। और अगर हम देशभक्त न होते और अगर हम निस्वार्थ भाव से राजनीति में अपना स्थान बनाने का प्रयास न करते और हमारे इन प्रयासों के पीछे चालीस साल की साधना है, यह कोई आकस्मिक जनादेश नहीं है, यह कोई चमत्कार नहीं हुआ है। हमने मेहनत की है, हम लोगों में गए हैं, हमने संघर्ष किया है। यह पार्टी 365 दिन चलने वाली पार्टी है।
नापने का यह कैसा गज?
गरीबी हटाने का एक ही मार्ग हो सकता है? क्या समृद्धि लाने के रास्ते अलग-अलग नहीं हो सकते? क्या लोकतंत्र में प्रामाणिक मतभेदों के लिए गुंजाइश नहीं होगी? जो भी विरोध करेगा, वह प्रतिक्रियावादी है और जो हां में हां मिलाएगा, वह प्रगतिवादी है, यह कौन-सी कसौटी है? व्यक्तियों को नापने का यह कौन-सा गज है? क्या यह कांग्रेस पार्टी की शब्दावली है? मेरे मित्र श्री चंद्रजीत यादव, यदि यह शब्दावली बोलें, तो समझ सकता हूं, लेकिन यह शब्दावली लोकतंत्र में नहीं चल सकती।
कश्मीर के बारे में सरकार की नीति दुर्बल और ढुलमुल रही है। हम सुरक्षा परिषद में शिकायत लेकर गए, किंतु हमने प्रारंभ से ही पाकिस्तान को आक्रमणकारी घोषित कराने पर बल नहीं दिया। हमारी सेनाएं जब विजय पर विजय प्राप्त करती जा रही थीं और आक्रमणकारी अपने पैर सिर पर रखकर भाग रहा था, तो हमने उन विजय वाहिनियों के पैरों में युद्ध विराम रेखा की जंजीर डाल दी। युद्ध के मैदान में जो कुछ जीता गया था, वह नई दिल्ली के प्रासाद में खो दिया गया।
हम लड़ाई में जीत गए पर संधि में हार गए और आज कश्मीर का एक तिहाई भाग आक्रमणकारी के कब्जा में है। वह कैसे मुक्त होगा, उसका क्या तरीका है, सरकार की क्या नीति है? वेदों में भगवान के स्वरूप का वर्णन करने के लिए नेति-नेति का उपयोग किया गया है। परमेश्वर यह नहीं है, परमेश्वर वह नहीं है।
कश्मीर, गोवा, पूर्वी बंगाल : एक सा हाल कभी-कभी मुझे लगता है कि कश्मीर और गोवा और पूर्वी बंगाल के हिंदुओं की समस्या के बारे में भी सरकार की जो नीति है, उसे नेति-नेति के शब्दों में ही अच्छी तरह से प्रकट किया जा सकता है। क्या कश्मीर के एक तिहाई भू-भाग को सेना के बल पर मुक्त कराएंगे? नहीं, नहीं। क्या हम उसे पाकिस्तान को तोहफे के रूप में पेश कर देंगे? नहीं, नहीं। फिर हम क्या करेंगे?
गोवा में क्या हम पुलिस कार्रवाई करेंगे? नहीं, नहीं। तो क्या फिर हम जनता को सत्याग्रह करने देंगे? नहीं, नहीं। तो फिर क्या हम गोवा को अत्याचारी पुर्तगाल के हाथों में छोड़ेंगे? नहीं, नहीं। यही बात पूर्वी बंगाल से हिन्दुओं के निष्क्रमण के बारे में है। हम पाकिस्तान पर दबाव डालने के लिए तैयार नहीं कि वह देश के बंटवारे के समय जो समझौता हुआ था उसका पालन करे, और भारत में मुसलमानों के साथ जिस तरह का समता और सम्मान का व्यवहार किया जा रहा है, पाकिस्तान में भी हिन्दुओं के साथ उसी तरह का व्यवहार करे। देश का विभाजन इस आधार पर हुआ था और यदि पाकिस्तान उस आधार को स्वीकार नहीं करता तो हमें अन्य उपायों को अपनाने पर विचार करना चाहिए। लेकिन हम पाकिस्तान पर न तो दबाव डालने के लिए तैयार हैं, न निष्क्रमणकारी हिन्दुओं को बसाने के लिए भूमि मांगने के लिए तैयार हैं। हमारी नीति क्या है। नेति-नेति। इसी से उसकी व्याख्या की जा सकती है।
मैं कश्मीर की समस्या के संबंध में अपनी बात कह रहा था। एक तिहाई भू-भाग को मुक्त कराने के लिए हमारे प्रधानमंत्री वचनबद्ध हैं, अर्थात उसकी एक इंच भूमि भी आक्रमणकारी को न सौंपी जाए। कभी-कभी ऐसी खबरें आती हैं कि इस तरह के प्रस्ताव रखे गए हैं कि युद्ध विराम रेखा पर पाकिस्तान से समझौता कर लिया जाए। मुझे खुशी है कि अब तक प्रस्ताव नहीं है, और मैं स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि कोई भी ऐसा प्रस्ताव जिससे कश्मीर का विभाजन होगा, भारत की जनता स्वीकार नहीं करेगी। कश्मीर पूरी तरह से भारत में मिल चुका है और यदि कश्मीर की आज कोई समस्या होगी तो यही समस्या है कि पाकिस्तान उस भू-भाग को कब खाली करने जा रहा है जो उसके अवैध अधिकार में है। (15 मई, 1957, लोकसभा)
(यह लेख डॉ.ना.मा. घटाटे द्वारा संपादित पुस्तक ‘अटल बिहारी वाजपेयी : मेरी संसदीय यात्रा’ के कुछ अंशों पर आधारित है)
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