तवांग में चीनी सैनिकों की घुसपैठ की कोशिश चीन की सैन्य रणनीति के बजाय राजनीतिक रणनीति ज्यादा प्रतीत होती है। इससे पहले गलवान में और उससे पूर्व डोकलाम में भी भारत-चीन टकराव के साथ राजनीतिक पहलू जुड़ा दिखता है
अरुणाचल प्रदेश के तवांग क्षेत्र में चीनी सैनिकों ने एक बार फिर घुसपैठ की कोशिश की, जिसका भारतीय सैनिकों ने उन्हें तगड़ा जवाब दिया। जवाब ऐसा कि चीनी सैनिक इसे भूल नहीं पाएंगे और अपने कमांडर से कहते रहेंगे कि यह नया भारत है। यह घर में घुस कर भी मारता है और इनके यहां घुसपैठ करो तो भी मारता है। प्रश्न यह है कि आखिर चीन लगातार इस तरीके की हरकतें क्यों करने लगा?
चीन की ओर से ये गतिविधियां पिछले पांच-छह साल में ज्यादा हुई हैं, खासकर 2017 के बाद से। इन घटनाओं में एक समान बात दिखेगी। पहला, 2017 में जब डोकलाम संकट हुआ था तो उसी दौरान राहुल गांधी छिपते-छिपाते चीनी दूतावास जा रहे थे। इसके बाद 2020 में देखें, यह बात उजागर हुई कि 2008 में कांग्रेस और चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के बीच एक एमओयू पर हस्ताक्षर हुए थे। तब उस समय गलवान की घटना हुई। और, अब जब यह संसद सत्र शुरू हुआ है तो तवांग के इलाके में समान घटना हुई। इस तीनों घटनाओं के साथ कोई न कोई राजनीतिक पहलू जुड़ा है।
चीनी कम्युनिस्ट पार्टी का एक अंग है पीएलए – पीपुल्स लिबरेशन आर्मी। वह संपूर्ण रूप से एक राजनीतिक मशीनरी है। यह चीन की सेना का एक राजनीतिक यंत्र है। इस संगठन का अध्ययन करेंगे तो आप देखेंगे कि बटालियन के स्तर तक एक राजनीतिक कमिसार (महासचिव) होता है जिसका यही काम होता है कि किस तरीके से लोगों को कम्युनिस्ट विचारधारा से प्रेरित किया जाए। इसका दूसरा काम उस पर वैचारिक नियंत्रण रखना है। तीसरे, वे पूरी व्यवस्था में भिन्न सोच वाले ओहदेदारों के बारे में रिपोर्टिंग भी करते हैं। वर्ष 1993 में भारत-चीन में सीमा पर गश्त के दौरान एक-दूसरे पर गोली न चलाने का समझौता हुआ था। जब इस बात का इत्मिनान हो कि गोली नहीं चलेगी तो उसका फायदा हमारे देश के भीतर बैठे चीनपरस्त लोग उठाते हैं और चीन के साथ सांठगांठ करके ये सारा खेल बड़ी चतुराई से नियंत्रित करते हैं।
कांग्रेस ने चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के इंटरनेशनल लायजन डिपार्टमेंट (आईएलडी) के साथ एमओयू साइन किया। आईएलडी वहां की खुफिया एजेंसी है। जिस तरह भारत में रॉ है, उसी तरह चीन में आईएलडी है। शीत युद्ध के समय आईएलडी का काम दुनिया के अन्य देशों की कम्युनिस्ट पार्टियों से संपर्क रखना था। तब भारत के सारे वामपंथी नेता, माओवादी नेता, न्यायपालिका में कुछ लोग आईएलडी द्वारा नियंत्रित थे और उसके साथ मिलजुल अपने ही देश के खिलाफ काम करते थे।
अब आईएलडी ने अपना रूप थोड़ा और व्यापक किया है। उसके तहत वे दूसरे देशों की अन्य पार्टियों से भी सांठगांठ करने लगे हैं और उसमें एक पार्टी है सोनिया गांधी की कांग्रेस पार्टी। उसके पहले, कांग्रेस के रूस से संबंध थे। पाकिस्तान की जमायते इस्लामी और दुनिया भर में 160 देशों में छह सौ ऐसे राजनीतिक दलों /संगठनों के साथ इन्होंने इस तरह का एमओयू साइन किया हुआ है और ये एक तरह से वैकल्पिक कूटनीति चलाते हैं। हर दूतावास में आईएलडी के लोग समायोजित किए जाते हैं। राहुल गांधी ऐसे ही आईएलडी सदस्य से वार्तालाप करने छिपते हुए चीनी दूतावास गए थे।
मुझे हैरानी है कि अलग-अलग चीजों पर संज्ञान लेने वाले सर्वोच्च न्यायालय ने चीन के इन पैरोकारों का मामला पहुंचने पर आश्चर्य जताया परंतु कोई कार्रवाई नहीं की। आज से बीस साल पहले बिहार के एक पुलिस अधिकारी ने बातचीत में कहा कि हम माओवादियों को पकड़ते हैं और उन्हें पकड़ते ही दिल्ली से सर्वोच्च न्यायालय का कोई वकील विमान से आ जाता है। उसे पैसे कौन देता है, कहां से पैसे आते हैं, यह स्पष्ट नहीं होता। तो न्यायपालिका में इनकी घुसपैठ बहुत पहले से रही है।
तिब्बत चीन और हमारे बीच बफर स्टेट था। हमारे पास दो-तीन हफ्ते का मौका था चीन को वहां से हटाने का परंतु नेहरू जी ने वह मौका गवां दिया। वर्ष 1959 में पहली बार चाऊ एन लाई ने चिट्ठी लिखी और वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) का जिक्र करते हुए एलएसी से दोनों देशों की सेनाओं के 20-20 किमी पीछे हटने का प्रस्ताव किया। नेहरू ने उसे खारिज कर दिया। फिर 62 का युद्ध हो गया।
मुझे बीस साल में भारत में कोई ऐसा मुसलमान नहीं मिला जो चीन में मुसलमानों के साथ हो रहे उत्पीड़न की भर्त्सना करें। इसमें एक बात और जोड़ लीजिए कि विश्व में 56 मुस्लिम देश हैं। उनके यहां चीनी दूतावास हैं परंतु किसी मुस्लिम देश में चीनी दूतावासों के सामने उईगर मुसलमानों के उत्पीडन के खिलाफ कोई प्रदर्शन नहीं हुआ। क्यों? मुस्लिम समझते हैं कि चीन भारत के खिलाफ है क्योंकि वह पाकिस्तान का रणनीतिक सहयोगी है। इसलिए गजवा ए हिंद में चीन उनकी मदद करेगा। इसलिए किसी भी पार्टी का कोई मुसलमान कभी चीन के खिलाफ एक शब्द नहीं बोलेगा।
दूसरा है चर्च। राजीव गांधी की हत्यारिन नलिनी की रिहाई के लिए डीएमके परेशान था। नलिनी की रिहाई के लिए अदालती प्रक्रिया में न्यायाधीश की भाषा देखें। इसके अलावा राजीव की पत्नी एवं पुत्री द्वारा नलिनी को क्षमादान दिए जाने की हड़बड़ी देखें। ये बेचैनी इसलिए थी कि अगर नलिनी ने मुंह खोल दिया होता तो राजीव गांधी की हत्या में चर्च की भूमिका सामने आ जाती। ये एक बहुत बड़ा तंत्र था। मैं उस वक्त चेन्नई में नियुक्त था और बाद में श्रीलंका से भी जुड़ा रहा। चेन्नई में लगता था कि वहां एलटीटीई ने पूरा अधिग्रहण कर लिया है। बाद में श्रीलंका में अहसास हुआ कि एलटीटीई की चर्च से बहुत ज्यादा प्रगाढ़ता थी। प्रभाकरण और बालासिंघम समेत इनका पूरा जाफना कैडर और शीर्ष नेतृत्व ईसाई था। चर्च की माओवाद से भी सांठगांठ है। तीसरे ये वामपंथी हैं। तो ये तीन तरह का हमला है।
माओ ने 1950 में तिब्बत पर हमला बोल दिया।
तिब्बत चीन और हमारे बीच बफर स्टेट था। हमारे पास दो-तीन हफ्ते का मौका था चीन को वहां से हटाने का परंतु नेहरू जी ने वह मौका गवां दिया। वर्ष 1959 में पहली बार चाऊ एन लाई ने चिट्ठी लिखी और वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) का जिक्र करते हुए एलएसी से दोनों देशों की सेनाओं के 20-20 किमी पीछे हटने का प्रस्ताव किया। नेहरू ने उसे खारिज कर दिया। फिर 62 का युद्ध हो गया। इससे ठीक पहले एक इंटरव्यू में होमी जहांगीर भाभा ने कहा था कि सरकार कहे तो हम परमाणु हथियार बना सकते हैं। इसके बाद भाभा की हत्या कर दी गई। अब इसमें किसका हाथ था, यह स्पष्ट नहीं हुआ।
पहली बार 1993 में एलएसी की बात हुई और शांति समझौते पर हस्ताक्षर हुए। कहा गया कि ये एलएसी दोनों देशों को प्रशासित करेगी। इसका ये अर्थ हुआ दोनों देशों के बीच सीमा नियत नहीं है। इसका हल निकाला जाएगा। हम तो चाहते हैं एलएसी कोई नियत लाइन हो जाए, चीन नहीं चाहता। दरअसल उसकी नीयत यह है कि जब तक एलएसी रहेगी, तब तक वह घुसपैठ की हरकत करता रहेगा और भारत में सबंधित राजनीतिक दल उसका लाभ उठाता रहेगा। संसद सत्र हुआ, हंगामा हो गया, फिर मामला शांत है।
अब कोई राजीव गांधी फाउंडेशन को पैसा दे रहा है तो कोई तो स्वार्थ होगा। आप जाकिर नाइक जैसे जिहादी से भी पैसा लेते हो, माओवादियों से भी लेते हो। जब पैसा लेते पकड़े जाते हो तो मित्र चीन से कुछ करने का आग्रह करते हो। तो वह कहता है कि चलो ठीक है, तवांग क्षेत्र बहुत महत्वपूर्ण है, वहां कुछ करते हैं। अब सबको इत्मिनान है कि गोली चलेगी नहीं तो ये ड्रामे करवाते जाओ। कभी-कभी तो मुझे ये लगता है कि इतने सारे आंतरिक दुश्मन होने के बावजूद यह देश विश्व की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया। अगर हमारे देश के भीतर ये तत्व नहीं होते तो हम क्या कुछ हासिल कर सकते थे। (लेखक रक्षा विशेषज्ञ हैं)
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