1950 के दशक के अंत में संसद में भी अटल जी ने न केवल चीन के इरादों का पक्ष सामने रखा था, न केवल नेहरू के रक्षा मंत्री के इरादों पर संदेह जताया था, बल्कि नेहरू सरकार के चीन के प्रति दृष्टिकोण पर भी गंभीर सवाल उठाए थे।
अटल जी की जयंती पर जब हम उन्हें याद करते हैं, तो उनकी चीन नीति का स्मरण अपने-आप हो जाता है। अटल बिहारी वाजपेयी चाहते थे कि भारत और चीन के बीच सीमा विवाद का अंत हो और शांतिपूर्ण ढंग से हो। वास्तव में चीन के प्रति वाजपेयी जी की दृष्टि भारत की चीन नीति का एक निर्णायक पक्ष रही है। सरल शब्दों में कहा जाए, तो शांतिपूर्ण सहअस्तित्व की आकांक्षा, लेकिन चीन की नीतियों और इरादों की पूरी समझ भी।
आजादी के फौरन बाद ही चीन के इन इरादों को भांप लेने वालों में सरदार पटेल भी थे और डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी भी। चीन के भारत पर हमले के पहले भी इन नेताओं ने तत्कालीन नेहरू सरकार को बार-बार चेताया था। 1950 के दशक के अंत में संसद में भी अटल जी ने न केवल चीन के इरादों का पक्ष सामने रखा था, न केवल नेहरू के रक्षा मंत्री के इरादों पर संदेह जताया था, बल्कि नेहरू सरकार के चीन के प्रति दृष्टिकोण पर भी गंभीर सवाल उठाए थे।
यह खेद की बात है कि इनमें से किसी की भी बात से, किसी के भी पत्रों से और संसद में कही गई बातों से नेहरू सरकार की रूमानियत भरी नींद नहीं टूट सकी। हो सकता है कि इसी कारण चीन को यह गलतफहमी हुई हो कि भारत के नेतृत्व का व्यवहार हमेशा इसी प्रकार रहने वाला है। डोकलाम, गलवान और अब तवांग घाटी में चीन के इरादों पर पानी फेर कर भारत ने चीन की यह तंद्रा दूर कर दी होगी, ऐसी अपेक्षा की जानी चाहिए। आज समूचा विश्व जानता है कि चीन के तानाशाह चाहे जितने ही दबंग बनकर पेश होते हों, लेकिन वास्तव में तिब्बत, त्येनआनमन और ताइवान के शब्द सामने आते ही तुतलाने लगते हैं। वे निश्चित रूप से तानाशाह हैं, लेकिन अगर आम नागरिक भी हाथों में तख्तियां लेकर सड़क पर आ जाते हैं, तो ये तानाशाह भयभीत हो जाते हैं।
अटल जी की ही तरह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी चीन के साथ संबंधों को सामान्य करने के लिए अथक प्रयास किए हैं। अगर वाजपेयी चीन यात्रा करने वाले भारत के पहले विदेश मंत्री थे, तो मोदी भारत के एकमात्र ऐसे प्रधानमंत्री हैं जो पांच बार चीन की यात्रा कर चुके हैं। यह अपनी सावधानी में जरा भी चूक किए बिना संबंधों को सामान्य करने के इरादे की ही नीति का प्रतीक है।
पोकरण-2 के परमाणु परीक्षणों का इरादा स्पष्ट था कि अटल जी की सरकार ऐसी पुख्ता व्यवस्था कर देना चाहती थी कि चीन कभी भी भारत को परमाणु भभकी देने की स्थिति में ना आ सके। यह चीन को समझ सकने की दीर्घकालिक और व्यावहारिक दृष्टि का परिणाम था। लेकिन यही वाजपेयी यह भी चाहते थे कि सारे विवाद वार्ता से दूर हों और इसके लिए उन्होंने एक स्तर तक सफलता भी तब प्राप्त कर ली थी, जब चीन सीमा विवाद सुलझाने के लिए विशेष दूतों की व्यवस्था बनाने पर सहमत हो गया था। हालांकि अंतत: उसे भी चीन ने सिर्फ समय बिताने का एक औजार समझ लिया। चीन को अपनी विस्तारवादी मानसिकता से बाहर आने में कितना समय लगेगा, यह देखना होगा।
चाइना रिफॉर्म फोरम में सेंटर फॉर स्ट्रैटजिक स्टडीज के निदेशक मा जियाली ने 2018 में अपने लेख में बताया कि कैसे पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को 1998 में परमाणु परीक्षण से लेकर 2003 में नई सीमा वार्ता प्रक्रिया शुरू करने तक भारत की चीन नीति का वास्तुकार माना जाता है। वे कहते हैं कि 2003 में वाजपेयी की चीन यात्रा से द्विपक्षीय संबंधों में काफी स्थिरता आई। वाजपेयी के शासनकाल के दौरान भारत-चीन के बीच राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक क्षेत्र में काफी सुधार हुआ था।
अटल जी की ही तरह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी चीन के साथ संबंधों को सामान्य करने के लिए अथक प्रयास किए हैं। अगर वाजपेयी चीन यात्रा करने वाले भारत के पहले विदेश मंत्री थे, तो मोदी भारत के एकमात्र ऐसे प्रधानमंत्री हैं जो पांच बार चीन की यात्रा कर चुके हैं। यह अपनी सावधानी में जरा भी चूक किए बिना संबंधों को सामान्य करने के इरादे की ही नीति का प्रतीक है।
वापस अटल जी पर लौटें, जिनकी जयंती का भी अवसर है, और जो पाञ्चजन्य के प्रथम संपादक भी थे। पाञ्चजन्य का यह विशेष अंक उन्हीं की स्मृतियों को समर्पित है। आज भारत आर्थिक विकास के क्षेत्र में विश्व भर में सबसे आगे है। भारत को इसी प्रकार भव्य बनाने में अटल जी का योगदान कितना निर्णायक था, पढ़िए इस अंक में…
@hiteshshankar
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