पहले मुफ्त सेवाएं देकर गूगल जैसी कंपनियां नि:शुल्क सेवाएं देकर ग्राहकों के बीच अपना अधार बनाती हैं, फिर सेवाओं के बदले पैसे लेकर ग्राहक बनाती हैं
इंटरनेट के आने के बाद लोग यह देखकर चौंक गए थे कि वहां पर सेवाओं, सामग्री और उत्पादों के इस्तेमाल का एक नि:शुल्क मॉडल भी प्रचलित था। अनगिनत वेबसाइट नि:शुल्क पढ़ी जा सकती थीं, सर्च इंजनों पर नि:शुल्क सर्च संभव थी, हॉटमेल जैसी ईमेल साइट नि:शुल्क ईमेल संदेश पाने और भेजने का मौका देती थीं। यहां तक कि जियोसिटीज और ट्राइपॉड जैसी वेबसाइटों ने हमें निजी वेबसाइट या वेब पेज नि:शुल्क बनाने का मौका दिया। हमारी भौतिक दुनिया के विपरीत, यह एक अद्भुत, आश्चर्यजनक और अविश्वसनीय अनुभव था। तब से अनगिनत लोग यही पूछ रहे हैं कि आखिर कोई हमें फोकट में इतना कुछ कैसे दे सकता है। मुफ्त का माल देकर भी गूगल जैसी कंपनियां जिंदा कैसे हैं?
हकीकत में गूगल न सिर्फ जिंदा है, बल्कि सर्वाधिक फायदेमंद कंपनियों में से एक है। शुरुआत में इन कंपनियों की रणनीति ज्यादा से ज्यादा उपभोक्ताओं को जुटाने की थी, क्योंकि संख्या के आधार पर ही अहमियत, दबदबे व आर्थिक मूल्य का अंदाजा लगाया जाता था। तब इस तथ्य को ज्यादा महत्व नहीं दिया गया कि कौन-सी कंपनी कितनी कमाई कर रही है। बड़ी बात यह मानी जाती थी कि उसके साथ कितने लोग जुड़े हुए हैं। लगता था कि जो कंपनी इंटरनेट पर जितने ज्यादा पांव पसार लेगी, भविष्य में अपने करोड़ों उपभोक्ताओं तथा एकाधिकार के जरिए अरबों-खरबों डॉलर कमाएगी।
इस सुखद कल्पना के दौरान 1995 से 2001 के बीच डॉट कॉम बूम (वेबसाइटों की धूम) का जमाना देखा। तब छोटी-छोटी सेवाएं देने वाली आॅनलाइन कंपनियों की कीमत अरबों-खरबों में लगाई गई। लेकिन बिना कमाई विस्तार करते चले जाने की रणनीति को एक दिन धराशायी होना ही था, क्योंकि एकतरफा खजाना अनंत काल तक नहीं चल सकता। अंतत: डॉट कॉम बबल बर्स्ट (वेबसाइटों के गुब्बारे का फटना) देखा। बड़ी-बड़ी इंटरनेट कंपनियां जमीन पर आ गिरीं और इतिहास का हिस्सा बन गई।
गूगल जैसी कंपनियों ने उस अनुभव से सबक लिया। उन्होंने नि:शुल्क सेवाएं अवश्य दीं, पर आय के वैकल्पिक मॉडल भी बनाए। नि:शुल्क सेवाओं के जरिए संख्या बढ़ाई, पर इसी संख्या में से अपने लिए ग्राहक भी तैयार किए। इसे ‘फ्रीमियम मॉडल’ के रूप में जानते हैं, जिसमें सामान्य सेवाएं नि:शुल्क देकर अपना आधार बढ़ाया जाता है। फिर उन लोगों के बीच बेहतर सेवाओं की पेशकश करके सशुल्क ग्राहक बनाए जाते हैं।
जब आप पूरी तरह से स्थापित हो जाते हैं और आपका प्लेटफॉर्म खुद को साबित कर चुका होता है तो आप आम लोगों से इतर, कारोबारी ग्राहकों पर ध्यान केंद्रित कर सकते हैं और उन्हें अपनी सशुल्क सेवाएं दे सकते हैं। इतना ही नहीं, अपनी अथाह ग्राहक संख्या को दूसरे तरीकों से भी धन में बदलने लगते हैं, जैसे विज्ञापन दिखाकर, डेटा इकट्ठा करके, डेटा का इस्तेमाल नई सेवाओं के विकास में करके (जैसे मशीन अनुवाद आदि), अपने उत्पादों को बेहतर बनाने में इन्हीं लोगों की मदद लेकर (जैसे मैप्स, रिव्यू आदि)। यहां तक कि डेटा को दूसरे ग्राहकों के साथ साझा करके भी।
‘डॉट कॉम बबल बर्स्ट’ के जमाने और आज के जमाने में अंतर है। आज मुफ्त की सेवाएं देने वाली कंपनियां और प्लेटफॉर्म इस बारे में अत्यधिक सजग हैं कि उन्हें अपनी आय के वैकल्पिक साधनों को मजबूत करना है। फेसबुक हो या लिंक्ड इन, ट्विटर हो या इंस्टाग्राम, टिकटॉक हो या स्पॉटिफाई-सब विज्ञापन, सबस्क्रिप्शन व विशिष्ट सेवाओं के जरिए कमाई कर रहे हैं। बात सिर्फ इंटरनेट कंपनियों तक ही सीमित नहीं है। अनेक सॉफ्टवेयर के दो संस्करण हैं, एक नि:शुल्क व दूसरा सशुल्क, जैसे माइक्रोसॉफ्ट आॅफिस, गूगल डॉक्स, ड्रॉपबॉक्स, जूम, पिन्टरेस्ट, टीम्स, गूगल मीट, एडोबी का क्रिएटिव क्लाउड एक्सप्रेस, माइक्रोसॉफ्ट विजुअल स्टूडियो आदि। सुना है कि जल्दी ही एडोबी के लोकप्रिय सॉफ्टवेयर फोटोशॉप का इंटरनेट संस्करण भी नि:शुल्क होने वाला है।
जीवन के दूसरे क्षेत्रों में भी ऐसा है। बहुत सारे अखबारों के ई-पेपर आपको एकाध पेज नि:शुल्क पढ़ने का मौका देते हैं और आगे के लिए पैसा मांगते हैं। कई वेबसाइट अपने लेख का एक पैरा नि:शुल्क पढ़ने देंगी और शोध पर आधारित कुछ वेबसाइट अपनी रपटों का सार-संक्षेप पढ़ने देंगी। अधिक विवरण चाहिए तो सबस्क्रिप्शन लीजिए। याद रखिए कि सीमित सामग्री पढ़ते समय भी आप उनकी वेबसाइट पर दिए विज्ञापन देख रहे हैं, उनके दैनिक पेज व्यूज की संख्या बढ़ा रहे हैं, उनकी प्रतिष्ठा में वृद्धि कर रहे हैं, उन्हें नंबर एक या दो पर स्थापित कर रहे हैं। यह सभी तो लाभदायक है।
(लेखक माइक्रोसॉफ़्ट में निदेशक-भारतीय भाषाएं और सुगम्यता के पद पर कार्यरत हैं। लेख में व्यक्त विचार निजी हैं)
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