जी-20 की अध्यक्षता मिलना भारत की बड़ी उपलब्धि है। आजादी के बाद पहली बार भारत के पास दुनिया को दिखाने के लिए अपना एक सफल मॉडल है। हमारी अपनी स्वतंत्र विदेश नीति है, जिसका लोहा दुनिया भी मानती है
गत 1 दिसंबर से भारत ने जी-20 की अध्यक्षता संभाल ली है। दुनियाभर के नेताओं से मिले बधाई संदेशों के बीच प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वैश्विक स्तर पर सबके साथ मिलकर काम करने का आह्वान किया है। उन्होंने कहा कि भारत ‘एक पृथ्वी, एक परिवार, एक भविष्य’ की थीम पर काम करेगा। जी-20 की अध्यक्षता की घोषणा होने के बाद प्रधानमंत्री मोदी ने वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए जी-20 के नए लोगो, थीम और वेबसाइट का अनावरण किया। इस मौके पर उन्होंने कहा कि यह लोगो केवल प्रतीक चिह्न नहीं है, बल्कि एक संदेश है। यह एक संकल्प है, जो हमारी सोच में शामिल रहा है।
उधर, विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने ‘यूनिवर्सिटी कनेक्ट’ कार्यक्रम में कहा कि दुनिया अभूतपूर्व समय से गुजर रही है। इसलिए वैश्विक नेताओं को सही मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता है, जो विशेष रूप से दुनिया के अधिक कमजोर वर्गों को प्रभावित करते हैं। इस समय हमें ग्लोबल साउथ (वैश्विक दक्षिण) की आवाज बनना चाहिए, जो ऐसे मंचों से कम सुनाई पड़ती है। एशिया, अफ्रीका और लातीनी अमेरिकी देशों को पूरा भरोसा है कि भारत उनकी आवाज बनेगा। प्रधानमंत्री और विदेश मंत्री की बातों से स्पष्ट है कि भारत केवल औपचारिकता निभाने के लिए जी-20 का अध्यक्ष नहीं बना है। ऐसे समय में जब विश्व-व्यवस्था नए तरीके से परिभाषित हो रही है, वह विकल्प देने के लिए सामने आ रहा है।
सहयोगी संसार
भारतीय राजनेताओं के वक्तव्यों से दो बुनियादी बातें निकली हैं। एक, समस्याओं का समाधान एकतरफा नहीं हो सकता। हमें सभी पक्षों के दृष्टिकोण को सामने रखना चाहिए। दूसरा, भारत ‘ग्लोबल साउथ’ की आवाज बनकर उभरना चाहता है, पर यह दक्षिण किसी उत्तर के विरुद्ध नहीं है, बल्कि उत्तर का प्रतिपूरक है। विदेश मंत्रालय की तरफ से जारी बयान के अनुसार, भारत अपनी अध्यक्षता में अगले साल 9 और 10 सितंबर को जी-20 के नेताओं के शिखर सम्मेलन की मेजबानी करेगा। भारत जिस बड़े स्तर पर सम्मेलन के आयोजन की रूपरेखा तैयार कर रहा है, उतने बड़े स्तर पर अब तक जी-20 की बैठक नहीं हुई है। आयोजन के पैमाने और भागीदारों की संख्या से तो अगला एक साल महत्वपूर्ण होगा ही, यह जी-20 की भूमिका को नए सिरे से परिभाषित करने का भी अवसर होगा।
‘यत्र विश्वं भवत्येकनीडम्’। यह हमारी विश्व-दृष्टि है। ‘एक विश्व’ की प्राचीन अवधारणा, जो आधुनिक ‘ग्लोबलाइजेशन’ या ‘ग्लोबल विलेज’ जैसे रूपकों से कहीं व्यापक है। संयोग से यह भारत का पुनरोदय-काल है। अतीत में भारत दुनिया के अग्रणी देशों में हुआ करता था। वैसा ही समय अब आ रहा है, जब भारत को दुनिया को राह दिखानी होगी। कोरोना संकट के बाद दुनिया यूक्रेन युद्ध और आर्थिक मंदी की आशंकाओं का सामना कर रही है। ऐसे संकटकाल में भारत की भूमिका बढ़ गई है।
क्या है जी-20
25 सितंबर, 1999 को अमेरिका की राजधानी वॉशिंगटन डीसी में विश्व के सात प्रमुख देशों के समूह जी-7 ने एक नया समूह बनाने की घोषणा की थी। उभरती आर्थिक ताकतों की खराब वित्तीय स्थिति से बने चिंता के माहौल के बीच गठित इस संगठन को नाम दिया गया-जी 20। उस वक्त यह विश्व की 20 प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं के वित्त मंत्रियों और केंद्रीय बैंक के गवर्नरों के संगठन के रूप में सामने आया था, जिसमें 19 देश और यूरोपीय संघ शामिल थे। जी-20 के सदस्य देशों में फ्रांस, जर्मनी, भारत, इंडोनेशिया, इटली, जापान, अर्जेंटीना, आॅस्ट्रेलिया, ब्राजील, कनाडा, चीन, दक्षिण कोरिया, मैक्सिको, रूस, सऊदी अरब, दक्षिण अफ्रीका, तुर्की, ब्रिटेन, अमेरिका और यूरोपीय संघ शामिल हैं। इन देशों के अलावा इसके सम्मेलनों में दुनिया भर के तमाम संगठनों और देशों को समय-समय पर आमंत्रित किया जाता है।
आर्थिक सहयोग के प्रभावशाली संगठन के रूप में शुरू होने वाला जी-20 अभी दुनिया की आर्थिक परिघटनाओं, खासतौर से वैश्विक मंदी के मद्देनजर सबसे प्रभावशाली संगठन है। इसका कोई स्थायी सचिवालय नहीं है। इसके लिए अब प्रयास किया जा रहा है। फिलहाल जिस देश की अध्यक्षता होती है, वह अपने यहां एक अस्थायी सचिवालय की स्थापना करता है।
बाली में पहल
यूके्रन युद्ध के कारण लगा था कि सब कुछ ढहने वाला है। दुनिया एक बार फिर से दो भागों में बंट गई। जी-20 में दोनों ही गुटों के समर्थक देश शामिल हैं। भारत का संपर्क पश्चिमी देशों और रूस, दोनों के साथ है। यही वजह है कि पिछले दिनों पश्चिमी मीडिया ने जोर देकर कहा था कि भारत यूक्रेन युद्ध में शांति कराने की क्षमता रखता है। बाली सम्मेलन में मतभेद इस स्तर पर थे कि सर्वसम्मत घोषणा-पत्र बनना भी मुश्किल था। 15 दौर की मंत्रिस्तरीय वार्ता के बावजूद पूरा संगठन दो गुटों में बंटा हुआ था। अमेरिका के नेतृत्व में पश्चिमी देश बिना घोषणा-पत्र के ही बैठक का समापन चाहते थे। तब भारतीय प्रतिनिधियों ने संगठन के दूसरे विकासशील देशों के साथ मिल कर सहमति बनाने की कोशिश की, जिसके बाद संयुक्त घोषणा-पत्र जारी हो पाया। इसके बावजूद सदस्य देशों के बीच कई मुद्दों पर सहमति नहीं बन पाई। कड़वाहट इतनी ज्यादा थी कि बाली बैठक के दौरान सभी राष्ट्र प्रमुखों का संयुक्त फोटो नहीं लिया जा सका।
जी-20 बैठक के दौरान यह पहला मौका था, जब सदस्य देशों के प्रमुखों का कोई समूह फोटो नहीं हुआ। बहरहाल, भारत की पहल पर बने घोषणा-पत्र में प्रधानमंत्री मोदी के उस प्रसिद्ध वाक्य को शामिल किया गया कि ‘आज संघर्षों का जमाना नहीं है।’ यह बात उन्होंने समरकंद में शंघाई सहयोग संगठन के शिखर सम्मेलन में कही थी। बाली घोषणा-पत्र में इस वाक्य के जुड़ने के बाद अमेरिकी राष्ट्रपति भी नरेंद्र मोदी के नेतृत्व की प्रशंसा कर चुके हैं।
यादगार रहेगा सम्मेलन
भारत जी-20 सम्मेलन को यादगार बनाना चाहता है। इसके लिए व्यापक कार्यक्रमों का खाका तैयार किया गया है। यह 2016 में चीन में हुए जी-20 सम्मेलन से कहीं व्यापक है। इस शिखर सम्मेलन से ‘त्रुटिहीन और अद्वितीय भारत’ को वैश्विक स्तर पर पहचान मिलने की उम्मीद है, जो ब्रांड इंडिया से भी जुड़ेगा। इस दौरान देश के ऐतिहासिक स्थल जी-20 लोगो से जगमग दिखेंगे, सेल्फी प्रतियोगिता, नगालैंड हॉर्नबिल महोत्सव व राज्यों के सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किए जाएंगे। साथ ही, भारत अपनी डिजिटल बदलाव की ताकत दिखाएगा, जिसमें सस्ती तकनीक से पर्यावरण का विकास, नवीकरणीय ऊर्जा, अंतरराष्ट्रीय सौर गठबंधन में भारत के योगदान और टिकाऊ पर्यावरण के लिए जीवनशैली में बदलाव पर भी जोर होगा। ‘जनभागीदारी’ के जरिये शिखर सम्मेलन से जुड़ी पूरी जानकारी देश में ब्लॉक स्तर तक पहुंचाई जाएगी। जी-20 के बारे में छात्रों को जागरूक करने के लिए स्कूलों में विशेष सत्र आयोजित किए जाएंगे। विदेश मंत्री एस जयशंकर 75 कॉलेजों व विश्वविद्यालयों के छात्रों से रू-ब-रू होंगे।
दक्षिण की आवाज
एक अरसे बाद ‘ग्लोबल साउथ’ शब्द सुनाई पड़ा है। विदेश मंत्री जयशंकर ने कहा कि हमें ग्लोबल साउथ की आवाज बनना चाहिए। ऐसे में सवाल उठता है कि ग्लोबल साउथ क्या चीज है? साथ ही, इसकी पृष्ठभूमि को भी समझने की जरूरत है। ग्लोबल साउथ के पहले गुट निरपेक्ष समूह विकसित देशों की बात उठाता था, पर इसके पीछे एक प्रकार की बेरुखी अभिव्यक्त होती थी। यह धारणा काफी पहले से है कि विकसित देशों का विकास गरीब देशों के शोषण पर हुआ है। इस बात के पीछे तथ्य भी हैं। दूसरी बात, समाधान टकराव मोल लेकर नहीं हो सकते। इसके लिए सबको मिलकर विचार करना होगा।
1973 में अल्जीयर्स में हुए गुट निरपेक्ष देशों के सम्मेलन में नई विश्व आर्थिक-व्यवस्था बनाने का आह्वान किया गया, जिसमें गरीब देशों की समस्याओं का समाधान भी संभव हो। उन्हीं दिनों इस्राएल और अरब देशों के बीच युद्ध के बाद ओपेक देशों ने उत्पादन में बंदिशें लगाकर पेट्रोलियम की कीमतें बढ़ा दीं। इन्हीं संकटों के बीच दुनिया के अर्थशास्त्रियों और विशेषज्ञों की पहल पर 1977 में जर्मनी के पूर्व चांसलर विली ब्रांट के नेतृत्व में एक स्वतंत्र आयोग बना, जिसने 1980 में अपनी रिपोर्ट तैयार की। इस प्रकार ’70 के दशक में उत्तर-दक्षिण संवाद की शुरुआत विली ब्रांट आयोग के रूप में हुई थी। इस आयोग में 17 देशों के अर्थशास्त्री थे, जिनमें भारत के लक्ष्मी चंद्र जैन भी एक थे। यह अवधारणा संवाद की थी। इसमें टकराव नहीं, सहयोग का भाव था।
विकसित और विकासशील देशों को उत्तर और दक्षिण नाम देने के पीछे शुद्ध भौगोलिक कारण हैं। यह वैसे ही है, जैसे शीतयुद्ध के दौर में पश्चिमी और पूर्वी यूरोप के देशों को दो अलग-अलग खेमों में रखा जाता था। संयोग है कि दुनिया के अधिकतर विकसित देश दुनिया के उत्तरी गोलार्ध में और विकासशील देश दक्षिणी गोलार्ध में बसे हैं।
इस परिभाषा के मुताबिक लातीनी अमेरिका, अफ्रीका, एशिया व प्रशांत क्षेत्र के अनेक द्वीप अविकसित हैं। विकसित यानी औद्योगिक रूप से विकसित। दक्षिण में आॅस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, इस्राएल, जापान, दक्षिण कोरिया, सिंगापुर और ताइवान में जीवन-स्तर और सामाजिक-सांस्कृतिक स्तर भी अमीर देशों वाला ही है।
ब्राजील और भारत जैसे अर्धविकसित देश भी दक्षिण में हैं। पश्चिम एशिया के कुछ पेट्रोलियम निर्यातक देशों की प्रति व्यक्ति आय बहुत से औद्योगिक देशों के मुकाबले ज्यादा है, पर सामाजिक विकास और गैर-बराबरी के अनेक मापदंडों से उन्हें अविकसित कह सकते हैं। एक जमाने में इन्हें तीसरी दुनिया के देश भी कहते थे। एक दुनिया पूंजीवादी देशों की और दूसरी कम्युनिस्ट देशों की। तीसरी दुनिया इन दोनों से अलग। यह भेद नब्बे के दशक में सोवियत संघ के विघटन के बाद खत्म हो गया, पर अमीर-गरीब का फर्क बरकरार है। यह फर्क दो साल पहले कोरोना महामारी के प्रकोप, उसका सामना करने के लिए टीकाकरण कार्यक्रम और अब वैश्विक-मंदी के दौर में नजर आ रहा है। इस दौरान भारत ने विश्व व्यापार संगठन में वैक्सीन के बौद्धिक संपदा अधिकार को लेकर कुछ सवाल उठाए।
नब्बे के दशक के बाद शुरू हुए वैश्वीकरण के नकारात्मक प्रभावों को लेकर भी भारत ने अंतरराष्ट्रीय मंच पर सवाल उठाए हैं। हाल के वर्षों में ‘ब्रिक्स’ के उदय के साथ एक नया समूह उभर कर सामने आया है। विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष अभी तक पश्चिमी देशों के प्रभाव में है। अब भारत और चीन जैसे देश इन संस्थाओं में अपनी भूमिका को बढ़ाना चाहते हैं। विश्व व्यापार के लिए डॉलर की स्थानापन्न मुद्राएं अपनी भूमिका निभाने के इंतजार में हैं। इसी दौरान, चीन के बेल्ट एंड रोड परियोजना के कारण कुछ विसंगतियां भी उभरी हैं।
बढ़ते रुतबे की वजह
- कोरोना महामारी से निपटने के लिए चीन द्वारा उठाए गए कठोर कदमों के विपरीत भारत ने लॉकडाउन के समय सार्वजनिक संचार से लेकर टीकाकरण, खाद्य आपूर्ति तक जो काम किए, दुनिया ने उन्हें सराहा।
- कोरोना काल में भारत ने भविष्योन्मुखी फैसले लिए, कुशलता से अर्थव्यवस्था का प्रबंधन किया और महंगाई पर भी नियंत्रण रखा। वहीं, कई देश महंगाई और अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए अभी भी जद्दोजहद कर रहे हैं।
- भारत की विदेश नीति का दुनिया ने लोहा माना। खासकर यूक्रेन युद्ध में दुनिया ने इसे करीब से देखा। भारत के हित को सर्वोपरि रखते हुए रूस से मिसाइल रक्षा प्रणाली खरीद के बावजूद अमेरिका के साथ क्वाड समूह बनाया।
- आजादी के बाद यह पहला अवसर है, जब भारत के पास दुनिया के सामने रखने के लिए सफलता का अपना मॉडल है। खासतौर से, हरित ऊर्जा कार्यक्रम, सफल डिजिटल लेन-देन प्रणाली।
- यूक्रेन युद्ध को लेकर एशिया वैश्विक धुरी बना हुआ है। भारत के बिना एशिया की निर्णायक भू-राजनीति असंभव है। क्वाड, यू212 और आईपीईएफ जैसे उभरते समूह इस बदली हुई वास्तविकता के प्रमाण हैं।
- बीते 200 वर्षों में, भारत एकमात्र देश है जो न सिर्फ भू-राजनीतिक शक्ति के रूप में उभरा है, बल्कि अंतरराष्ट्रीय सहमति का हिस्सा भी है। इससे पूर्व वैश्विक मंच पर उभरे देश पश्चिमी सहमति का हिस्सा थे या अंतरराष्ट्रीय सहमति का हिस्सा नहीं थे या वैश्विक मंच पर बहुत छोटे थे।
- प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी निर्विवाद रूप से न केवल भारत का नेतृत्व कर रहे हैं, बल्कि प्रमुख वैश्विक रणनीतिक मुद्दों पर भी अपनी राय रखते हैं। दुनिया के कई देशों के राष्ट्राध्यक्षों से उनके मित्रवत् संबंध हैं।
भारत की भूमिका
1950 से लेकर 1980 के दशक तक भारत गुट निरपेक्ष देशों के आंदोलन में शामिल था, पर शीतयुद्ध की समाप्ति के बाद गुट निरपेक्षता की अवधारणा लगभग समाप्त हो गई। शीतयुद्धोत्तर विश्व में ‘ब्रिक्स’ के सदस्य के रूप में भारत एक नए उभरते ध्रुव का साझीदार बना था। अब जी-20 की अध्यक्षता के साथ वह एक नई भूमिका में सामने आ रहा है। यह भूमिका है विकसित और विकासशील देशों के बीच महत्वपूर्ण सेतु की। यह भूमिका पुरानी भूमिकाओं से कुछ अलग है। गुट निरपेक्षता और तीसरी दुनिया की अवधारणाओं के साथ पश्चिम विरोध किसी न किसी रूप में नत्थी था, पर जी-20 मूलत: पश्चिम-मुखी संगठन है।
भारत विकासशील देशों की आवाज बनकर खड़ा हुआ है। साथ ही, वह पश्चिम के साथ मिलकर चलना चाहता है। इस साल संयुक्त राष्ट्र महासभा में विदेश मंत्री एस जयशंकर ने इस बात को काफी मजबूती से कहा कि वैश्विक-संकटों का सबसे बड़ा असर विकासशील देशों पर पड़ता है। यही बात इस बार बाली में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कही। यही बात मिस्र के शर्म-अल-शेख में हुए पर्यावरण सम्मेलन ‘कॉप-27’ में भारत की ओर से कही गई है। इसी दौरान संयुक्त राष्ट्र में सुधारों की मांग खड़ी हो रही है और सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता के लिए भारत की दावेदारी बढ़ती जा रही है।
भारत की जिम्मेदारी
जी-20 में मतभेद के कारण इस समूह की विश्वसनीयता को धक्का लगा है। भारत की जिम्मेदारी मतभेद दूर कर समूह का सर्वसम्मत-एजेंडा बनाना होगी। वैश्विक अर्थव्यवस्था को रास्ते पर लाने के लिए अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व व्यापार संगठन के साथ मिलकर योजना बनानी होगी। पश्चिमी देशों की ओर से यह मांग उठ रही है कि जी-20 से रूस को बाहर किया जाए। रूसी राष्ट्रपति व्लादिमिर पुतिन बाली आए भी नहीं थे। ऐसे में भारत को रूस की वैश्विक उपस्थिति बनाए रखने के लिए भी प्रयास करना होगा। साथ ही, पिछले सम्मेलनों के एजेंडे की निरंतरता भी बनाए रखनी होगी।
रूस-यूक्रेन के अलावा, दूसरी चुनौतियां भी हैं। समावेशी, समान और सतत विकास, महिला सशक्तिकरण, डिजिटल पब्लिक इन्फ्रॉस्ट्रक्चर, जलवायु वित्तपोषण, वैश्विक खाद्य और ऊर्जा सुरक्षा जैसे मसले सामने हैं। अगले आठ महीनों में भारत में इससे जुड़ी 200 से ज्यादा औपचारिक बैठकें होंगी। यह कार्यक्रम फाइनेंशियल ट्रैक और शेरपा ट्रैक दिशाओं में चलेगा। एक में वित्त मंत्रियों, वित्तीय संस्थाओं की भूमिका होगी व दूसरे में अन्य विषय होंगे। हर देश में एक शेरपा होगा, जो समन्वय करेगा। भारत में नीति आयोग के पूर्व अध्यक्ष अमिताभ कांत यह काम करेंगे।
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