रमेश पतंगे
युगप्रवर्तन करने वाले महापुरुषों के विषय में अमूमन समाज में भिन्न-भिन्न धारणाएं निर्मित होती हैं। युगपुरुष का एक भक्तगण वर्ग तैयार हो जाता है और ये भक्तगण उस युगपुरुष को अप्रमादशील देवता मानते हैं। दूसरा वर्ग ऐसा होता है जो उस युगपुरुष को कौड़ी की कीमत देने को तैयार नहीं होता। उसका मत होता है कि उसके कार्य और विचारों के कारण, समाज और राष्ट का अपरिमित नुकसान हुआ है। तीसरा वर्ग ऐसा होता है जो चतुर होता है और अपने स्वार्थ के लिए महापुरुष के विचारों का उद्वाहक बन जाता है। डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर, महात्मा गांधी और स्वातंत्र्यवीर सावरकर तीन ऐसे समकालीन महापुरुष हैं, जिनके बारे में ये तीनों धारणाएं हमें देखने को मिलती हैं। ऐसे भक्तजनों का मत है कि महात्मा गांधी जैसा महान व्यक्ति इस धरातल पर हजारों वर्षों के बाद ही आता है। जबकि दूसरे लोग गांधीजी को पाकिस्तान का निर्माता, भारत के दो टुकड़े करने वाला घमंडी, स्वयं को महात्मा कहनेवाला एक पाखंडी व्यक्ति मानते हैं। और कुछ लोग गांधीजी का उपयोग हिंदुत्ववादी विचारधारा को पीटने के लिए करते हैं। उन्हें गांधीजी तभी याद आते हैं जब कहीं दंगा-फसाद हो जाता है, घरवापसी जैसे कार्यक्रम होते हैं या पाकिस्तान के साथ झगड़े का संबंध आता है। अन्य समय वे चुप्पी साधे बैठे रहते हैं। इसी प्रकार डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर जी के बारे में भी उन्हें विश्वभूषण, महामानव मानने वाला एक वर्ग है और दूसरा वर्ग आंबेडकर जी को दलितों के नेता के अलावा अन्य कोई स्थान देने को तैयार नहीं है। इस वर्ग का मानना है कि आंबेडकर भारत में उभरे जातिवाद के जनक हैं। तीसरा वर्ग अपनी विचारधारा के स्वार्थ के लिए अत्यंत कुशलतापूर्वक आंबेडकर जी का उपयोग करता है।
हम इस लेख में इस वर्ग में आने वाले कुछ विद्वानों के लेखन का संक्षेप में विश्लेषण करेंगे।
अरुण शौरी
विश्लेषण के इस कार्य में पहला क्रम अरुण शौरी का आता है। उनकी किताब ‘वर्शिपिंग फॉल्स गाड्स’ काफी समय तक चर्चा में रही है। संक्षेप में उनका कहना है कि आंबेडकर जी की पूजा झूठे देवता की पूजा है। अरुण शौरी जी का कहना इस प्रकार है-
डॉ. आंबेडकर अंग्रेजों के मददगार थे। दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान वे वायसराय के मंत्रिमंडल में थे। इस कालखंड में कांग्रेस की प्रादेशिक सरकारों ने इस्तीफा दे दिया था। केंद्र की सरकार से भी वे अलग हो गए थे। सारा देश स्वतंत्रता आंदोलन में मग्न था। उस समय डॉ. आंबेडकर अंग्रेजों की सेवा करते रहे।
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में आंबेडकर जी ने कभी हिस्सा नहीं लिया। वे इससे अलग रहे।
आंबेडकर अंग्रेजों की ‘फूट डालो और राज करो’ नीति का शिकार बन गए। अंग्रेजों के सामने उन्होंने विभक्त चुनाव क्षेत्र (सेपरेट इलेक्टोरेट) की मांग उठाई। अंग्रेजों ने उसे स्वीकृत किया और 1932 के कम्युनल एवार्ड में उन्हें विभक्त चुनाव क्षेत्र दे दिए गए। इसको खारिज कराने के लिए महात्मा गांधी जी को अनशन करना पड़ा।
भारतीय संविधान आंबेडकर जी की देन नहीं है। संविधान का मूल मसौदा बी.एन. राऊ ने तैयार किया था। संविधान सभा में इसी मसौदे पर बहस चली। उसमें सुधार करने का काम आंबेडकर जी ने किया। भारतीय संविधान का श्रेय बी़ एऩ राऊ को देना चाहिए।
डॉ. आंबेडकर जी ने पाकिस्तान की मांग का समर्थन किया। और उसके समर्थन में ‘थॉटस् ऑन पाकिस्तान’ नामक किताब लिखी। पाकिस्तान की सैद्धान्तिक भूमि बनाने में आंबेडकर जी का बहुत बड़ा योगदान है।
अरुण शौरी ने उपरोक्त बातों के समर्थन के लिए अपनी किताब में पन्ने-पन्ने पर दस्तावेजी साक्ष्य (डॉक्यूमेंटरी एविडन्स) दिए हैं।
अरुण शौरी की लंबी-चौड़ी किताब इसका एक आदर्श पाठ है कि अनुसंधान की भूमिका लेकर किस प्रकार किसी व्यक्ति का चरित्रहनन किया जा सकता है। लेकिन वह कतई अनुकरणीय नहीं है। राष्ट्रीय एकता और सामाजिक एकता के लिए यह खतरनाक खेल है।
दूसरा पक्ष खुद को पूज्य डॉ. बाबासाहेब जी के अध्येता और उनके बारे में श्रद्धाभाव दिखाने वालों का एक गुट है। इसमें भी दो प्रकार। पहले प्रकार में वास्तविक आंबेडकर अध्येता आते हैं। महाराष्ट्र के कुछ नामों में आद्य चरित्रकार धनंजय कीर, वसंत मून, नामदेव ढसाल, केशव मेश्राम, रावसाहेब कसबे और नरेंद्र जाधव आदि हैं। दूसरे प्रकार में मायावी आंबेडकरभक्त हैं। उनके लक्ष्य अलग होते हैं। और वे छुपे लक्ष्य होते हैं। ये लक्ष्य तुरंत ध्यान में नहीं आते। इस मायावी वर्ग में आने वाले लोग अकादमिक फील्ड में अधिक पाए जाते हैं। अपने कथन को प्रमाणित करने के लिए वे काफी संदर्भ देते रहते हैं और परिस्थिति का विश्लेषण इस प्रकार करते हैं कि जिसका आंबेडकर जी के बारे में विशेष अध्ययन न हो, वह उनकी चाल में अवश्य फंस जाता है। ये लोग स्वयं को प्रगतिशील, पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रवादी, बहुलवादी, मानवतावादी वगैरह विशेषणों से विभूषित कर लेते हैं। इनको मंच पर लाने के लिए देश भर में सैकड़ों मंच खड़े किए गए हैं, जिन्हें कल तक शासकीय प्रतिष्ठा भी प्राप्त होती थी। उन्हें मिलने वाले पुरस्कारों की कोई कमी नहीं होती। इनको देश-विदेश के अनेक पुरस्कार दिए जाते हैं। पुरस्कारों के कारण इनकी एक छवि बनती है। यह छवि ‘लार्जर दैन लाइफ साईज’ (अतिरंजित) होती है। यह ‘इंटेलेक्चुअल आइकन’ (बौद्धिक प्रतिमा) खड़े करने का एक विश्व प्रसिद्ध फंडा है। आम आदमी इसके पीछे चलनेवाले षड्यंत्रों से अनभिज्ञ रहता है।
गेल आम्वेट
ऐसे नामों में सब से पहला नाम लेना चाहिए गेल आम्वेट का। वे एक अमरीकी महिला हैं जो विदेशी ‘सोशियोलॉजी’ विद्या में पारंगत हैं। वे भारत की नागरिक बनी हैं। यहां आने के बाद उन्होंने भारत पाटणकर नामक भारतीय युवक से शादी कर ली है, हालांकि अपना नाम नहीं बदला है। उन्हें ऊंचा बनाने के लिए ‘युनाइटेड नेशन्स डेवलपमेंट प्रोग्राम’ के काम में उनको सहयोगी बनाया गया है। उनका प्रसिद्ध लेखन है, ‘कल्चरल रिवोल्ट इन कोलोनियल सोसायटी: द नॉन ब्रह्मण मूवमेंट इन वेस्टर्न इंडिया।’ उनकी तीन किताबों का उल्लेख यहां आवश्यक है ‘दलित विजन्स’, ‘बुद्धिज्म इन इंडिया’ और ‘आंबेडकर टूवर्डस् एन एनलाइटेड इंडिया।’ वे इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ एडवांस स्टडी, शिमला की फेलो हैं। नेट पर उनका बहुत विस्तृत लेखन उपलब्ध है। और इस लेख को पढ़नेवालों को मेरी सलाह है कि उनके लेखन को ध्यान से पढ़ा जाना चाहिए क्योंकि हमारे विद्वानों की यह मानसिकता रहती है कि गोरे मुख से जो आया, वह पवित्र, सत्य और स्वीकारणीय है। और दूसरी बात अकादमिक फील्ड में बैठे लोगों के लेखन का पाठ्यक्रमों में समावेश होता है और यह हमारे छात्रों की बुद्धि कलुषित करने का कार्य करता है।
गेल आम्वेट के लेखन की कुछ विशेषताएं इस प्रकार हैं:
1- दलित प्रेम इसका मायावी रूप है।
2 -वे हिंदू धर्म, हिंदुत्व (हिंदुइज्म एंड हिंदुत्व) के खिलाफ जहरीला अकादमिक लेखन करती हैं।
3 -हिंदू धर्म, हिंदुत्व यानी ब्राह्मणिज्म, जातिवाद, आर्यवंशवाद यह सब उनके गढ़े हुए सिद्धान्त हैं। इन सिद्धान्तों को लेकर वे अपनी हायपोथिसीस बनाती हैं। और फिर लंबे लेख अथवा पुस्तकें लिखती हैं।
4 -भारत से हिंदू धर्म और हिंदुत्व को नष्ट किए बिना दलित मुक्ति संभव नहीं है। दलितों की अपनी स्वतंत्र आइडेंटिटी है और यह आइडेंटिटी (पहचान) हिंदुत्व से अलग है।
इसमें इस विद्वान महिला ने यह थीसिस बनाने का प्रयास किया है कि कबीर, रैदास, मंगुराम, रामस्वामी नायकर आदि भारत की महान संतानें किस प्रकार हिंदू विरोधी थीं। इससे हमें पता चलता है कि देश में आकर भारतीय धर्म-दर्शन पर काम करने वाले तमाम विदेशियों ने किस तरह से देश की अस्मिता और हमारे संस्कारों की दुनिया के सामने गलत व्याख्या प्रस्तुत की है। 12 सितंबर, 2008 का एक साक्षात्कार है जिसमें इस विदेशी विद्वान ने कहा है, ‘स्कूलों में व्यवहार में लाए जा रहे पाठ्य में प्रत्यक्ष-परोक्ष ढंग से प्रस्तुत हो रहे ब्राह्मणिक हिन्दुइज्म का अंत होना चाहिए।’
5 दलित विजन्स किताब की मुख्य विचारधारा इस प्रकार है – गेल आम्वेट हिंदुइज्म और ब्राह्मणिज्म को समतुल्य करती हैं। भारत का सेक्युलर डिस्कोर्स ब्राह्मणिकल टर्मिनोलॉजी में चलता है। ब्राह्मणिकल टर्मिनोलॉजी को खत्म किए बिना असली सेक्युलर डिस्कोर्स शुरू नहीं हो सकता। इसका सीधा अर्थ है कि हिंदू धर्म और हिंदू समाज को नष्ट किए बिना भारत में पंथनिरपेक्षता नहीं आ सकती। एक विदेशी महिला हिंदू देश में रहकर, हिंदुओं का अन्न खाकर और हिंदुओं पर ही प्रहार करने की हिम्मत कर सकती है और इसके बदले उसे पारितोषिक के रूप में उच्चपदस्थ स्थान दिए जाते हैं। यह प्रसंग हमारे इतिहास और वर्तमान मन को भयानक पीड़ा देनेवाला है।
जिस महिला को भारतीय समाजशास्त्र की एबीसीडी भी नहीं पता, उसे भारतीय समाजशास्त्र का विद्वान मानना और उसे बड़े स्थानों पर बिठाना भारत की बौद्धिकता का घोर अपमान है। भगवान गौतम बुद्ध, नानक, कबीर, रैदास, महात्मा फुले, आंबेडकर आदि महापुरुषों को समाजक्रांतिकारक या विद्रोही या बगावतखोर इन शब्दों से संबोधित नहीं किया जा सकता। ये सारे अभारतीय शब्द हैं। ये सभी महापुरुष धर्मग्लानि को दूर करने हेतु अवतरित हुए देवपुरुष हैं। क्रांति का मतलब होता है हिंसा और तोड़मरोड़ तथा विद्रोह में किसी से द्रोह करने की लालसा होती है, बगावतखोरी में खुद को दुनिया से सयाना समझने की भावना होती है। इन महापुरुषों में इसका शून्यांश है। उनके हृदय में अखंड प्रेम की धारा बहती थी। वे समाज के बारे में समग्रता से विचार करते थे। उन्होंने समाज का जातियों में कभी विभाजन नहीं किया। उनकी यही धारणा थी कि जाति अहंकार रखनेवाले और उस अहंकार का शिकार बने लोग एक ही अधर्म के भुक्तभोगी हैं। वे समूचे समाज का पुनरुत्थान चाहते थे। उन्हें दलित आइडेंटिटी का पुरोधा बनाना और आंख पर पट्टी बांध कर हमारा उसको स्वीकारना केवल अपनी बुद्धि का अपमान नहीं, बल्कि मूर्खता की परिसीमा है।
शिक्षा संस्था
अपनी संत परंपरा हमको क्या सिखाती है, इसके कुछ उदाहरण यहां प्रस्तुत हैं-
भगवान गौतम बुद्ध ने धम्मपद में कहा है-
न हि वेरेन वेरानि, सम्मन्तीध कुदाचनं।
अवेरेन च सम्मन्ति, एस धम्मो सनन्तनो।
(वैर से वैर शांत नहीं होता, अवैर से ही शांत होता है।)
परे च न विजानन्ति, मयमेत्थ यमामसे।
ये च तत्थ विजानन्ति, ततो सम्मन्ति मेधगा।।
‘हमें इस दुनिया से जाना है यह जान लेने से ही सब झगड़े शांत हो
जाते हैं।’
गुरु नानक देव की वाणी ऐसी है-
एक ओंकार सतिनाम, कर्त्ता पुरखु निरभऊ।
निरबैर, अकाल मुरति, अजूनी, सैंभ गुरु प्रसादि।
हरि बिनु तेरो को न सहाई,
काकी मात-पिता, सुत बनिता, को काहू को भाई।
संत कबीर जी की वाणी इस प्रकार है:
राम निरंजन न्यारा रे आंजन सकल उपचारा रे।
लूट सके तो लूट ले, राम नाम की लूट।
पाछे फिर पछताओगे, प्राण जाहिं जब छूट।।
पांच पहर अन्धे गया, तीन पहर गया सोय।
एक पहर हरि नाम बिनु, मुक्ति कैसे होय।।
रैदास जी कहते हैं-
कृस्न, करीम, राम, हरि, राघव जब लग एक न पेखा।
वेद कतेब कुरान, पुरानन,सहज एक नहिं देखा।।
हरि-सा हीरा छांड कै, करै आन की आस।
ते नर जमपुर जाहिंगे, सत भाषै रविदास।।
धर्म की ऐसी शिक्षा देनेवाले धर्मपुरुषों को दलित आइडेंटिटी के आइकन बनाना घटिया किस्म का काम है।
अरुंधति राय
गेल आम्वेट की दूसरी सहेली हैं अरुंधति राय। अरुंधति राय को बुकर पारितोषिक मिला या दिलाया गया, पर इस कारण यह लेखिका एक रात में ही भारत में ऑइकन बन गई। जिस अखबार के नाम में हिंदू है लेकिन पत्र की नीति हिंदूनाशक है, उस हिंदू दैनिक की यह दोनों मान्यवर लेखिकाएं हैं। और हिंदू से उनको काफी सम्मान भी मिलता है, इसमें हमें कोई आपत्ति नहीं है। इस अरुंधति राय का एक चेहरा दलित-शोषित-आदिवासीपरक है। उनके लिए लड़ने-झगड़नेवाली ऐसी उसकी छवि बहुत कष्ट एवं पैसा खर्च करके बनाई गई है। ऐसी बड़ी छवि बनने के बाद अपने स्वार्थ के डर के कारण अनेक लोग इन व्यक्तियों पर कुछ लिखते-बोलते नहीं और चुप्पी साध कर बैठ जाते हैं।
‘एनिहिलेशन ऑफ कास्ट’ बाबासाहेब जी की अत्यंत महत्वपूर्ण किताब है। इस किताब को दिल्ली की नवयान प्रकाशन संस्था ने फिर से प्रकाशित किया है। इस पुस्तक के लिए उन्होंने अरुंधति राय से प्रस्तावना लिखने के लिए कहा और अरुंधति राय ने लंबी प्रस्तावना लिखी है। जब पुस्तक बाजार में आ गई तब पुस्तक के आवरण पर आंबेडकर जी के नाम के साथ-साथ अरुंधति राय का भी नाम लिखा गया। यह बहुत ही आपत्तिजनक बात है। आंबेडकर जी की पुस्तक की प्रस्तावना लिखने का अरुंधति को क्या अधिकार है-यह पहला प्रश्न है। आंबेडकर जी की किसी भी पुस्तक में अन्य किसी की प्रस्तावना नहीं है। लेखक प्रस्तावना उसी से मांगता है जिसको वह अपने से बड़ा और विद्वान अध्येता समझता है। नवयान ने बहुत चालाकी करके अरुंधति राय को आंबेडकर जी के समकक्ष रखा है।
अरुंधति राय की प्रस्तावना एक शरारतपूर्ण दस्तावेज है। इस पुस्तक में डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर जी ने कहा है कि, अगर हिंदू समाज को संगठित होना है तो उसे जातिमुक्त होना चाहिए। जाति का बंधन धर्म के कारण है, धर्म की मान्यता समाप्त कर देनी चाहिए, समाज को एकवर्णीय बनना चाहिए। समाज का संगठन, स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व इस तत्वत्रयी पर आधारित होना चाहिए। उनके प्रतिपादन का यह मुख्य विषय है। और इस विषय पर उनका अध्ययन गहन और चिंतन बेजोड़ है। इस भाषण में उन्होंने चातुर्वर्ण्य की बौद्धिक चिकित्सा की है, जातिप्रथा, वेदों और धर्मग्रंथों की चर्चा की है। अरुंधति के लंबे दस्तावेज में इसका कोई जिक्र नहीं है। अरुंधति राय ने इस पुस्तक की प्रस्तावना के माध्यम से महात्मा गांधी जी को बहुत नीचा दिखाने का प्रयास किया है। उसके कुछ वाक्य इस प्रकार हैं –
-बनिया परिवार में जन्मे गांधी एक वैश्य थे।
-आंबेडकर अछूत थे। (दोनों की जातियां निकाली हैं। इसे ही प्रोग्रेसिव (प्रगतिशील) कहना चाहिए।)
-दोनों ही अलग-अलग हितसंबंधों का प्रतिनिधित्व करते थे।
-इतिहास गांधी जी के बारे में दयालु है, उनको संत बना दिया है। लेकिन वे यथास्थितिवाद के संत थे।
-गांधीजी ने चातुर्वर्ण्य का कभी खंडन नहीं किया।
-गांधीजी को महात्मा की उपाधि दिलाने में अंग्रेजों की विशेष भूमिका
रही है।
-विशेषाधिकार प्राप्त बनिया जाति में जन्मे गांधी 45 दशलक्ष अछूतों के नेता कैसे बन सकते थे?
अरुंधति राय ने बड़ी ही निर्ममता से गांधीजी को नीचा दिखाने का काम किया है। प्रश्न यह खड़ा होता है कि हमारे तथाकथित गांधीभक्त क्या पंथनिरपेक्षता की भांग पीकर सो गए हैं? किसी राम पुनियानी ने ‘सेकंड एसेसिनेशन ऑफ गांधी’ नामक एक किताब लिखी है। अरुंधति राय का यह एसेसिनेशन कितने नंबर का है और इस पर यह पुनियानी क्या कहते हैं?
प्रश्न यह खड़ा होता है कि, अरुंधति राय ने आंबेडकर की भूमिका को लेकर महात्मा गांधीजी को नीचा ठहराने का कष्ट क्यों किया है? आंबेडकर जी को उन्होंने हिंदू विरोधी के तौर पर पेश किया है। महात्मा गांधी हिंदू समर्थक थे। सेक्युलरिज्म को अगर विजयी होना है तो हिंदूवाद को पहले खत्म करना चाहिए। चूंकि गांधीजी हिंदू ऑइकन हैं इसलिए उनकी प्रतिमा को ध्वस्त करना पहला काम होता है।
डॉ. आनंद तेलतुंबडे
इन मायावी आंबेडकरभक्तों में तीसरा नाम डॉ. आनंद तेलतुंबडे का लेना चाहिए। आनंद तेलतुंबडे मैनेजमेंट प्रोफेशनल हैं। वे लेखक और राजनीतिक विश्लेषक हैं। उनके नाम पर कई पुस्तकें हैं। अंग्रेजी में वे काफी लेखन करते हैं और भारत के सेक्युलर फोरम के चहेते वक्ता हैं। वे मार्क्सिस्ट (मार्क्सवादी) हैं लेकिन अपने आप पर मार्क्सवाद का लेबल नहीं लगाते। वे कहते हैं, ‘मैं अपने आप को मार्क्सवादी नहीं कहता।’
डॉ. बाबासाहेब जी का जीवन संघर्ष क्या है? अस्पृश्यता मुक्ति का है, जाति निर्मूलन का है, हिंदू समाज की पुनर्रचना करने का है, स्वतंत्रता-समता-बंधुता इन तत्वों के आधार पर समाज को नए सिरे से बांधने का समाज संघर्ष है? या हिंदू समाज को उपरोक्त मौलिक तत्वों के आधार पर संगठित कर संगठित, सामर्थ्य संपन्न हिंदू समाज खड़ा करने का है? भारत में एक भी दलित या मायावी दलित या दलितहितैषी इस दूसरे विषय की चर्चा करने का साहस नहीं कर सकता। डॉ. आनंद तेलतुंबडे अपने आप को जातिनिर्मूलन तक सीमित रखते हैं। बाबासाहेब जी के जीवन के बारे में उनका भाष्य पढ़कर पाठक हैरान हो जाएंगे। वे लिखते हैं- ‘बाबासाहेब जी के जीवन पर ऊपरी नजर दौड़ाई तो यह ध्यान में आता है कि उनको हर क्षेत्र में असफलता मिली है। वे जिसकी कामना करते थे उसमें उनको सफलता नहीं मिली। दलितों के लिए राजनीतिक प्रतिनिधित्व पाने हेतु उन्होंने कड़ा संघर्ष किया लेकिन वह सफल नहीं हुआ। वे विरोधी प्रत्याशी के बौना होते हुए भी अपने जीवन में कभी आरक्षित स्थानों से चुनाव नहीं जीत पाए। दलितों की उच्च शिक्षा के लिए उन्होंने शिक्षा संस्थान खोले लेकिन नवशिक्षित दलितों ने उनसे विश्वासघात किया। उन्होंने जातिनिर्मूलन का मंत्र दिया परंतु आधुनिक भारत में जाति को संवैधानिक मान्यता देने का कार्य भी किया। अस्पृश्यता भले ही कानूनी तौर पर दंडनीय अपराध बनी रहे लेकिन सामाजिक स्तर पर उसका कड़ाई से पालन होता है। खुद को आंबेडकरवादी कहनेवाले भी अभिमान से अपनी जाति का उल्लेख करते हैं।’
डॉ. आनंद तेलतुंबडे इस प्रकार की उत्तेजक भाषा का प्रयोग क्यों करते हैं? उनको दलितों से मार खाने का भय नहीं है क्योंकि वे खुद दलित हैं। दलितेतर विद्वान इनकी बातों को उठा नहीं सकता क्योंकि वह मार खाएगा। इनके पीछे जो उद्देश्य छिपा हुआ है, उसे समझना पड़ेगा। डॉ. तेलतुंबडे खुद को मार्क्सवादी भले ही ना कहें (नक्सली भी अपने आप को मार्क्सवादी नहीं कहते होंगे।) लेकिन दलितों को मार्क्सवाद की दीक्षा देना चाहते हैं। डॉ. बाबासाहेब जी ने जीवनभर दलितों को कम्युनिज्म से दूर रखने का प्रयास किया। उनका विचार था कि कम्युनिस्ट बनने से अपना कुछ भला नहीं होगा, ना हमारी अस्पृश्यता जाएगी, ना हमें सामाजिक स्वतंत्रता मिलेगी और ना हमें राजनीतिक अधिकार मिलेंगे, इन बातों को बाबासाहेब बार-बार कहते रहे हैं। भारत में कई बुद्धिवादी लोग नक्सलियों के लिए ‘रिक्रूटिंग ग्राउंड’ बनाने का काम करते रहते हैं। और उनके राडार पर दलित युवक हैं। लेकिन आनंद तेलतुंबडे क्या चाहते, इस बात को उन्हें ही खुलकर बताना चाहिए।
आनंद तेलतुंबडे का एक विस्तृत लेख है, ‘आइडेंटिटी पॉलिटिक्स एंड एनिहिलेशन ऑफ कास्ट।’ मैं यहां पर केवल उसके आंतिम परिच्छेद का उल्लेख करना चाहता हूं जिसमें तेलतुंबडे लिखते हैं, ‘दलित, दलित बहुजन, मूलनिवासी, बुद्धिस्ट सही मायने में जातिगत पहचान (आइडेंटिटी) नहीं है’, इन शब्दों के अंदर ही जाति के तर्कशास्त्र को नकारा गया है। वे अपने आप को शोषित समूह का एक गुट समझते हैं। लेकिन इस प्रकार का विश्लेषण जाति के स्वरूप को ठीक प्रकार से न समझने से किया जाता है। किसी भी नाम से आइडेंटिटी गुट बनाने का प्रयास होता है, वह जाति के आधार पर ही करना पड़ता है। और उसका रूप जाति के खिलाफ है, ऐसा हम कितना भी कहें, फिर भी वह जाति को और सशक्त करने में परावर्तित हो जाता है। जाति के राक्षस को समाप्त करने का एक ही उपाय है और वह है- वर्ग के आधार पर राजनीति को चलाना। दिखने में यह कठिन क्यों न लगे लेकिन इतिहास कहता है कि सामाजिक पंगुता को दूर करने का कोई शॉर्टकट नहीं होता।
इस लेख में मैंने अत्यंत संक्षेप में मायावी आंबेडकरभक्तों की सोच के कुछ उदाहरण रखने का प्रयास किया है। मायावी आंबेडकरभक्त अनेक कारणों से खतरनाक होते हैं। पहला कारण ऐसा कि, उनका सार्वजनिक चेहरा दलित, शोषित के उत्थान का होता है और असली चेहरा हिंदू समाज में आग का बवंडर खड़ा करने वाला होता है। गत कुछ सालों से देश भर में लिंगायत, मराठा, रैदासी आदि अनेक समाजों में इस प्रकार के आंदोलन चल रहे हैं कि हम हिंदू नहीं हैं, हमारी अलग पहचान है। लिंगायत अलग धर्म है, मराठों का शिवधर्म है, चर्मकारों का रैदासी धर्म है। इसकी जड़ में जो अनेक लोग हैं, उनमें गेल आम्वेट का नाम अग्र पंक्ति में आता है। इसी कारण इन मायावी लोगों के मायाजाल को ध्वस्त करना राष्टÑीय कर्तव्य बनता है। हमारे इतिहास, पुराणों में, रामायण-महाभारत में ऐसे मायावी भक्तों के कई उदाहरण आते हैं और उनसे कैसे निपटना चाहिए, वह कथा यह भी बताती है। यह बौद्धिक लड़ाई है। उसे ध्यान में रखकर हमें भी बौद्धिक योद्धा बनकर जंग के मैदान में उतरना चाहिए।
(लेखक सामाजिक समरसता मंच के संस्थापक सदस्य हैं)
(पाञ्चजन्य आर्काइव)
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