-महामना मदनमोहन मालवीय
गीता जयन्ती पर प्रार्थना करनी चाहिए, प्रतिवर्ष उत्सव मनाना चाहिए। रविवार को जहाँ जिस-जिस जगह देश में भारतवासी हिन्दू, सिख, बौद्ध, जैन, ईसाई, मुसलमान कोई भी हो, जो भारतवर्ष की सन्तान है या भारतवर्ष के दिव्य संदेश के प्रेमी हैं, वे सब प्रत्येक रविवार को 8 से 6 बजे तक सबेरे गीता पाठ करें। संसार में अनेक ग्रन्थ हैं पर इसकी समानता का एक भी नहीं है। वेदों का उत्तम भाग उपनिषद् है। उपनिषद् रूपी गौओं का दुग्धरूपी अमृत गीता है। इस सर्व उपनिषदों का सार श्रीकृष्ण भगवान् ने दुहा था और उसी अमृत का पान अर्जुन रूपी बछड़े ने किया था। अभी इस गीता का उपदेश दूसरे देशवासियों को मालूम नहीं हुआ है, अभी उन्होंने समझा नहीं है। यूरोप अभी इसका अधिकारी नहीं हो पाया। हमारे ऋषि-मुनि वहाँ तक पहुँचे थे। अभी दूसरे देशवासी इसका गौरव नहीं समझ सके। उसका महत्त्व समझें और ‘सब तज, हरि भज’ यह लक्ष्य बनाएं। मनुष्य जीवन इससे सफल करें।
अर्जुन और भगवान्
गीता के वक्ता और श्रोता कौन थे? इन बातों को पहले स्मरण करके तब गीता का पाठ आरंभ करें। गीता-प्रवचन में विद्वान् चुने-चुने फूल भगवान् को अर्पण करने लगते हैं। उन उपदेशों को नोट कर लें, जो मौके पर काम देंगे। क्योंकि आपत्ति, दुःख और संकट के समय इसी का सहारा मिलेगा। मनुष्य मरणासन्न हो जाता है, तब अन्तिम समय में भी इससे कल्याण होता है। जैसे कोई धनी अपनी इमारत बनाता है उसी तरह जीवन की इमारत कल्याणप्रद उपदेशों से बनती रहे जिससे इस लोक में आनन्द मिले और परलोक सुधरे।
मनुष्य को पग-पग पर आपत्ति का सामना करना पड़ता है। जो अर्जुन अपने युग के अद्वितीय योद्धा थे, जो शुभ गुणों से संपन्न थे, जिनके मित्र भगवान् कृष्ण थे, वे भी जब अपने कर्तव्य से विमुख होने लगे और एक साधारण कायर की तरह विषाद करने लगे और विमोह में पड़कर अपने लक्ष्य को भूल गए तब मनुष्य की क्या गणना हो सकती है।
अर्जुन को पहले समझ लीजिए कि उनमें क्या विशेषता थी? अर्जुन कोई मामूली आदमी नहीं थे। वे अपने युग के महापुरुष थे। अर्जुन की वीरता का गुणगान भीष्म पितामह ने किया है। गुरु द्रोणाचार्य जी ने दुर्योधन आदि कौरवों के सम्मुख परीक्षा लेते हुए कहा था कि धनुर्विद्या आदि में अर्जुन के बराबर कोई नहीं है। अर्जुन की शक्ति और ब्रह्मचर्य की महिमा इन्द्र और उर्वशी ने बतलाई है। अर्धरात्रि के एकान्त में रूपवती तरुणी उर्वशी अर्जुन से मिलती है, उस समय अर्जुन उसे माता कहते हुए प्रार्थना करते हैं कि आप पूज्या हैं, आप श्रेष्ठ हैं, मेरी रक्षा करें। नवयुवकों को अर्जुन के दमन से शिक्षा लेकर बाल ब्रह्मचारी बनना चाहिए।
उस अर्जुन के स्वरूप का वर्णन महाभारत में इस तरह दिया गया है-
यस्तु देवमनुष्येषु प्रख्यातः सहजैर्गुणैः।
श्रिया शीलेन रूपेण व्रतेन च दमेन च।।
प्रख्यातो बलवीर्येण सम्मतः प्रतिभानवान्।
वर्चस्वी तेजसा युक्तः क्षमावान् वीतमत्सरः।।
साघ्गोपनिषदान् वेदान् चतुराख्यानपंचमान्।
योधीते गुरुशुश्रूषां मेघां चा”गुणाश्रयाम्।।
ब्रह्मचर्येण दाध्येण प्रसवैर्वयसापि च।
एको वै रक्षिता चैव त्रिदिवं मधवानिव।।
अकत्थनो मानयिता स्थूललक्ष्यः प्रियंवदः।
सुहृदयाभपानेन विविधेनाभिवर्षति।।
सत्यवाक् पूजितो वक्ता रूपवाननहंकृतः।
भक्तानुकम्पो कान्तश्च प्रियश्च स्थितसंगरः।।
प्रार्थनीयैर्गुणगणैर्महेन्द्रवरुणोपमः
(वनपर्व, अध्याय 45)
आपमें वे सब श्रेष्ठ गुण थे, जो स्वभावतः मनुष्य और देवयोनि को प्राप्त होते हैं। वे रूपवान्, व्रती, पवित्र आचरण वाले, बल बुद्धि से युक्त, तेजवान, प्रतिभावान, चतुर, विद्याव्रतस्नातक, सुहृद्, अभिमानरहित, स्थिर संकल्पी, सत्यवादी और गुरु-भक्त थे।
ऐसे अर्जुन गीता में प्रश्न पूछने वाले थे। उस व्यक्ति की शंकायें सिवाय कृष्ण भगवान् के और कौन दूर कर सकता था? अर्जुन की सब शंकाओं का उत्तर देना और अपने कर्तव्य में लगाना बड़ा कठिन था। मानव-जीवन में जो कठिनाइयाँ आती हैं, मनुष्य कर्म कैसी-कैसी विषम परिस्थितियों के कारण अपने कर्तव्य से मोहवश सब किये हुए कर्म फल को नष्ट कर देता है। उसे गीता के उपदेश से ही परम लाभ प्राप्त होता है। भगवान् कृष्ण का उपदेश कैसे प्राप्त हुआ? कितने वीरों का संहार होकर इस अमूल्य निधि की प्राप्ति हुई। वेदव्यास जी तथा भीष्म पितामह दोनों महापुरुषों ने इन दो सत्यवक्ताओं ने भगवान् कृष्ण को साक्षात् विष्णु कहा है। व्यास जी ने महाभारत में गुणगान करते हुए अन्त में श्रीमद्भागवत् की रचना कर परम शान्ति प्राप्त की है। युधष्ठिर की सभा में बड़े-बड़े राजा, महाराजा, ऋषि, महर्षि थे किन्तु जब कृष्ण भगवान् सभा में पधारे तभी सभा सुशोभित हुई। सभा में उपस्थित सभी लोगों ने कहा कि इनकी पूजा हम लोग ही नहीं करते वरन् तीन लोक इनकी उपासना करते हैं, इस बात पर शिशुपाल को बुरा लगा। उसने गाली देना शुरू किया। भगवान् ने उसके सौ अपराध क्षमा किये। अन्त में उसका नाश हुआ। सर्वसम्मति से तथा भीष्म पितामह आदि की हार्दिक इच्छा से कृष्ण भगवान् की सबसे पहले पूजा हुई। कृष्ण भगवान् बल, विद्या, पौरुष, शस्त्र-शास्त्र सभी में अद्वितीय थे। उस सभा में इस प्रकार दिख रहे थे जैसे आकाश में तारागणों के मध्य चन्द्र सुशोभित होता है! दुर्दिन में मेघों में से शाम को सूर्य दिखने से जो प्रसन्नता होती है, जब रुकी हुई हवा बहने लगती है और मनुष्यों को प्राण से मिल जाते हैं, वैसी प्रसन्नता सभा को हुई।
भीष्म पितामह और वेदव्यास जी आपका गुणगान करते-करते थक गये। इन दोनों सत्यवादी महापुरुषों की कीर्ति जगत् प्रसिद्ध है। इन्होंने कहा है कि वासुदेव की शरण में जाने से प्राणिमात्र का कल्याण है। अतः कृष्ण भगवान् को जानने के लिए सबसे पहले भीष्म और वेदव्यास जी को जानें। उन कृष्ण भगवान् ने गीता का अमृतपान अर्जुन को कराया है। उस अर्जुन के हृदय में गहरा मैल जम गया था जिसके निकालने में 18 अध्याय गीता के कहने पड़े। उसका सब विकार धो दिया और उसकी कायरता दूर कर कर्तव्य में लगा दिया। भगवान् ने ज्ञान, भक्ति, कर्म, संन्यास, त्याग सभी बातों का निचोड़ बता दिया। अर्जुन से कह दिया कि-
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।
कैसी मृदघ्ग की थाप लगाई कि तप, व्रत, आदि धर्मों का भरोसा छोड़कर मेरी शरण आ जाओ, रंज मत करो, मत दुःखी हो, मैं सब तरह रक्षक हूँ। गीता का उपदेश देकर अर्जुन को ही नहीं वरन् मानव मात्र का कर्तव्य बता दिया कि धर्मयुद्ध में प्राण न्योछावर कर दें। यूरोप में अनर्थ हो रहा है। शक्तिशाली कमजोर को पीस रहा है। अतः धर्म और न्याय-भावना का पक्ष लें, अन्याय न देखें। अत्याचार दूर करने को तत्पर रहें। 18 अक्षौहिणी सेना का संहार होने के बाद गीता का उपदेश संसार के कल्याणार्थ मिला है। धर्म के लिए सब कुछ अर्पण कर दें, प्राण तक दे दें, पर अधर्म और अनर्थ न होने दें। जहाँ धर्म है, वहाँ परमात्मा का भरोसा है।
यत्र योगश्वरः कृष्णो यंत्र पार्थो धनुर्धरः।
तत्र श्रीविंजयो भूतिध्रुवा नीतिर्मतिर्मम।।
जहाँ धर्म है वहाँ कृष्ण हैं, जहाँ उद्यमी अर्जुन हैं, जहाँ इन दोनों का मेल है वहाँ लक्ष्मी, विजय, नीति सब कुछ है।
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