वाराणसी में आयोजित ‘काशी-तमिल संगमम्’ एक महीने तक चलेगा। इसका उद्देश्य है उस झूठ को समाप्त करना, जिसमें कहा जाता है कि उत्तर और दक्षिण भारत की संस्कृति अलग-अलग हैं। संगमम् यह संदेश भी दे रहा है कि चाहे दक्षिण भारत के लोग हों या उत्तर भारत के, सब एक ही संस्कृति की संतान हैं
इन दिनों वाराणसी में भारतीय संस्कृति की वह झलक देखने को मिल रही है, जिसकी कल्पना हमारे पूर्वजों ने की थी। वह कल्पना थी चाहे उत्तर भारत हो या दक्षिण भारत सबके प्रयासों से ही भारत को विश्व में सिरमौर बनाया जा सकता है। और सदैव से ऐसे प्रयास होते भी रहे हैं, लेकिन बीच-बीच में कुछ स्वार्थी तत्व यह भ्रम फैलाते रहते हैं कि दक्षिण और उत्तर भारत की संस्कृति अलग हैं, सरोकार अलग हैं।
ऐसे ही भ्रमों को तोड़ने और भारत को आगे बढ़ाने के लिए वाराणसी में ‘काशी-तमिल संगमम्’ हो रहा है। 16 नवंबर से 16 दिसंबर तक चलने वाले इस संगमम् की भव्यता देखते ही बनती है। प्रधानमंत्री नरेंद्र्र मोदी ने 19 नवंबर को इसका औपचारिक उद्घाटन किया। इस अवसर पर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, राज्य की राज्यपाल आनंदीबेन पटेल, केंद्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान सहित अनेक लोग उपस्थित थे।
प्रधानमंत्री ने अपने उद्घाटन भाषण में जो कहा, उसका प्रभाव दूरगामी होने वाला है। उन्होंने कहा, ‘काशी और तमिलनाडु, दोनों ही संस्कृति और सभ्यता के केंद्र हैं। काशी में बाबा विश्वनाथ हैं, तो तमिलनाडु में रामेश्वरम का आशीर्वाद है। काशी और तमिलनाडु, दोनों ही शिवमय और शक्तिमय हैं।’
प्रधानमंत्री के इन विचारों को सुनकर वहां उपस्थित हर व्यक्ति अपने को गौरवान्वित अनुभव कर रहा था। केरल के हरिहरा अलगप्पन कहते हैं, ‘प्रधानमंत्री ने निश्चित रूप से अनोखा प्रयोग किया है। यह आयोजन भारत को मजबूती देगा।’ वहीं तंजावुर विश्वविद्यालय की छात्रा संध्या कहती हैं, ‘हम भाग्यशाली हैं कि संगमम् में आने के लिए हमारा चयन हुआ। 48 घंटे की रेल यात्रा और काशी में जो स्वागत हुआ, वह अविस्मरणीय है।’
चैन्ने से आए इंजीनियरिंग के छात्र अरविंद एक कदम आगे बढ़कर कहते हैं, ‘यह आयोजन भारत को जानने, समझने और उसकी एकता और अखंडता के लिए है। इसके दूरगामी सुपरिणाम निकलेंगे।’ संगमम् में तंजावुर (तमिलनाडु) में मेडिकल की पढ़ाई करने वाले शेदुरामन भी मिले। वे इस आयोजन से बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने कहा, ‘यह संगमम् प्रधानमंत्री की उत्कृष्ट सोच का उदाहरण है। हम रामेश्वरम् की धरती से यहां काशी विश्वनाथ की धरती पर आए। पूरा आयोजन बहुत अच्छा लग रहा है।’
तमिलनाडु से आई विधि की छात्रा संध्या कहती हैं, ‘काशी की यात्रा अद्भुत अनुभूति प्रदान करती है। भाषा की समस्या कोई बड़ी बात नहीं है। काशी के बहुत से लोग तमिल भी बोल लेते हैं।’ तमिलनाडु के खिलौने व्यवसायी आर. एस. सकथीवेल कहते हैं, ‘तमिलनाडु में नारियल बहुत होता है। हम नारियल की बेकार चीजों से खिलौना बनाते हैं।
उम्मीद है कि इस आयोजन से नारियल से बने खिलौनों की मांग उत्तर भारत में भी बढ़ेगी और रोजगार के नए अवसर उपलब्ध होंगे।’ सिल्क कारोबारी भास्करन कहते हैं, ‘बनारसी सिल्क साड़ी की तरह ही तमिलनाडु का सिल्क भी मशहूर है। इस संगमम् के कारण बनारसी साड़ी के साथ हमारे यहां की साड़ियों को उत्तर भारत का बाजार मिलेगा।’ शिक्षक सुब्रमण्यम अन्ना कहते हैं, ‘काशी विश्वनाथ कॉरिडोर विकास की गाथा कह रहा है। पहले हम लोग आते थे, तो काफी परेशानी होती थी, लेकिन इस बार भव्य स्वागत हुआ। काशी से यह संदेश पूरी दुनिया में फैलेगा कि हम सभी भारतीय एक हैं।’
भक्त की धरती और भक्तिभूमि
काशी-तमिल संगमम् का उद्घाटन करने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जो कहा, उसके प्रमुख अंश यहां दिए जा रहे हैं
हमारे पास दुनिया की सबसे प्राचीन भाषा तमिल है। आज तक यह भाषा उतनी ही प्रसिद्ध और जीवंत है, जितनी पहले थी। यह बात जब दुनिया वालों को पता चलती है तो उन्हें आश्चर्य होता है, लेकिन हम उसके गौरवगान में पीछे रहते हैं। 130 करोड़ देशवासियों की जिम्मेदारी है कि तमिलनाडु की इस विरासत को हमें बचाना है, उसे समृद्ध करना है। धार्मिक महत्व के कारण देश के सभी भागों के लोग सदियों से काशी आते रहे हैं। गंगा जी के तट पर बसी यह पवित्र नगरी भारत की धर्म, संस्कृति और आध्यात्मिक चेतना का केंद्र बनी हुई है। इसी प्रकार तमिलनाडु प्राचीनकाल से ही ज्ञान, कला और संस्कृति का केंद्र रहा है, जिसे चोल, पल्लव आदि राजाओं ने विस्तार दिया। काशी और तमिलनाडु में भारतीय संस्कृति के सभी तत्व समान रूप से संरक्षित हैं। हमारे यहां ऋषियों ने कहा है एकोऽहं बहुस्याम यानी एक ही चेतना अलग-अलग रूपों में प्रकट होती है। काशी और तमिलनाडु के विचार दर्शन को हम इसी रूप में देख सकते हैं। काशी में बाबा विश्वनाथ हैं तो तमिलनाडु में रामेश्वरम का आशीर्वाद है। काशी और तमिलनाडु दोनों शिवमय और शक्तिमय हैं। काशी और कांची दोनों का सप्तपुरियों में महत्वपूर्ण स्थान है। दोनों संगीत, साहित्य और कला का अद्भुत स्रोत हैं। काशी का तबला है और तमिलनाडु का तन्नुमाई। काशी में बनारसी साड़ी है तो तमिलनाडु का कांजीवरम सिल्क पूरी दुनिया में प्रसिद्ध है। दोनों भारतीय अध्यात्म के सबसे महान आचार्यों की जन्मभूमि और कर्मभूमि है। काशी भक्त तुलसी की धरती है तो तमिलनाडु संत तिरुवल्लुवर की भक्तिभूमि है।
काशी और तमिलनाडु के संबंध
दरअसल, काशी में तमिल संगमम् होने के कई कारण हैं। बता दें कि तमिलनाडु से काशी का गहरा जुड़ाव रहा है। प्रख्यात शिक्षाविद् और तमिलनाडु के रहने वाले डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन काशी हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) के कुलपति रहे हैं। महान वैदिक विद्वान राजेश्वर शास्त्री ने काशी में रामघाट पर सामवेद विद्यालय की स्थापना की थी। तो पट्टाभिराम शास्त्री हनुमान घाट पर रहते थे। आज भी हरिश्चंद्र घाट पर तमिल शैली का काशी कामकोटी पंचायतन मंदिर है।
केदारघाट पर लगभग 200 वर्ष पहले कुमारस्वामी मठ और मार्कण्डेय आश्रम स्थापित किया गया था। आज भी हनुमानघाट और केदारघाट पर बड़ी संख्या में तमिलनाडु के लोग रहते हैं। तमिलनाडु के महान कवि सुब्रमण्यम भारती ने काशी में लंबे समय तक निवास किया था। तमिलनाडु में जन्मे रामानुजाचार्य ने काशी से कश्मीर तक की यात्रा की थी। लेकिन एक षड्यंत्र के अंतर्गत कभी इन चीजों पर चर्चा नहीं की जाती। संगमम् में इन सब पर खुलकर चर्चा हो रही है। भारत को आगे बढ़ाने में इन लोगों के योगदान को जानकर लोग आश्चर्य कर रहे हैं।
विद्धानों के विचार
बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति डॉ. गिरीश चंद्र त्रिपाठी का मानना है, ‘इस तरह के आयोजन लगातार होते रहने चाहिए। भारत शास्त्रार्थ की भूमि है। भारत भावार्थ की भूमि है। अगर कहीं पर कोई अच्छी बात है, तो उसे स्वीकार करना हमारा संस्कार रहा है। ऐसे आयोजनों से परस्पर एकात्मकता का भाव बढ़ेगा।’ उन्होंने यह भी कहा, ‘केवल यह सोच लेना कि हम जो कह रहे हैं वही सही है, ऐसा नहीं होना चाहिए।
लगातार संवाद करने से ज्ञान का आदान-प्रदान होता है। इससे परस्पर ज्ञान में वृद्धि होती है। तमिल संगमम् के माध्यम से उत्तर और दक्षिण के संवाद की परम्परा और मजबूत होगी। उत्तर और दक्षिण का तात्विक ज्ञान तो एक ही है, लेकिन इस तरह के आयोजन से एक-दूसरे के ज्ञान को साझा करने का अवसर मिलता है। परस्पर संवाद से न केवल मस्तिष्क में परिवर्तन आता है, बल्कि हृदय परिवर्तन भी हो जाता है। हृदय परिवर्तन होना बहुत आवश्यक है।’
डीएवी पोस्ट ग्रेजुएट कॉलेज, काशी में अर्थशास्त्र विभाग के अध्यक्ष प्रो. अनूप श्रीवास्तव कहते हैं, ‘यह कार्यक्रम न केवल भारत में, बल्कि पूरे विश्व में एक संदेश देगा। काशी-तमिल संगमम् को देखने, समझने के लिए बाहर से आए पर्यटकों में भी काफी उत्सुकता है। संगमम् केवल धर्मिक, आध्यात्मिक कार्यक्रम ही नहीं है, बल्कि इसका सांस्कृतिक आधार है। प्रदर्शनी और सांस्कृतिक कार्यक्रमों के जरिए स्थानीय कौशल को दिखाने और समझाने के साथ लोगों को जोड़ने का यह अच्छा प्रयास है। हमारे यहां लकड़ी के खिलौने मशहूर हैं, तो तमिलनाडु में नारियल और उसके अन्य पदार्थों से बने आकर्षक सजावटी सामान मशहूर हैं।’
बीएचयू के इतिहास विभाग में प्राध्यापक प्रो. राजीव श्रीवास्तव कहते हैं, ‘सैकड़ों वर्ष पहले जब तमिलनाडु से कोई काशी आता था, तो उसे काशी मुद्रा (मुहर) यानी प्रमाणपत्र दिया जाता था। उस यात्री की गिनती वहां धर्माचार्य के रूप में होती थी। चोल राजाओं द्वारा राजराजेश्वरी मंदिर का निर्माण किया गया है, इसका भी इतिहास मिलता है। तमिलनाडु में लहुरी काशी, छोटी काशी जैसे स्थान भी हैं। ये सब यह बताने के लिए काफी हैं कि काशी और तमिलनाडु के संबंध बहुत पुराने हैं।’
पांचवीं पीढ़ी से काशी में रहने वाले शिक्षक चंद्रशेखर द्रविण कहते हैं, ‘कुमार स्वामी मठ (जंगमबाड़ी) से तमिलनाडु के लोगों का पुराना नाता है। दक्षिण भारत का नाट्कोट्टई नगर क्षेत्राम टस्ट पिछले 200 वर्ष से श्री काशी विश्वनाथ जी की मंगला आरती, मध्याह्न भोग आरती और रात्रि श्रृंगार भोग आरती कराता आ रहा है। दक्षिण से आए लोग आज भी पैदल ही काशी भ्रमण करते हैं।’
मंदिरों की झलक
संगमम् में काशी और तमिलनाडु के 90 प्राचीन मंदिरों की झलक दिखाई जा रही है। इसमें वाराणसी के 29 और तमिलनाडु के 61 मंदिर शामिल हैं। इसमें तीसरी से लेकर बारहवीं सदी तक की कुछ प्राचीन मूर्तियां दर्शकों को बहुत आकृष्ट कर रही हैं। संगमम् में कला और संस्कृति के विविध रूप देखने को मिल रहे हैं। संगमम् में शिक्षा, साहित्य, पुरातत्व, इतिहास, आयुर्वेद,कला, संगीत, योग व्यापार आदि से जुड़े लोग भाग ले रहे हैं।
संगमम् में 75 स्टॉल लगाए गए हैं, जो कृषि, संस्कृति, साहित्य, संगीत, खानपान, हथकरघा, हस्तशिल्प और लोककला के माध्यम से दक्षिण भारत और उत्तर भारत के बीच के संबंधों को और मजबूती दे रहे हैं। वास्तव में इस संगमम् के आयोजन के पीछे का भाव यही है कि देश का हर व्यक्ति अपनी स्थानीय विशेषताओं को सहेजते हुए भारत माता की सेवा में लगा रहे। इसी में सभी भारतीयों का कल्याण है।
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