गीता मनुष्य को जीवन का प्रबंधन सिखाती है। यह कर्म को महत्ता देती है ताकि मनुष्य कर्म करते हुए श्रेष्ठ स्थिति को प्राप्त करे। गीता जीवन की अस्मिता के बोध का ग्रंथ है, जो यह सिखाता है कि कुंठा और तनाव से मुक्त जीवन ही आनंद का जीवन है
श्रीमद्भगवद्गीता जीवन-प्रबंधन, ज्ञान, बोध व कर्तव्यभाव का ग्रंथ है। जीवन को प्रबंधित करना, नियामित करना व इसे लक्ष्य के साथ जोड़ना ही इसका मूल उद्देश्य है। जीवन जब चरम लक्ष्य के साथ निरंतरता बनाता है व उस पर चलने की वृत्ति की मानसी स्वीकृति होती है, तभी मोक्ष की प्राप्ति होती है।
मोक्ष इस संसार से परे किसी अन्य संसार में जाना नहीं, अपितु इसी संसार में रहते हुए सामान्य बंधनों से स्वयं को पृथक करना है। ज्ञानपूर्वक, बोधपूर्वक, सत्-असत्, उचित-अनुचित, करणीय-अकरणीय के भेद को जानते हुए जीवन जीना और जीवन को श्रेष्ठ बनाना, यही इस ग्रंथ का मूल संदेश है। इसलिए यह जीवन में श्रेष्ठता के आधान का और श्रेष्ठता की प्राप्ति के लिए कर्म पथ पर चलते हुए सभी प्रकार की दैवीय संपत्तियों की प्राप्ति का मार्ग है।
यह ऐसा धर्मग्रंथ है, जो धर्माचरण के लाभ-हानि के स्पष्ट विचार को जीवन के सामने रखता है और धर्म-अधर्म के बीच की सूक्ष्म रेखा को स्पष्ट करता है। इसमें धर्म-अधर्म, कर्म-अकर्म, ज्ञान-अज्ञान, गेय, श्रेय, हेय आदि की सीमा और उनकी विशिष्टताओं का वर्णन है। मनुष्य जो चाहता है, वह सात्विक रूप से और हमेशा के लिए कैसे प्राप्त हो, इसका पथ-प्रवर्तन ही श्रीमद्भगवद्गीता है। यह योग का ग्रंथ है, क्योंकि इसमें प्रथम से लेकर 18वें अध्याय तक प्रत्येक अध्याय में विशिष्ट प्रकार की योग स्थिति के बारे में बताया गया है। लेकिन मूलत: तीन प्रकार के योगों की ही चर्चा की गई है- ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग। इसमें कर्मयोग को श्रेष्ठ बताया गया है। शायद इसलिए यह जीवन प्रबंधन की राजपद्धति है।
कर्तव्यभाव से कर्म करना और कर्तव्य के अतिरिक्त मेरी कोई अन्य गति नहीं है, इस निश्चय के साथ किया गया कर्म ही नैतिक कर्म या शुभ कर्म है। अत: शुभ बुद्धि के साथ अर्जुन द्वारा किया गया युद्ध भी यज्ञ हो जाता है। इस बुद्धि के साथ की जाने वाली हिंसा भी शुभ और फलदायी हो जाती है।
जीवन में कोई क्षण ऐसा नहीं होता, जब मनुष्य बिना कर्म के रहे। उठना-बैठना, सोना-जागना और यहां तक कि पलकों का झपकना और श्वास-प्रश्वास का चलना, ये सब कर्म ही हैं। कुछ कर्म इच्छा स्वातंत्र्य के साथ होते हैं और कुछ कर्म स्वाभाविक रूप से होते हैं।
श्रीमद्भगवद्गीता इच्छा स्वातंत्र्य से किए हुए कर्मों को कर्मयोग की श्रेणी में रखती है। श्रेष्ठ स्थिति की प्राप्ति का मार्ग कर्म, ज्ञान और भक्ति में एक ही तरह का है। श्रीमद्भगवद्गीता में नौ तरह से ज्ञान, कर्म और भक्ति की महत्ता बताई गई है, लेकिन तीनों का रास्ता एक ही है जिस पर चलने के लिए कर्म करना पड़ेगा। इसलिए कर्मयोग को श्रेष्ठ माना गया है। श्रीमद्भगवद्गीता में कहा गया है-
संन्यास: कर्मयोगश्च नि:श्रेयसकरावुभौ।
तयोस्तु कर्मसंन्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते।।
अर्थात् कर्म संन्यास तब होता है, जब ज्ञान होता है। लेकिन कर्म संन्यास की अपेक्षा कर्मयोग महत्वपूर्ण है, क्योंकि इसमें कर्म कर्तव्यभाव से होते हैं। कर्तव्य परंपरा को सुरक्षित रखने का यत्न होता है। यानी कर्मयोगी के लिए कर्म अपने लिए न होकर दूसरों के लिए होता है। जब कर्म दूसरों के लिए होता है, तो अपने लिए सुख, आराम, सम्मान, महिमा गायन, अपनी विद्या-बुद्धि, अपने लिए संग्रह और भोग आदि की उत्कट इच्छा, समाप्त हो जाती है।
वहीं, ज्ञान में थोड़ी कठिनाई आती है, क्योंकि त्याग करने के लिए कर्मयोगी कर्म को ही त्यागभाव से करता है, पर ज्ञानयोगी त्याग के लिए विवेक का प्रयोग करता है। विवेक के प्रयोग में फल की चिंता होती है, जिससे फल के प्रति मानसिक आसक्ति उत्पन्न होती है। यानी जो प्रेय है, उपादेय है, उसके प्रति हमारी सकाम बुद्धि बनती है और जो हेय है, उसके प्रति त्याग बुद्धि बनती है। इसलिए हेय, उपादेय का विचार ही विवेक है।
कर्तव्यभाव से कर्म करना और कर्तव्य के अतिरिक्त मेरी कोई अन्य गति नहीं है, इस निश्चय के साथ किया गया कर्म ही नैतिक कर्म या शुभ कर्म है। अत: शुभ बुद्धि के साथ अर्जुन द्वारा किया गया युद्ध भी यज्ञ हो जाता है। इस बुद्धि के साथ की जाने वाली हिंसा भी शुभ और फलदायी हो जाती है। जीवन में सभी प्रकार की क्रियाओं को किस तरह शुभ और फलदायी बनाया जाए, मनुष्य के लिए किस प्रकार उपयोगी बनाया जाए, श्रीमद्भगवद्गीता इसका मार्ग दिखाती है।
यह ग्रंथ लोक संग्रह से किये जाने वाले कर्म का अभिधान करता है।लोक की मर्यादा को स्थायी रखने के लिए ही लोक संग्रह है, जो ईश्वर नहीं, मनुष्य के अधीन है। लोक संग्रह मनुष्य द्वारा जीवन में किए गए कर्म ही हैं। गीता कहती है-
यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जन:।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते॥
अर्थात् जो श्रेष्ठ मनुष्य हैं, जिनका अनुसरण किया जा सकता है, उनके कर्म ही लोक संग्रह हैं। लोक संग्रह दो प्रकार से होता है- पहला, आचरण से और दूसरा, वचन से। आचरण से होने वाला लोक संग्रह निष्काम भाव से, गुण-परिणाम की उत्कट अभिलाषा का त्याग करते हुए, संसार के हित में किया जाने वाला कर्म है।
वचन से लोक संग्रह का तात्पर्य है कि प्रत्येक मनुष्य को, जो कर्म किए जाने वाले हैं उन कर्मों को उत्प्रेरित करने वाली भाषा का प्रयोग करना, सबको उन्मार्ग से हटा करके सन्मार्ग पर नियोजित करना है। हम जानते हैं कि वचनों का प्रभाव कम पड़ता है, आचरण का प्रभाव अधिक पड़ता है। इसीलिए श्रीमद्भगवद्गीता लोक मर्यादा के अनुसार आचरण को ही लोक संग्रह का श्रेष्ठतम मार्ग मानती है।
लोक मर्यादा के अनुसार, आचरण करना वस्तुत: जीवन को प्रबंधित करना है। मुक्ति तो चाहिए, लेकिन प्रतिष्ठ रूप से नियोजित। मुक्ति का तात्पर्य अराजकता नहीं है। मुक्ति का तात्पर्य शाश्वत शांति है। मनुष्य तीन चीजें चाहता है- सुख, शांति और आनंद। इसी से संतुष्टि मिलती है, न कि धन, वैभव, संपत्ति और उपभोग की वस्तुओं से। अपने आचरण और कर्तव्य से जब हम संतुष्ट होते हैं, तभी मुक्ति मिलती है। अन्यथा क्षेत्रभूमि पर कर्म करना भी अव्यवस्थित कर्म करना है।
स्मृति का उत्पन्न होना और मोह का नष्ट होना ही जीवन को श्रेष्ठ रीति से प्रबंधित करना है। प्रबंधित जीवन ही मनुष्य को दुख, क्रोध, तनाव और कुंठा से मुक्ति दिलाता है। कुंठा और तनाव से मुक्त जीवन ही आनंद का जीवन है, जो ज्ञान, भक्ति और कर्म यानी विवेक, सत्कर्म और आस्था से प्राप्त होता है। इसलिए श्रीमद्भगवद्गीता ईश्वर नियोजित मार्ग, श्रेष्ठ मार्ग, करणीय मार्ग, जीवन में सकल श्रेय की प्राप्ति का मार्ग और सभी प्रकार के प्रेय की उपलब्धि का मार्ग कर्मयोग को मानती है, निष्कामता के साथ की गई चेष्टा को मानती है।
श्रीमद्भगवद्गीता कर्म व्यवस्था की स्थापना का ग्रंथ है, जो ज्ञान और भक्ति को सन्यस्त भाव व निष्काम भाव से कर्म करने के लिए प्रेरित करता है। यह ज्ञान, कर्म और भक्ति, इन तीनों का अंतत: कर्म में एकाकारिता करती है। ज्ञानपूर्वक कर्म, भक्तिपूर्वक कर्म, विवेकपूर्वक कर्म और आस्थापूर्वक कर्म से संबंधित क्रिया ही कर्म बंधन में नहीं डालती। विवेक और आस्था से समन्वित कर्म ही मनुष्य को अंतत: उस वास्तविक तुष्टि की प्राप्ति कराता है। इसे प्राप्त करने के बाद कुछ भी पाना शेष नहीं रहता। श्रीमद्भगवद्गीता कहती है-
ध्यायतो विषयान्पुंस: संगस्तेषूपजायते ।
संगात्सञ्जायते काम: कामात्क्रोधोऽभिजायते ॥
क्रोधाद्भवति सम्मोह: सम्मोहात्स्मृतिविभ्रम: ।
स्मृतिभ्रंशाद्बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ॥
अर्थात् विषयों का चिंतन करने वाले व्यक्ति की उन विषयों में आसक्ति हो जाती है। आसक्ति से काम उत्पन्न होता है और काम से क्रोध की उत्पत्ति होती है। क्रोध से विवेकशून्यता होती है। अविवेक से स्मृति का भ्रंश और स्मृतिभ्रंश से बुद्धि का नाश होता है तथा बुद्धि के नाश से वह स्वयं नष्ट हो जाता है। इससे इतर जब अर्जुन कहता है –
नष्टो मोह: स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादात्मयाच्युत।
स्थितोऽस्मि गतसन्देह: करिष्ये वचनं तव॥
यानी जब मोह नष्ट हो जाता है और स्मृति प्राप्त हो जाती है, तब व्यक्ति संशयरहित होकर आज्ञा का पालन करता है। स्मृति प्राप्त होने का मतलब है ‘क्या’ की पहचान हो जाना। अर्थात् मैं कौन हूं? मुझे क्या करना है? मुझे क्या नहीं करना है? मेरा लक्ष्य क्या है? इस प्रकार के प्रश्नों के उत्तर जब मिल जाते हैं, तब स्मृति प्राप्त होती है। स्मृति का उत्पन्न होना और मोह का नष्ट होना ही जीवन को श्रेष्ठ रीति से प्रबंधित करना है। प्रबंधित जीवन ही मनुष्य को दुख, क्रोध, तनाव और कुंठा से मुक्ति दिलाता है। कुंठा और तनाव से मुक्त जीवन ही आनंद का जीवन है, जो ज्ञान, भक्ति और कर्म यानी विवेक, सत्कर्म और आस्था से प्राप्त होता है। इसलिए श्रीमद्भगवद्गीता ईश्वर नियोजित मार्ग, श्रेष्ठ मार्ग, करणीय मार्ग, जीवन में सकल श्रेय की प्राप्ति का मार्ग और सभी प्रकार के प्रेय की उपलब्धि का मार्ग कर्मयोग को मानती है, निष्कामता के साथ की गई चेष्टा को मानती है।
(लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के कुलपति हैं)
टिप्पणियाँ