सनातन भारतीय संस्कृति के सोलह संस्कारों में ‘विवाह’ को सर्वाधिक महत्वपूर्ण संस्कार माना गया है। हिन्दू धर्म दर्शन की मान्यता है कि विवाह केवल स्त्री और पुरुष के गृहस्थ जीवन प्रवेश का ही प्रसंग नहीं है बल्कि यह जीवन को संपूर्णता देने का अवसर है। रामकथा का सबसे महत्वपूर्ण पड़ाव है सीताराम विवाह। रामकथा के प्रथम वाचक महर्षि वाल्मीकि के अनुसार राक्षसराज रावण का वध सीता-राम के मिलन के बगैर संभव ही नहीं था। रामकथा के उद्धरण बताते हैं कि मार्गशीर्ष (अगहन) मास की शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम का भूमिसुता जनकनंदिनी सीता के साथ पावन पाणिग्रहण हुआ था।
ब्रह्मर्षि विश्वामित्र के आह्वान पर वन में विध्वंसकारी राक्षसी तत्वों को मारकर वनवासी ऋषि समाज को भयमुक्त करने के उपरांत राजकुमार श्रीराम अनुज लक्ष्मण के साथ विदेहराज जनक की पुत्री सीता का स्वयंवर देखने मिथिला पधारते हैं। गुरु की आज्ञा लेकर दोनों भाई जन मिथिला भ्रमण पर निकलते हैं तो सम्पूर्ण मिथिलावासी उनके शील व सौन्दर्य से सम्मोहित हो उठते हैं। रात्रि विश्राम के उपरांत अगले दिन दोनों भाई जब गुरु की आदेश से उनकी पूजा के लिए फूल लाने राजा जनक की पुष्प वाटिका में जा जाते हैं तो वहां जनकनंदिनी सीता जो स्वयंवर से पूर्व मां गौरी का आशीर्वाद लेने आयी हुई थीं; श्रीराम और सीता जी के एक दूसरे के प्रथम दर्शन के पश्चात ही दोनों के दिव्य मिलन का मार्ग निर्धारित हो जाता है। सीता स्वयंवर के आयोजन में शिवधनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाने की शर्त के पीछे का प्रसंग भी कम रोचक नहीं है। त्रेतायुगीन पौराणिक विवरण के अनुसार एक बार महाराजा जनक ने पुत्री सीता को सफाई के दौरान अपने कुल द्वारा संरक्षित उस दिव्य उस शिवधनुष को सहज ही उठाते देख लिया; जो किसी सामान्य व्यक्ति के लिए उठाना तो दूर हिलाना भी असंभव था। अपनी पुत्री की उस अलौकिक क्षमता देख विदेहराज जनक ने तभी यह प्रण ले लिया कि वे पुत्री सीता का विवाह उसी शूरवीर से करेंगे जो उस शिव धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ा सकेगा।
गोस्वामी तुलसीदास की कालजयी कृति ‘रामचरितमानस’ में सीता-राम विवाह का अत्यंत मनोरम चित्रांकन मिलता है। तुलसीदास जी लिखते हैं कि सीता स्वयंवर में पधारे एक से एक शूरवीर राजाओं में से कोई भी शिवधनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाने की शर्त पूरी न कर सका तो राजा जनक अत्यंत निराश होकर बोल उठे- लगता है कि पूरी धरती पर मेरी पुत्री के योग्य एक भी शूरवीर नहीं बचा है। इस पर ऋषि विश्वामित्र के कहने पर श्रीराम उस शिव धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाने को उठे। उन्होंने ज्यों ही धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ायी वह दो टुकड़ों में टूट गया। इस तरह स्वयंवर की शर्त पूरी कर श्रीराम सीता जी के साथ दाम्पत्य सूत्र में बंध गये। इस विवाह का अत्यंत मनोमुग्धकारी शब्दचित्र खींचते हुए गोस्वामी जी लिखते हैं –
सिय सुंदरता बरनि न जाई। लघु मति बहुत मनोहरताई॥
आवत दीखि बरातिन्ह सीता। रूप रासि सब भाँति पुनीता॥
राम सीय सुंदर प्रतिछाहीं। जगमगात मनि खंभन माहीं॥
मनहुँ मदन रति धरि बहु रूपा। देखत राम बिआहु अनूपा॥
श्रीराम व सीता का पावन विवाह प्रसंग हमें विवाह संस्था की महत्ता और उसके गहन अर्थों से रूबरू कराता है। संसार के विवाह और श्रीराम के मंगलमय विवाह में क्या अंतर है, इस बाबत ‘युग तुलसी’ के नाम से विख्यात मानस मर्मज्ञ राम किंकर जी महराज कहते हैं कि मानव जीवन में बाहर से भीतर जाना जीवन में परम आवश्यक है। राम विवाह का भगवद्-रस व्यक्ति को बाहर से भीतर की ओर ले जाता है। सामान्यतया लोक व्यवहार में भी हम देखते और अनुभव करते हैं कि जब तीव्र गर्मी व धूप पड़ने लगती है तो हम बाहर से भीतर चले जाते हैं। वर्षा में भी आप बाहर से भीतर चले जाते हैं। अर्थात घर के भीतर जाकर हम बाहर धूप व वर्षा दोनों से सुरक्षित हो जाते हैं। ठीक इसी प्रकार जीवन में भी कभी वासना के बादल बरसने लगें, क्रोध की धूप संतप्त करने लगे, मनोनुकूल घटनाएं न घटने से मन उद्द्विग्न होने लगे तो उस समय अगर हम अपने अंतर्जगत के भाव राज्य में प्रविष्ट हो सकें तो सहज ही एक अलौकिक आनंद की अनुभूति कर सकेंगे। सीता-राम का जीवन के इस गंभीर अर्थ की तरफ हमारा ध्यान आकर्षित कराता है।
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