महाभारत सत्ता नहीं, अस्तित्व का युद्ध

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आदित्य नारायण झा 'अनल'

कर्ण कितना भी बड़ा योद्धा और दानी क्यों न रहा हो, एक स्त्री के वस्त्र-हरण में सहयोग के पाप के समक्ष उसके सारे पुण्य छोटे पड़ गए। किसी स्त्री के अपमान का दंड अपराधी के समूल नाश से ही पूरा होता है, भले वह विश्व का सबसे शक्तिशाली व्यक्ति क्यों न हो। कृष्ण के युग में दो स्त्रियों को बाल से पकड़ कर घसीटा गया। उन्होंने दोनों के अपराधियों का समूल नाश किया

कृष्ण और बलराम दो भाई हैं। सारा जीवन परछाई की तरह साथ रहे, पर पांडव-कौरवों में क्या चल रहा है, बलराम कभी नहीं समझ पाए। उन्होंने दुर्योधन को गदा चलाना सिखाया, फिर अपनी बहन सुभद्रा का विवाह उससे करना चाहा। बाद में बेटी का विवाह दुर्योधन के बेटे से करना चाहा। कृष्ण हर बार वीटो लगाते रहे। जब पांडव और कौरवों में युद्ध तय हो गया, तब बलराम तीर्थ यात्रा पर चले गए। जब लौटे तो भीमसेन दुर्योधन की जांघ तोड़ रहा था। इस पर बलराम क्रोधित हो गए।

बलराम जी का चरित्र आंख पर पट्टी बांधे सेकुलर हिंदुओं की याद दिलाता है, जो लाक्षागृह से लेकर अभिमन्यु वध तक कुछ नहीं बोलते, लेकिन भीम द्वारा नियम तोड़कर दुर्योधन पर वार करते ही भड़क जाते हैं। उनकी निरपेक्षता आसुरी शक्तियों को मौन समर्थन का काम करती है। लेकिन कृष्ण शुरू से ही स्पष्ट हैं। वे दुर्योधन को उस स्तर पर लाते हैं, जहां वह बोल दे कि ह्यसुई के बराबर जमीन भी नहीं दूंगाह्ण ताकि साबित हो जाए कि यह सत्ता का युद्ध नहीं है ह्यअस्तित्वह्ण की लड़ाई है। इसे आधुनिक शब्दावली में ह्यएक्सपोजह्ण करना कहते हैं। वे शांतिदूत बनकर जाते हैं, पर समय आने पर युद्ध छोड़ कर भाग रहे अर्जुन को गीता का ज्ञान देकर युद्ध करने के लिए प्रेरित करते हैं।

सेकुलर हिंदू समाज कृष्ण को पूजता है, पर बर्ताव बलराम जैसा करता है, जिसे अपने ऊपर हमला करने वाले जरासंध तो दिखते हैं, पर द्रौपदी के वस्त्रों तक पहुंचने वाले कौरव बुरे नहीं लगते, क्योंकि दुर्योधन से लगाव है। आम हिंदू अर्जुन का प्रतीक है। वह सही-गलत में इतना उलझा है कि अंत में धनुष छोड़कर खड़ा हो जाता है। अर्जुन को गीता में ह्यभारतह्ण कह कर संबोधित किया गया है। अर्जुन बनने का लाभ तभी है, जब आपके पास कृष्ण जैसा सारथी हो।

कृष्ण युद्धभूमि में जय व पराजय तय करने नहीं, अपराधियों को दंड दिलाने उतरे थे। कृष्ण के युग में दो स्त्रियों को बाल से पकड़ कर घसीटा गया। कंस ने देवकी और दु:शासन ने द्रौपदी के बाल पकड़े। श्रीकृष्ण ने दोनों के अपराधियों का समूल नाश किया। स्त्री का अपमान स्वीकार नहीं, यही भगवान श्रीकृष्ण का न्याय था। 

दुर्योधन ने अबला स्त्री को दिखाकर जंघा ठोकी थी, उसकी जंघा तोड़ी गई। दु:शासन ने छाती ठोकी तो उसकी छाती फाड़ दी गई। कर्ण ने एक असहाय स्त्री के अपमान का समर्थन किया तो श्रीकृष्ण ने असहाय दशा में ही उसका वध कराया। भीष्म ने यदि प्रतिज्ञा में बंधकर एक स्त्री के अपमान को देखने व सहने का पाप किया, तो असंख्य तीरों में बिंध कर पूरे कुल को मरते हुए भी देखा। भारत का कोई बुजुर्ग अपने सामने अपने बच्चों को मरते देखना नहीं चाहता, पर भीष्म चार पीढ़ियों को मरते देखते रहे। यही उनका दंड था। धृतराष्ट्र का दोष था पुत्रमोह, तो सौ पुत्रों के शव को कंधा देने का दंड मिला उन्हें।

दस हजार हाथियों के बराबर बल वाला धृतराष्ट्र सिवाय रोने के और कुछ नहीं कर सका। दंड केवल कौरवों को ही नहीं, पांडवों को भी मिला। द्रौपदी ने वरमाला अर्जुन के गले में डाली थी, सो उनकी रक्षा का दायित्व सबसे अधिक अर्जुन पर था। अर्जुन यदि चुपचाप उनका अपमान देखते रहे, तो सबसे कठोर दंड भी उन्हीं को मिला। अर्जुन भीष्म को सबसे अधिक प्रेम करते थे, तो कृष्ण ने उन्हीं के हाथों पितामह को निर्मम मृत्यु दिलाई। अर्जुन रोते रहे, पर तीर चलाते रहे। अपने ही हाथों अपने अभिभावकों, भाइयों की हत्या करने की ग्लानि से अर्जुन कभी मुक्त हुए होंगे? नहीं! वे जीवन भर तड़पे होंगे। यही उनका दंड था।

युधिष्ठिर ने स्त्री को दांव पर लगाया, तो उन्हें भी दंड मिला। विषम परिस्थितियों में भी सत्य और धर्म का साथ नहीं छोड़ने वाले युधिष्ठिर ने युद्धभूमि में झूठ बोला और उसी झूठ के कारण उनके गुरु की हत्या हुई। उनका एक झूठ उनके सारे सत्यों पर भारी रहा। धर्मराज के लिए इससे बड़ा दंड क्या होगा? एक अधर्मी को गदायुद्ध की शिक्षा देने का दंड बलराम को भी मिला। उनके सामने उनके प्रिय दुर्योधन का वध हुआ और वे चाह कर भी कुछ न कर सके।

उस युग में दो योद्धा ऐसे थे जो अकेले सबको दंड दे सकते थे, कृष्ण और बर्बरीक। पर कृष्ण ने ऐसे कुकर्मियों के विरुद्ध शस्त्र उठाने तक से इनकार कर दिया व बर्बरीक को युद्ध में उतरने से रोक दिया। लोग पूछते हैं कि बर्बरीक का वध क्यों हुआ? यदि बर्बरीक का वध नहीं हुआ होता तो द्रौपदी के अपराधियों को यथोचित दंड नहीं मिल पाता।

कृष्ण युद्धभूमि में जय व पराजय तय करने नहीं, अपराधियों को दंड दिलाने उतरे थे। कृष्ण के युग में दो स्त्रियों को बाल से पकड़ कर घसीटा गया। कंस ने देवकी और दु:शासन ने द्रौपदी के बाल पकड़े। श्रीकृष्ण ने दोनों के अपराधियों का समूल नाश किया। स्त्री का अपमान स्वीकार नहीं, यही भगवान श्रीकृष्ण का न्याय था।

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