सत्ता पाने के लिए कांग्रेस कुछ भी कर सकती है। जिस गांधी परिवार ने सार्वजनिक तौर पर पहले राजीव गांधी के हत्यारों को माफ करने की बात कही थी, अब उनकी रिहाई पर चुप है। लेकिन कांग्रेस केंद्र सरकार पर चुप्पी का आरोप मढ़ रही है। जो डीएमके रिहाई के फैसले का स्वागत कर ही है, उसके साथ कांग्रेस का गठबंधन है
राजीव हत्याकांड के सभी 6 दोषियों को 12 नवंबर को रिहा किया गया। इनमें (बाएं से) नलिनी श्रीहरन, उसका पति वी. श्रीहरन उर्फ मुरुगन, संथन,, वी. रविचंद्रन, रॉबर्ट पायस व जयकुमार शामिल हैं। श्रीहरन और संथन श्रीलंका के नागरिक हैं।
21 मई, 1991 को तमिलनाडु के श्रीपेरंबुदूर में आत्मघाती हमले से पहले की तस्वीर,
प्रमोद जोशी
राजीव गांधी की हत्या से जुड़े दोषियों की रिहाई के बाद देश में कई प्रकार की प्रतिक्रियाएं और कई प्रश्न हैं। पहला यह कि क्या सर्वोच्च न्यायालय संविधान के अनुच्छेद-142 के तहत अपनी असाधारण शक्तियों का प्रयोग करते हुए आजीवन कारावास के दोषियों की रिहाई का आदेश दे सकता है? दूसरा, इस मामले में केंद्र की राय मानी जाएगी या राज्य सरकार की? क्या राज्य सरकार को पूर्व प्रधानमंत्री की हत्या जैसे गंभीर मामले में आतंकियों को माफ करने का अधिकार है? सवाल यह भी है कि उम्र कैद की सजा का भी कोई अंत होना चाहिए या नहीं? उम्र कैद ही नहीं, बगैर मुकदमे के बरसों से जेल में बंद कैदियों की रिहाई का मसला भी तो है।
इसके कानूनी दायरे पर न्यायविदों को विचार करना है, पर इस दायरे से बाहर कुछ ज्यादा जरूरी सवाल हैं। पहला यह कि क्या ऐसे मामलों को राजनीतिक दृष्टि से देखना चाहिए? इस सिलसिले में कांग्रेस पार्टी की प्रतिक्रिया अपने आप में अजूबा है। पार्टी ने आधिकारिक रूप से इस रिहाई का विरोध और प्रकारांतर से केंद्र सरकार के दृष्टिकोण का समर्थन किया है। हालांकि गांधी परिवार की कोई प्रतिक्रिया सामने नहीं आई है, पर पार्टी की आधिकारिक प्रतिक्रिया में परिवार के दृष्टिकोण से असहमति व्यक्त की गई है। अतीत में सोनिया गांधी, प्रियंका गांधी वाड्रा और राहुल गांधी सार्वजनिक रूप से कह चुके हैं कि राजीव गांधी के सभी हत्यारों को माफ कर दिया जाए।
पार्टी बनाम परिवार
परिवार और पार्टी के बयानों की विसंगति यहीं तक सीमित नहीं है। इस मामले में कांग्रेस और तमिलनाडु में उसकी गठबंधन सहयोगी डीएमके के नजरियों में बुनियादी अंतर है। एक समय था, जब इसी मामले को लेकर जैन आयोग की खबर लीक हो जाने पर कांग्रेस ने इंद्र कुमार गुजराल की सरकार से समर्थन वापस ले लिया था। लेकिन आज कांग्रेस और डीएमके के औपचारिक दृष्टिकोणों में टकराव होने के बावजूद कोई जुंबिश नहीं है।
कांग्रेस ने इसका हल्का सा जिक्र करने के बाद खामोशी ओढ़ ली है। क्या इसे खाने और दिखाने के दांतों का मामला मानें? अभिषेक मनु सिंघवी दिल्ली में शीर्ष अदालत के आदेश का विरोध कर रहे थे, तो तमिलनाडु में नलिनी के घर के बाहर आतिशबाजी चल रही थी। डीएमके के नेता इसे अपनी विजय के रूप में प्रचारित कर रहे हैं।
कांग्रेस की उस गलती ने भारतीय राजनीति की सूरत ही बदल दी और पंथ-निरपेक्षता का अर्थ बदल गया। ऐसे में जब प्रियंका गांधी वाड्रा राजनीतिक मंच से दुर्गा सप्तशती पढ़ती दिखाई पड़ती हैं या राहुल गांधी ‘जनेऊधारी दत्तात्रेय गोत्री ब्राह्मण’ और ‘शिव भक्त’ का तमगा लगाते हैं, तब यह असमंजस खुलकर प्रकट होता है। पार्टी लगातार उभरने की कोशिश कर रही है, पर यह नहीं देख पा रही है कि उसके नैरेटिव में ही कहीं दोष है। विचारधारा के स्तर पर कोई दावा करना एक बात है, पर आचरण में कुछ और नजर आना दूसरी बात है। दोनों में टकराव नहीं होना चाहिए।
यह अजूबा ही है कि कांग्रेस पार्टी की आधिकारिक राय मोदी सरकार की राय से मिल रही है। दूसरी तरफ, परिवार की राय के विपरीत जाकर पार्टी अपनी राय व्यक्त कर रही है। वहीं, परिवार के करीबी नेता मोदी सरकार की चुप्पी पर तंज कस रहे हैं, पर परिवार की चुप्पी पर ध्यान नहीं दे रहे हैं। यह द्रविड़ व्यायाम वस्तुत: कांग्रेस की विसंगतियों को व्यक्त कर रहा है। इन विसंगतियों का इतिहास लंबा हो गया है और उनकी वजह से ही पार्टी लगातार डूबती जा रही है।
गड्ड-मड्ड दृष्टिकोण
जिस पार्टी में परिवार की राय के बगैर पत्ता भी नहीं हिलता, उसके नेता अभिषेक मनु सिंघवी कहते हैं कि पार्टी सोनिया, राहुल और प्रियंका के विचारों से असहमत है। बड़ी हिम्मत वाली पार्टी है? यह असहमति परिवार की अनुमति के बगैर व्यक्त नहीं की जा सकती थी। तब यह गड्ड-मड्ड क्यों है? क्या पार्टी कानून के ‘शासन की भावना’ और ‘भावनाओं के भंवर’ में फंस गई है।
शनिवार 12 नवंबर को कांग्रेस ने आरोप लगाया कि पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के हत्यारों को समय-पूर्व रिहा किए जाने के फैसले पर नरेंद्र्र मोदी सरकार की ‘निंदनीय चुप्पी’ आतंकवादी कृत्य के साथ समझौता करना है। पार्टी के संगठन महासचिव केसी वेणुगोपाल ने ट्वीट किया, ‘‘आतंकवादियों के साथ कोई सहानुभूति नहीं होनी चाहिए। राजीव गांधी की हत्या के दोषियों की रिहाई पर मोदी सरकार की निंदनीय चुप्पी आतंकी कृत्य के साथ समझौता करना है।’’
उन्होंने द्रमुक और तमिलनाडु के कुछ अन्य पक्षों का नाम लिए बगैर कहा, ‘‘जो आतंकवादियों की रिहाई पर वाहवाही कर रहे हैं, वे भी परोक्ष रूप से आतंकियों का हौसला बढ़ा रहे हैं।’’यहां फिर से राजनीतिक मंतव्य पर ध्यान दें। रिहाई के समर्थन या विरोध में सोनिया, राहुल या प्रियंका ने कोई बयान जारी नहीं किया। क्या यह इतनी छोटी घटना थी कि उन्होंने प्रतिक्रिया देने की जरूरत नहीं समझी? यह रिहाई यदि उनकी मनोकामना और मांग के अनुरूप है, तो उन्हें इसका स्वागत करना था। यदि वे रिहाई के विरुद्ध हैं, तो विरोध करना चाहिए। उसके बाद मोदी सरकार की चुप्पी पर पार्टी टिप्पणी करती तो बेहतर होता। उनकी अपनी चुप्पी का मतलब क्या है?
रबर की रस्सी
तमिलनाडु की द्रविड़ राजनीति में राजीव गांधी के हत्यारों को ‘स्वतंत्रता सेनानी’ मानने वाले भी हैं। हालांकि आज तमिल राजनीति राष्ट्रीय मुख्यधारा में शामिल है, पर उसकी पृष्ठभूमि में अलगाववादी आंदोलन भी शामिल रहा है। कांग्रेस का उस राजनीति से जुड़ना विस्मयकारी नहीं है। कांग्रेस ऐसा दूसरे मामलों में भी करती रही है। जब भी वह उत्तर में परास्त होती है, दक्षिण की शरण में जाती है। वस्तुत: उसका ‘आइडिया आफ इंडिया’ रबर की रस्सी है। जब चाहो, जितना खींचो।
2019 में कश्मीर से अनुच्छेद-370 हटने के बाद उसकी प्रतिक्रिया से यह स्पष्ट हो गया था। पाकिस्तानी इशारे पर खूनी खेल चलाने वाले उसकी नजर में ‘भटके हुए युवा’ हैं। 14 फरवरी 2019 को पुलवामा विस्फोट के बाद पार्टी ने राजनीतिक लाभ उठाने में देरी नहीं की। उसी साल हुए लोकसभा चुनाव के पहले पार्टी को घोषणापत्र में कहा गया, आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर्स एक्ट में बदलाव होगा, भारतीय दंड संहिता की धारा 124ए यानी देशद्रोह के कानून को भी हटाया जाएगा।
उस घोषणापत्र में कृषि कानूनों को लेकर जो वादे किए गए थे, उनके विपरीत जाकर कांग्रेस ने पंजाब के किसान-आंदोलन का समर्थन किया। खासतौर से 26 जनवरी को लाल किले पर हुए हमले को लेकर पार्टी जिस तरह से खामोश रही, वह हैरत की बात थी। ऐसी ही भूमिका जेएनयू परिसर की ‘टुकड़े-टुकड़े सभा’ के समय पार्टी ने अदा की थी। बाद में कन्हैया कुमार को पार्टी में शामिल भी कर लिया। 2020 के दिल्ली दंगों के समय उमर खालिद के मामले में भी कांग्रेस का दृष्टिकोण अंतर्विरोधी रहा।
बड़े पेड़ का गिरना
राजीव गांधी का 19 नवंबर, 1984 का एक महत्वपूर्ण बयान इतिहास में दर्ज है। 31 अक्तूबर, 1984 को इंदिरा गांधी की हत्या के बाद दिल्ली समेत देश के कई शहरों में सिख विरोधी दंगे हुए। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद उनका पहला जन्मदिन 19 नवंबर, 1984 को था। सिख-विरोधी दंगों को शुरू हुए 15 दिन भी नहीं बीते थे और कांग्रेस ने तमाम रस्मो-रिवाज के साथ इंदिरा गांधी का जन्मदिन मनाने की घोषणा कर दी।
राजीव गांधी ने बोट क्लब की रैली में कहा, ‘‘गुस्से में उठाया गया कोई भी कदम देश के लिए घातक होता है। कई बार गुस्से में हम जाने-अनजाने ऐसे लोगों की मदद करते हैं जो देश को बांटना चाहते हैं।’’ इसके बाद उन्होंने जो कहा, वह चौंकाने वाला था। उन्होंने कहा, ‘‘हमें मालूम है कि भारत की जनता को कितना क्रोध है, कितना गुस्सा है और कुछ दिन के लिए लोगों को लगा कि भारत हिल रहा है। जब भी कोई बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती थोड़ी हिलती है।’’ राजीव गांधी के बयान से लगा मानो सिखों की हत्या को सही ठहराने की कोशिश की जा रही है।
कांग्रेस ने इस बयान की आलोचना कभी नहीं की, बल्कि पिष्ट-पोषण किया। दंगों के 20 साल बाद कांग्रेस ने मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाकर प्रतीक रूप में सिखों का मन जीतने की कोशिश की। मनमोहन सिंह ने संसद में हत्याकांड के लिए माफी भी मांगी थी और कहा कि जो कुछ भी हुआ, उससे हमारा सिर शर्म से झुक जाता है। क्या इतने भर से ऐसे जघन्य हत्याकांड की याद मिट सकती है?
शाहबानो प्रसंग
1985 में सुप्रीम कोर्ट ने शाहबानो मामले में उन्हें तलाक देने वाले शौहर को हर महीने गुजारा भत्ता देने का आदेश दिया। मुस्लिम कट्टरपंथियों ने इसे मुस्लिम पर्सनल लॉ में दखल बताकर सर्वोच्च न्यायालय के फैसले का जबरदस्त विरोध किया। राजीव गांधी की सरकार ने 1986 में कानून बनाकर अदालत के फैसले को पलट दिया। संविधान का अनुच्छेद-14 सभी नागरिकों को ‘कानून का समान संरक्षण’ देता है। पत्नी के भरण-पोषण के मामले में इस्लामी व्यवस्थाएं हैं, पर शाहबानो ने दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के तहत न्याय मांगा था। पत्नी, नाबालिग बच्चों या बूढ़े मां-बाप, जिनका कोई सहारा नहीं है और जिन्हें उनके पति या पिता ने छोड़ दिया है, वे धारा 125 के तहत भरण-पोषण की मांग कर सकते हैं। बहरहाल, शाहबानो कानूनी लड़ाई जीतने के बाद भी हार गई।
कांग्रेस की उस गलती ने भारतीय राजनीति की सूरत ही बदल दी और पंथ-निरपेक्षता का अर्थ बदल गया। ऐसे में जब प्रियंका गांधी वाड्रा राजनीतिक मंच से दुर्गा सप्तशती पढ़ती दिखाई पड़ती हैं या राहुल गांधी ‘जनेऊधारी दत्तात्रेय गोत्री ब्राह्मण’ और ‘शिव भक्त’ का तमगा लगाते हैं, तब यह असमंजस खुलकर प्रकट होता है। पार्टी लगातार उभरने की कोशिश कर रही है, पर यह नहीं देख पा रही है कि उसके नैरेटिव में ही कहीं दोष है। विचारधारा के स्तर पर कोई दावा करना एक बात है, पर आचरण में कुछ और नजर आना दूसरी बात है। दोनों में टकराव नहीं होना चाहिए।
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