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मसाला नहीं, मूल्यों का मोल

दक्षिण भारतीय निर्माता जहां भारतीय संस्कृति, देशभक्ति, ऐतिहासिक चरित्रों पर नए ढंग से काम कर रहे हैं, वहीं हिन्दू देवी-देवताओं के अपमान को लेकर धर्म-आस्था का गलत चित्रण बॉलीवुड का शगल ही बन गया है

by विशाल ठाकुर
Nov 16, 2022, 12:20 pm IST
in भारत, विश्लेषण, मत अभिमत, मनोरंजन
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दक्षिण भारतीय फिल्मकार जहां अलग-अलग विषयों पर प्रयोग करने से नहीं चूक रहे, वहीं बॉलीवुड स्टार सिस्टम के आगे नतमस्तक है और बंधे-बंधाए ढर्रे से आगे नहीं निकल पा रहा। दक्षिण भारतीय निर्माता जहां भारतीय संस्कृति, देशभक्ति, ऐतिहासिक चरित्रों पर नए ढंग से काम कर रहे हैं, वहीं हिन्दू देवी-देवताओं के अपमान को लेकर धर्म-आस्था का गलत चित्रण बॉलीवुड का शगल ही बन गया है


हाल में आई फिल्मों कंतारा
और पेन्नियन सेलवन-1 की सफलता से बॉलीवुड बनाम दक्षिण भारतीय सिनेमा की बहस को और बल मिल गया है। एक तरफ दक्षिण भारतीय फिल्में न केवल विदेशों तक में अपना वर्चस्व बढ़ा रही हैं, वहीं बॉलीवुड फिल्मों के दर्शक तेजी से छिटकते जा रहे हैं।

स्पष्ट है कि हिन्दी फिल्मों की सामग्री और प्रस्तुतीकरण में बीते कई वर्षों से वह बात नहीं दिख रही, जो दर्शकों को दक्षिण की फिल्मों में भाने लगी है। लगातार एक ही ढर्रे वाली हिन्दी फिल्मों की विफलता यह बताने के लिए काफी है कि बॉलीवुड के अधिकतर फिल्मकार बीते सात वर्ष से अभी तक यह नहीं समझ पाए हैं कि उनके दर्शकों की पसंद क्यों और किस रूप में बदल रही है। या लगता है कि वे समझना ही नहीं चाहते। वरना बाहुबली की विश्वव्यापी सफलता के बाद हिन्दी फिल्मों की विषय-वस्तु और प्रस्तुतीकरण में थोड़ा भी बदलाव तो दिखता।

बॉलीवुड का फिल्म उद्योग, स्टार सिस्टम के आगे पूरी तरह से घुटनों पर है। कमाई की बात छोड़ भी दें, तो कोई एक फिल्म तो ऐसी हो जिसे देखने के बाद बार-बार देखने की इच्छा हो। वहीं दक्षिण भारतीय फिल्मकार अलग-अलग विषयों के साथ प्रयोग करने से नहीं चूक रहे। वहां, पोन्नियन सेलवन जैसी पौराणिक ऐतिहासिक फिल्म बन रही है, तो कार्तिकेय के केन्द्र में धर्म, आस्था और आधुनिकता का मेल दिखाई देता है।

वहां एक तरफ अगर आरआरआर जैसी देशभक्ति से सराबोर फिल्म पूरी दुनिया में सफलता और सुर्खियां पाती है, तो पुष्पा और केजीएफ 2 जैसी मसालेदार-मारधाड़ वाली फिल्में भी बन रही हैं, जो गारंटी के साथ अपने दर्शकों का मनोरंजन करने में सफल हैं। इनके मुकाबले बॉलीवुड मौलिक तो छोड़िए, दक्षिण और विदेशी फिल्मों के रीमेक भी ठीक नहीं बना पा रहा। आमिर खान की लाल सिंह चड्ढा और हिृतिक रोशन एवं सैफ अली खान की विक्रम वेधा, फ्लॉप रीमेक के ताजा उदाहरण हैं।

हिन्दी फिल्मों की दुर्दशा
बॉलीवुड को अपनी खस्ताहाली पर क्यों शर्माना चाहिए? यह जानने के लिए हाल में आई मिली, फोन भूत, डबल एक्सएल और तड़का जैसी फिल्मों पर नजर दौड़ाना काफी होगा। जाह्नवी कपूर और सनी कौशल (विकी कौशल के भाई) की मिली, मलयालम फिल्म हेलेन की रीमेक है जो न तो ढंग से कमाई कर पाई और न ही दर्शकों को प्रभावित। जाह्नवी की पिछली फिल्म गुडलक जैरी, जो एक तमिल फिल्म कोलामावु कोकिला की रीमेक थी, को भी इसी श्रेणी में रखा जा सकता है। और उससे पिछली फिल्म रूही (2021), जिसके निर्माता की अगली फिल्म भेड़िया में वे दिखेंगी, को सबसे खराब फिल्म करार दिया गया था।

इसी तरह से कैटरीना कैफ की हॉरर-कॉमेडी फिल्म फोन भूत में इशान खट्टर हीरो हैं जो शाहिद कपूर के छोटे भाई हैं और निर्माता हैं, फरहान अख्तर एंड कंपनी। लगता है कि फिल्म बिरादरी के लोगों ने बिना दर्शकों की परवाह किए नजदीकी लोगों को लेकर फिल्म बना डाली है। सोनाक्षी सिन्हा और हुमा कुरैशी की फिल्म डबल एक्सएल, यूं तो ज्यादा वजन वाली युवतियों की कहानी है, पर इससे शायद ही कोई खुद को जोड़ पाए। ओटीटी पर आई तापसी पन्नू की फिल्म तड़का, अभिनेता प्रकाश द्वारा निर्देशित है, जो असल में मलयालम की सफल फिल्म साल्ट एंड पैपर का रीमेक है।

ऐसा लगता है कि फिल्म निर्माण के नाम पर बॉलीवुड ने कुछ चीजें हमेशा के लिए रट ली हैं। मसलन, फिल्म से कमाई करनी है तो स्टार या स्टार का रिश्तेदार, बड़ा बजट, चालू कहानी, रीमेक, आइटम सॉन्ग, विदेश में शूटिंग, डिजाइनर कपड़े, चमक-दमक, ग्लैमर और मीडिया में प्रचार जैसी कुछ प्राथमिकताएं नजर आती हैं। बॉलीवुड के अधिकतर फिल्मकार, निर्माता या लेखक असल सामग्री पर बात तो बहुत करते दिखेंगे, लेकिन काम करते नहीं।

देश, धर्म और इतिहास बना ताकत
दुनिया में 500 करोड़ रुपये से अधिक का कारोबार कर चुकी मणिरत्नम की फिल्म पोन्नियन सेलवन-1, को बनाने का सपना 64 वर्ष बाद पूरा हुआ है। 1955 में इसी नाम से आए कल्कि कृष्णमूर्ति के उपन्यास पर आधारित इस फिल्म को बनाने का विचार सर्वप्रथम दक्षिण भारतीय फिल्मों के दिग्गज अभिनेता, फिल्मकार एम.जी. रामचंद्रन (एमजीआर) को 1958 में सूझा था। लेकिन उनके साथ एक दुघर्टना की वजह से फिल्म शुरू ही न हो सकी।

फिर 1980 में मणिरत्नम और कमल हासन ने सत्यराज (बाहुबली के कटप्पा) और प्रभु जैसे कलाकारों के साथ फिल्म बनाने की सोची, पर वह दौर शायद इतनी महंगी फिल्मों के लिए उपयुक्त नहीं था। नब्बे के दशक में कमल हासन इस पर एक टीवी धारावाहिक बनाने की सोच रहे थे। फिर साल 2010 में एक बार फिर मणिरत्नम ने पोन्नियन सेलवन को बनाने का बीड़ा उठाया और लाख कठिनाइयों के बाद इसे साकार भी किया।

दरअसल, यह फिल्म 10वीं शताब्दी के चोल राजवंश (850 ई.) की ऐतिहासिक गौरवशाली गाथा का चित्रण करती है। चोल शासकों ने 9वीं से 13वीं शताब्दी तक एक शक्तिशाली हिन्दू साम्राज्य के तहत शासन किया था, जो भारत सहित आस-पास के देशों तक फैला था। मणि चाहते थे कि भारतवासी अपनी सनातन संस्कृति के बारे में किताबों से इतर, सिनेमा के जरिए भी जानें।
इसी तरह से देखें तो तेलुगू फिल्म कार्तिकेय-2 धर्म-आस्था एवं आधुनिकता का सटीक मिश्रण प्रस्तुत करती है। इसके हिन्दी संस्करण ने दर्शकों को महज पांच दिनों में ऐसा मंत्रमुग्ध किया कि इसकी स्क्रीन संख्या 50 से 1500 करनी पड़ गई।

साल 2014 में इसी नाम से आई फिल्म की इस कड़ी में एक युवा डॉक्टर की कहानी है, जो भगवान श्रीकृष्ण से जुड़े रहस्यों की खोज में द्वारकापुरी से वृंदावन होते हुए हिमालय तक जाता है। इसमें धार्मिक संस्मरणों और रोमांच का समागम एक सटीक तालमेल के साथ नत्थी है, जो दर्शकों को भा गया और महज 15 करोड़ में बनी यह फिल्म 120 करोड़ रुपये का कारोबार कर गई जबकि इसी के साथ आई आमिर खान की अंग्रेजी फिल्म फॉरेस्ट गम्प के रीमेक, मेगा बजट फिल्म लाल सिंह चड्ढा को लोगों ने सिरे से नकार दिया।

दर्शक का मन
इसमें दो राय नहीं कि बॉलीवुड के ज्यादातर फिल्मकार दर्शकों का मन पढ़ने में नाकाम नजर आ रहे हैं, जबकि दक्षिण के फिल्मकार लंबे समय से देशभक्ति, भारतीय संस्कृति, धर्म, आस्था, ऐतिहासिक महत्व, महान एवं प्रेरणादायी चरित्रों सहित अलग-अलग विषयों पर भी फिल्में बना रहे हैं और एक विमर्श स्थापित करने में कहीं आगे हैं। इसके उलट बॉलीवुड फिल्में हो या वेब सीरीज, ज्यादातर को लेकर आये दिन विवाद भी होते रहते हैं। कभी हिन्दू देवी-देवताओं के अपमान को लेकर तो कभी धर्म और आस्था की बातों के गलत चित्रण को लेकर लोगों की भावनाओं से खिलवाड़ करना बॉलीवुड का शगल बन गया है।

तो वहीं दक्षिण की फिल्मों में धर्म, आस्था और हिन्दू देवी-देवताओं के चित्रण को काफी अलग ढंग से प्रस्तुत किया जाता है। उदाहरण के लिए कन्नड़ में बनी फिल्म कंतारा, जिसका नायक शिवा लुंगी-बनियान के साथ सिर पर गमछा बांधे, मनमौजी और भड़कीले स्वभाव का है, लेकिन अपने जंगल और पूर्वजों से उसका रिश्ता इस कदर चौंकाने वाला है कि दर्शक दंग रह जाते हैं।

Topics: हिन्दी फिल्मों की दुर्दशाशक्तिशाली हिन्दू साम्राज्यधर्मदेशफिल्मों कंतारापेन्नियन सेलवन-1धर्म और इतिहासआस्था और हिन्दू देवी-देवताओं के चित्रण
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